क्या गेस्ट हाउस काण्ड वाकई दफ़न हो गया है या यह सपा-बसपा का अनैतिक अवसरवाद है?

उत्‍तर प्रदेश की गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों पर पिछले दिनों हुए उपचुनाव के नतीजे भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ आए। इस परिणाम पर कई नज़रिये से अलहदा विश्‍लेषण देखने को मिले। सबसे सहज और बार-बार बताया जाने वाला कारण बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच का समझौता है जिसने दोनों सीटों पर बीजेपी को रोक दिया। एक विश्‍लेषण बीजेपी के भीतर मौजूद अंतविरोधों से निकलकर आ रहा है। इस समूचे विमर्श में ऐसा पहली बार है कि कहीं भी मुस्लिमों की भूमिका और वोटिंग पैटर्न पर बात ही नहीं हो रही, जबकि उत्‍तर प्रदेश के चुनावों में मुस्लिम हमेशा से निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। लिहाजा इस समुदाय की ओर से आने वाला विश्‍लेषण उपर्युक्‍त दोनों को नकारते हुए तीसरी बात कह रहा है। सारी बहस के केंद्र में कुछ सवाल हैं जो बार-बार सिर उठा रहे हैं।
क्‍या सपा-बसपा का गठजोड़ बीजेपी को रोकने के लिए पर्याप्‍त है? इस गठजोड़ का आधार क्‍या वैचारिक है या यह सुविधा की शादी है? क्‍या यह मुलायम-कांशीराम के मेल का दूसरा संस्‍करण है? क्‍या यह मंडल की राजनीति का विस्‍तार है अथवा क्षुद्र राजनीतिक स्‍वार्थों का मिलन? इस पूरे समीकरण में मुसलमान कहां अवस्थित है? इन सवालों का जवाब तब तक नहीं मिल सकता जब तक हम पीछे जाकर यह मूल्‍यांकन न करें कि मंडल की राजनीति इस देश में कमंडल को रोकने में कितना कामयाब या नाकाम रही है। आज ढाई दशक बाद भारतीय राजनीति में मंडल पर चर्चा करना पहले से कहीं ज्‍यादा मौजूं बन पड़ा है।
मीडियाविजिल इस बहस में तमाम विचारों को आमंत्रित करता है। लोकसभा उपचुनाव के परिणाम के बहाने हम इस बहस में यह समझने की कोशिश करेंगे कि मंडल या उसके कथित विस्‍तार का असली चरित्र क्‍या है और बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति के बरक्‍स इसकी कितनी अहमियत और प्रासंगिकता बची है। इस बहस में दूसरा लेख मोहम्मद आरिफ़ का है जो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इतिहास के शोधार्थी है, अधिवक्ता हैं और रिहाई मंच से जुड़े सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं।  
(संपादक)


मो. आरिफ़

पिछले कुछ दिनों से उपचुनावों के बाद ज्यादातर अख़बारों और वेब आधारित मीडिया ने बीजेपी की हार में सपा-बसपा के गठबंधन को प्रमुखता से छापा है और बार-बार इशारा किया है कि ये समय उत्तर प्रदेश की राजनीति में 27 साल पुराने गेस्ट हाउस काण्ड को दफनाने का है| बुआ-बबुआ यानि मायावती और अखिलेश यादव के गठबन्धन को ज्यादातर विश्लेषकों ने समय की मांग और सकारात्मक कदम माना है जो आनेवाले चुनावों में बीजेपी के लिए एक बड़ा विपक्ष बनाने का माद्दा रखता है और उत्तर प्रदेश की राजनीति के जरिये आगामी लोकसभा चुनावों में एक संयुक्त विपक्ष के गठबंधन की पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण हो सकता है| इस तरह से सपा-बसपा के गठबंधन को बीजेपी के खिलाफ एक निर्णायक कदम बताया जा रहा है|

गेस्ट हाउस काण्ड को दफ़नाने की बात बड़े-बड़े दिग्गज और विश्लेषक कर रहे हैं लेकिन कोई भी गेस्ट हाउस काण्ड पर बात नहीं कर रहा है जबकि सपा-बसपा के आपसी रिश्तों और उनके नए गठबंधन को समझने के लिए गेस्ट हाउस काण्ड को जान लेना अग्रिम शर्त है क्योंकि सपा-बसपा पहले भी गठजोड़ में सरकार बना चुके हैं और गेस्ट हाउस में हुई घटना के बाद यह गठजोड़ टूट गया था| बसपा सुप्रीमो बार-बार किसी भी गठजोड़ में समाजवादी पार्टी के साथ हर संभावना को नकारते आई हैं| 2014 में भी उन्होंने किसी भी गठबंधन को नकार दिया था लेकिन 2014 से अब तक काफी कुछ बदल गया है और इन्हीं कारणों में इस गठबंधन का भविष्य भी छिपा है|

उत्तर प्रदेश की राजनीति के बाबत दो घटनाएँ सबसे ज्यादा प्रभावकारी और राजनैतिक निहितार्थ वाली रही हैं| पहली घटना बाबरी मस्जिद विध्वंस की थी जिसने प्रदेश में संघ और बीजेपी को नफरत की राजनीति का प्लेटफॉर्म मुहैया कराया जबकि दूसरी घटना लखनऊ गेस्ट हाउस काण्ड थी, जिसने वास्तविक अर्थों में बीजेपी के विरुद्ध आने वाले वर्षों में सामाजिक न्याय और पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों के सवालों पर साझा और मज़बूत मोर्चे की सभी संभावनाओं को गर्भ में ही समाप्त कर दिया| वास्तव में बीजेपी के विरुद्ध ऐसे किसी मोर्चे को मजबूत बनाने के बजाय सपा-बसपा के नेताओं ने अन्य पूंजी और आपराधिक तत्वों से गठजोड़ करने वाली राजनीति को चुना और नतीजन गेस्ट हाउस की घटना हुई| कुछ लोग गेस्ट हाउस में होने वाली इस घटना के लिए ब्राह्मणवाद और बीजेपी को जिम्मेदार मानते हैं जबकि सच्चाई यह है कि दोनों ही पार्टियों के समर्थक और नेता इस घटना का जिम्मेदार बीजेपी को ठहराकर अपना पल्ला झाड़ना चाहते हैं और इस सच को मानने से इनकार करते हैं| इनके नेताओं का जातिवादी चरित्र और धनलोलुपता के कारण ही सामाजिक न्याय के नाम पर शुरू हुई राजनीति आपराधिक तत्वों के साथ एका कर बैठी और इन्होंने बीजेपी और संघ के नेतृत्व में शुरू हुई हिन्दुत्ववादी राजनीति के विरुद्ध कोई ठोस राजनैतिक कार्यक्रम बनाने के बजाय इस बात के लिए होड़ शुरू कर दी कि इस हिन्दुत्ववादी राजनीति को पिछड़ा और दलित नेतृत्व प्रदान करेंगे न कि सवर्ण जातियां और ब्राह्मणवाद| इसी राजनीति के दबावों का परिणाम था कि मुलायम सिंह को यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा कि उन्हें अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाने का बेहद अफ़सोस है|

उत्तर प्रदेश के राज्य गेस्ट हाउस लखनऊ में 2 जून 1995 को हुई घटना जिसमें सपा समर्थकों ने कई सपा नेताओं के साथ धावा बोल दिया था और बसपा सुप्रीमो मायावती सहित कई अन्य लोगों को घंटों बंधक बनाये रखा था और मायावती के साथ अभद्रता की गई जबकि पुलिस प्रशासन को कार्यवाही नहीं करने के निर्देश मुख्यमंत्री कार्यालय से दिए गए थे| देर रात घंटों तक चली इस घटना ने प्रदेश की सियासत से सपा-बसपा गठजोड़ की सभी संभावनाओं का अंत कर दिया था और बसपा गठबंधन से अलग हो गई थी| इस घटना को बीते हुए बहुत साल बीत चुके हैं और मायावती और सपा अलग चुनाव लडती आई हैं और मायावती ने हमेशा से ही सपा के साथ गठबंधन की सम्भावना को सिरे से खारिज किया है परन्तु बीजेपी के लोकसभा और विधानसभा प्रदर्शनों ने इन पुराने विरोधियों को फिर से एक कर दिया है| इस एका को दोनों ही पार्टियाँ बीजेपी के खिलाफ जनता की जीत बता रही हैं और तरह-तरह से प्रचारित कर रही हैं|

गेस्ट हाउस काण्ड के पीछे सपा-बसपा की कोई विचारधारात्मक लड़ाई कभी नहीं थी और दोनों ही पार्टियाँ इस बात को बखूबी समझती हैं| यही कारण है कि इसके कारणों पर दोनों में से कोई बात नहीं करना चाहता है| वास्तव में सपा सरकार को समर्थन देने के बदले में बसपा धन उगाही करती थी और धन के हिस्से को लेकर रोज-रोज होने वाली समर्थन वापसी की धमकी शिवपाल यादव समेत अन्य सपा नेताओं को खटकती थी और राज्य सत्ता के दुरुपयोग से जमा किये गए लूट के बड़े हिस्से को सपा नेता अपने पास रखना चाहते थे| इसी धन बंटवारे की लड़ाई का नतीजा गेस्ट हाउस काण्ड था जिसमें सपाई नेताओं ने समर्थकों की  भीड़ के साथ 2 जून 1995 को लखनऊ के गेस्ट हाउस पर धावा बोल दिया और बसपा नेताओं के साथ मारपीट और अभद्रता को अंजाम दिया जिसका एकमात्र उद्देश्य बसपा को सबक सिखाना था| इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि सपा-बसपा गठबन्धन किसी वैचारिक मिलाप के कारण न होकर राज्य सत्ता में पैसों के हिस्से के लिए किया गया था और इसी के चलते रोज-रोज की धन उगाही और समर्थन वापसी की धमकियों से तंग आकर सपा नेताओं ने इस घटना को अंजाम दिया और खुद मुलायम सिंह ने पुलिस को निष्क्रिय बने रहने के निर्देश दिए थे|

गेस्ट हाउस की घटना के बाद से अब तक उत्तर प्रदेश में दोनों ही पार्टियाँ अपनी बहुमत की सरकारें बनाने में कामयाब रही हैं और अगर गेस्ट हाउस को ध्यान में रखें तो यह बात अपने आप साबित हो जाती है कि सारी लड़ाई धन के बंटवारे के लिए हुई थी| मायावती पर अपने समर्थकों से मुलाक़ात करने से लेकर अपने जन्मदिन पर महंगे गिफ्ट और पार्टी फण्ड के नाम पर धन उगाही की बात समय-समय पर उनकी पार्टी के विधायक और नेता कहते आये हैं और इसी तरह चुनावों में पैसे लेकर टिकट देने का मामला भी किसी से भी छुपा नहीं है| दूसरी ओर कमोबेश यही हाल समाजवादी पार्टी का भी रहा है और शिवपाल और अखिलेश के बीच चुनावों के ठीक पहले हो रही खींचतान का एक प्रमुख कारण भी यही था| वास्तव में सपा-बसपा गठबंधन पूंजीगत लाभ उठाने के लिए किया गया था और वैचारिक स्तर पर इसका कोई उद्देश्य बीजेपी की जहरीली राजनीति को रोकना नहीं रहा है|

अगर मायावती की बात करें तो मायावती की राजनीतिक निष्ठा या वैचारिकी किसी भी स्तर पर बीजेपी के विरोध में कहीं नहीं टिकती है और न ही उनके पास कोई ठोस कार्यक्रम ही है| यही कारण है कि दलित और मुस्लिम हितों की बात उन्हें केवल चुनावों के समय ही याद आती है और वे बीजेपी की नफरत की राजनीति का प्रतिकार करने की बात कह रही हैं जबकि मायावती खुद बीजेपी के साथ सरकार बना चुकी और गुजरात दंगों के बाद भी उन्होंने बीजेपी के लिए चुनाव प्रचार किया था| इससे उनका बीजेपी की नफरत भरी राजनीति का प्रतिकार करने की बात करना हास्यास्पद लगता है – क्या गुजरात में हुई साम्प्रदायिक हिंसा नफरत की राजनीति का परिणाम नहीं थी या फिर उत्तर प्रदेश से बसपा का सूपड़ा साफ़ होने के बाद उन्हें बीजेपी की राजनीति में बाबा साहेब के बनाये संविधान को खतरा और देश में नफरत फैलाने का ज्ञान प्राप्त हो गया है? मायावती की बीजेपी से नजदीकियां जगजाहिर रही हैं और यही कारण है कि उनके मुंह से बीजेपी के विरुद्ध जनमत तैयार कर उसे रोकना नाटक प्रतीत होता है| वास्तव में बसपा के पास कोई ठोस कार्यक्रम या योजना भी नहीं है और वह केवल बीजेपी विरोध के नाम पर मुसलमानों को बरगलाकर उनका वोट हासिल करती आई है और उनके साथ विश्वासघात करते हुए बीजेपी का प्रचार भी करती है| यहाँ बताना मौजूं होगा कि मायावती के बीजेपी नेता और संघ के सदस्य ब्रह्मदत्त तिवारी के साथ करीबी सम्बन्ध थे और मायावती ने कभी उनके विरुद्ध अपना प्रत्याशी नहीं खड़ा किया|

उत्तर प्रदेश में बीजेपी को लेकर समाजवादी पार्टी का रवैया भी कमोबेश मायावती की तरह ही रहा है और समाजवादी पार्टी ने बीजेपी की नफरत की राजनीति के खिलाफ कभी भी कोई ठोस निर्णय न लेकर निष्क्रियता की नीति अपनाये रखी है| अखिलेश के नेतृत्व में सपा सरकार के कार्यकाल में मुसलमानों के विरुद्ध सांप्रदायिक हिंसा के मामले तेजी से बढे और गुजरात दंगो पर बीजेपी को कोसने वाली अखिलेश सरकार और उसके नेताओं ने मुज़फ्फरनगर में हुई सांप्रदायिक हिंसा के बाद दोषियों के ऊपर कार्यवाही करने के बजाय राहत शिविरों पर बुलडोज़र चलवाया और जानबूझकर संगीत सोम और राणा जैसे नेताओं के जहरीले बोलों और उकसावे भरे भाषणों के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं की| इसी तरह से गोरखपुर में हुई सांप्रदायिक हिंसा में आरोपी तत्कालीन सांसद योगी आदित्यनाथ पर कार्यवाही करने को उसने मंजूरी नहीं दी और उन्हें आसानी से मुख्यमंत्री पद तक पहुँचने दिया|

सपा-बसपा गठबंधन से कुछ विश्लेषक बहुत ही आशावादी हैं और गेस्ट हाउस की घटना पर सवाल नहीं करना चाहते और तर्क देते नजर आते हैं कि यह समय बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने का है जिससे बीजेपी को रोका जा सके न कि पुराने झगड़ों को याद करने का| यह तर्क बहुत ही सतही है क्योंकि एक ऐसे समय में जब 2014 के चुनावों में पूरा जोर लगाने के बाद भी और दोबारा उत्तर प्रदेश में बीजेपी को नहीं रोका जा सका बल्कि इसके उलट वह प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता प्राप्त करने में कामयाब रही है, ऐसे में इन बुनियादी सवालों का उत्तर देने के बजाय बीजेपी के डर का राग अलापना एक विश्वासघाती और भ्रामक चाल है जिसका एकमात्र उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना है| सपा-बसपा गठबंधन को इन्ही सवालों के आईने में देखा जाना चाहिए कि क्या वे वाकई में बीजेपी की विभाजनकारी राजनीति को रोकने की इच्छाशक्ति रखते हैं और क्या इनके पास कोई ठोस राजनीतिक कार्यक्रम है जिससे संघ और बीजेपी से संविधान प्रदत्त स्वतंत्रताओं और अल्पसंख्यकों को सुरक्षित किया जा सकता है?

सबसे अहम सवाल यह है कि क्या सपा-बसपा का राजनीतिक चरित्र और उनकी किसी वैचारिकी के अभाव में यह गठबंधन केवल अवसरवादी राजनीति का ही उदाहरण है? दोनों ही पार्टियों के इतिहास पर नजर डालें तो फ़िलहाल यही एक कड़वा सच है और इसलिए जनता को इनके अवसरवाद पर नजर रखना ज़रूरी है और इस गठबंधन के समर्थक बुद्धिजीवियों को और खुले दिमाग से सोचने की आवश्यकता है कि क्या जातिवादी राजनीति हिन्दुत्ववादी राजनीति का मुकाबला कर सकती है|

 

 

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