मुख्य तस्वीर, टाइम्स ऑफ इंडिया से साभार ली गई है। यह संदीप अध्वार्यु का शानदार कार्टून है जो गुजरात में जारी चुनावी जंग का असली चेहरा सामने रखता है। एक हताश प्रधानमंत्री वोट के लिए, पाकिस्तान का भूत जगा रहा है। यह उसके लिए आपातकाल से निपटने की तरक़ीब है। लेकिन ऐसा है क्यों ? जिस गुजरात मॉडल की बात करके मोदी ने पूरा भारत जीत लिया, उसकी चर्चा चुनाव में क्यों नहीं। न किसी भाषण में नोटबंदी का ज़िक्र है और न जीएसटी का जिसकी तुलना आज़ादी से करने के लिए आधी रात को संसद बैठी थी। वजह ये है कि गुजरात मॉडल जैसी कोई चीज़ है ही नहीं। आर्थिक मोर्चे पर गुजरात बहुत पीछे हो गया है, कम से कम जब बात ग़रीबों या कल्याणकारी राज्य की हो। इसलिए चुनाव के दौरान मोदी न रोज़गार देने के किसी वादे को पूरा करने का दम भर सकते हैं और न घर, शिक्षा या स्वास्थ्य को लेकर कोई दावा कर सकते हैं। जो भी है निजी क्षेत्र में है, पर लोगों की कमाई ऐसी नहीं है कि वो ज़िंदगी का सुख-चैन बाज़ार से ख़रीद सकें। इसलिए गुजरात चुनाव में मान-अपमान से लेकर मुसलमान और पाकिस्तान तक की दुहाई दी जा रही है। यह वह जाल है जिसमें एक बार फिर वोटर को पाँच साल के लिए फँसाने का इंतज़ाम छिपा है।
नीचे पढ़िए, इंदौर निवासी आर्थिक विशेषज्ञ गिरीश मालवीय की एक तथ्यपूर्ण टिप्पणी, जो बहुत कुछ कहती है–संपादक
भाजपा की वेबसाइट ‘बीजेपी डॉट ओआरजी’ बताती हैं कि गुजरात मॉडल का मतलब है- भरपूर नौकरी, कम मंहगाई, ज़्यादा कमाई, तीव्र गति से अर्थव्यवस्था का विकास, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, दुरुस्त सुरक्षा और बेहतरीन जीवन.
अब हकीकत क्या है इसे समझिए
आर्थिक सर्वे के अनुसार 1995 से 2005 के बीच गुजरात में रोजगार वृद्धि दर 2.6 फ़ीसदी रही जबकि हरियाणा में यह दर 36.7 फ़ीसदी थी. यह वृद्धि दर कर्नाटक में 29.8 फ़ीसदी, आंध्र प्रदेश में 27.7 फ़ीसदी और 24.9 फ़ीसदी तमिलनाडु में रही.दूसरी तरफ़ फैक्ट्री में मिलने वाले रोजगारों में भी कमी आई है. 1960-61 में गुजरात में प्रति फैक्ट्री 99 लोगों को रोजगार मिलता था जो 2005 में यह संख्या घटकर 59.44 हो गई. जबकि इन फैक्ट्रियों में औसत पूंजी निवेश ढाई गुनी बढ़ी है. इस तथ्य को ख़ुद गुजरात सरकार ने भी स्वीकार किया है.
स्वास्थ्य पर अपनी जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय का जितना हिस्सा गुजरात में खर्च किया जाता है उस मामले में यह देश मे आठवें नंबर पर है
साक्षरता में 2001 में गुजरात 16वें नंबर पर था और 2012 में और बुरी स्थिति हो गई. अब यह 18वे नम्बर पर पुहंच गया है
पुरुषों की औसत मजदूरी दर के मामले में गुजरात 2005-06 में नौवें नंबर पर था जो 2009-10 में 18वें नंबर पर पहुंच गया
मशहूर राजनीतिक वैज्ञानिक क्रिस्टोफ जैफरलॉ ने गुजरात मॉडल पर सवाल उठाए हैं. जैफरलॉ ने कहा है कि विकास का ‘गुजरात मॉडल’ एक तरह से ‘रोजगारहीन विकास’ का उदाहरण हैं उन्होंने कहा कि गुजरात मॉडल से निकलने वाले अधिकतर अवसरों पर लघु एवं मध्यम उपक्रमों (एसएमई) में क्षमता से कम नौकरियों का सृजन हुआ.
गुजरात में 22 साल में कर्ज 6,000 करोड़ से बढ़कर 2,06,000 करोड़ रुपए हो गया है. वहीं गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों की संख्या 21 लाख से बढ़कर 47 लाख हो गई है.
मनरेगा के जनक मशहूर अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज का कहना है कि इस तरह का कोई साक्ष्य ही नहीं है कि गुजरात मॉडल किसी तरीके का मॉडल है. उन्होंने सामाजिक सूचकों पर राज्य के पिछड़ेपन के संदर्भ में यह बातें स्पष्ट की है उन्होंने कहा, ”आप विकास सूचकों की किसी भी रैंकिंग को देखिए, चाहे वह सामाजिक सूचक हों, मानव विकास सूचकांक हों, बाल विकास सूचकांक हों, बहुआयामी गरीबी सूचकांक हों या फिर योजना आयोग के सभी मानक गरीबी सूचकांक इन सभी में गुजरात लगभग हमेशा बीच के आसपास ही रहा है.”
यानी किसी भी दृष्टिकोण से देख लिया जाए तो आप पाएंगे कि गुजरात मॉडल जैसी कोई चीज इस पृथ्वी पर नही है.
और इसीलिए मोदी जी खुलकर अपने उस वोट जुगाड़ने वाले दांव पर लौट आये हैं जिसका नाम है नफरत की राजनीति.