पत्रकार प्रशांत कनौजिया की गिरफ्तारी का विरोध करने वाले तमाम लोग बधाई के पात्र हैं। सिविल सोसाइटी, प्रेस क्लब, प्रशांत की पत्नी और उन सभी प्रगतिशील लोगों को मुबारकबाद जिन्होंने प्रशांत की गिरफ्तारी का विरोध किया।
प्रशांत से पहले बिहार के पत्रकार रूपेश कुमार सिंह की गिरप्तारी हुई थी। प्रशांत की रिहाई के मांग के साथ रूपेश को भी रिहा करने की मांग उठाई गई थी, लेकिन सर्वोच्च न्यायलय के फैसले के बाद ‘’रिलीज़ प्रशांत, रिलीज़़ रूपेश कुमार सिंह’’ हैशटैग नेपथ्य में जा चुका है। वजह? रूपेश की गिरफ्तारी बाकी पत्रकारों की गिरफ्तारी से कई मामलों में अलग है।
रूपेश को किसी गैर-जिम्मेदार ट्वीट या अपुष्ट ख़बर अथवा दावे को प्रसारित करने के लिए गिरफ्तार नहीं किया गया है। उन्हें लगातार आदिवासियों के शोषण पर लिखने और उसके माध्यम से सरकार का विरोध करने के लिए गिरफ्तार किया गया है। रूपेश की गिरफ्तारी की तफ्तीश करने से जाहिर होता है कि एक सुनियोजित रणनीति के तहत रूपेश को फंसाया गया है।
अगले दिन 6 जून को मिथिलेश का फ़ोन आया कि वे ठीक हैं और घर आ रहे हैं, लेकिन तीनों घर नहीं पहुंचे। रामगढ़ पुलिस ने तीनों को ढूंढने के लिए स्पेशल टीम भी बनाने की बात कही और परिवार से गुजारिश की गई अगर ये लोग घर पहुंच जाएं तो तुरन्त पुलिस को इत्तला दे दी जाए।
अगले दिन 7 जून को अखबार में खबर छपी- ‘’विस्फोटक के साथ तीन हार्डकोर नक्सली रूपेश कुमार सिंह, मिथलेश कुमार सिंह और मुहम्मद कलाम को शेरघाटी-डोभी पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया है’’।
आगे बढ़ने से पहले रूपेश के बारे में संक्षेप में जानना ज़रूरी है। रूपेश छात्र जीवन में छात्र संगठन आइसा से जुड़े रहे हैं। कुछ साल पहले आइसा से वैचारिक मतभेद होने पर उन्होंने संगठन से दूरी बना ली थी। अपने क्षेत्र में रह कर वे लिखने-पढ़ने के काम में लग गए थे। कहीं किसी अख़बार में उन्होंने नौकरी तो नहीं की, लेकिन तमाम पत्र-पत्रिकाओं में अपने लेखन के माध्यम से आदिवासियों और दलितों के सवाल लगातार उठाते रहे।
वामपंथी छात्र संगठन का अतीत होने के चलते उनके ऊपर नक्सली होने का आरोप आसानी से लगाया जा सकता है। लेकिन सवाल उन अखबारों पर है जिन्होंने कथित नक्सलियों की गिरफ्तारी की खबर छापने से पहले सवाल पूछना मुनासिब नहीं समझा, जो 4 से 7 जून के बीच हुए घटनाक्रम पर स्वाभाविक तौर पर बनते हैं।
मसलन, अगर शेरघाटी पुलिस ने उन्हें 6 जून को गिरफ्तार किया तो रामगढ़ की पुलिस उन्हें ढूंढने की बात कैसे कह रही थी? गुमशुदगी के दौरान तीन दिनों तक रूपेश और उनके साथियों को कहां रखा गया? रामगढ़ पुलिस, जिसने मोबाइल दो घंटे में वापस करने की बात कही थी, उसे क्यों नहीं लौटाया गया?
इन सवालों का न उठना इस बात की ताकीद करता है कि रूपेश की गिरफ्तारी क्षेत्रीय पत्रकारिता में फैले सन्नाटे को बढ़ाएगी। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, दिल्ली के पत्रकार संगठन, कथित राष्ट्रीय मीडिया में भारी तनख्वाह पर आरामदायक नौकरी कर रहे पत्रकार अगर यह सोचते हैं कि उनकी सेलेक्टिव नैतिकता के हो-हल्ले में रूपेश का सवाल चुपचाप नेपथ्य में जाकर चन्द दिनों के भीतर खत्म हो जाएगा, तो यहां दिल्ली के पत्रकार भारी भूल कर रहे हैं। उनकी सेलेक्टिविटी न सिर्फ रूपेश को सलाखों को पीछे पहुंचाने में मदद करेगी, बल्कि क्षेत्रीय पत्रकारिता में बची-खुची जनपक्षधर आवाजों को भी खत्म कर देगी।
‘’रिलीज रूपेश’’ का हैशटैग जैसे-जैसे नेपथ्य में जाएगा, सत्ता का अट्टहास नेपथ्य से निकल कर सामने आएगा। फिर क्षेत्रीय पत्रकारिता के सामने जैसा संकट खड़ा होगाख् उसकी आप कल्पना तक नहीं कर सकते। उत्तर प्रदेश के शामली में एक चैनल के पत्रकार की जीआरपी द्वारा की गई पिटाई इस बात का सबूत है कि रेल हादसे जैसे मामूली घटना की कवरेज करने वाला स्थानीय स्ट्रिंगर भी सुरक्षित नहीं है। ऐसी घटनाएं बताती हैं कि उत्पीड़न के लिए पत्रकार का लिखना-पढ़ना ज़रूरी नहीं, वह बिना लिखे-पढ़े भी फंसाया जा सकता है। फिर रूपेश तो विवेकवान, जनपक्षधर और मेधावी लेखक हैं। ऐसे लेखक-पत्रकार तो सत्ता को बहुत पहले रास आने बंद हो गए, केवल वही बचे हुए हैं तो सरकारी प्रेस कॉन्फ्रेंस की खबर लहालोट हो कर छापें।
रूपेश या अन्य के समर्थन में आवाज़ उठाने के लिए किसी जातिगत, निजी या वैचारिक हित से संचालित होने की जरूरत नहीं है। केवल गलत को गलत कहने का साहस चाहिए। यूपी से लेकर बिहार और झारखंड तक जैसा माहौल बन रहा है, उसमें जातिगत या वैचारिक आधार पर चुप्पी लगा जाने वाले भी कल को नहीं बचेंगे। खुद को बचाना है तो दूसरे के लिए बोलना पड़ेगा। चाहे दिल्ली हो, लखनऊ हो या रांची।
लेखक जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र हैं