ये इस देश को हुआ क्या है! 

बहुत पहले कहीं कोई कहानी पढ़ी थी जिसमें अंत तक पहुँचते-पहुँचते नायक कहता है कि मुझे अपने जीवन में कोई एक घटना ऐसी चाहिए जिसे सुनाऊँ तो लोग उदास न हों. सब भूल गया लेकिन यह पंक्ति टंकी रही गई. एक ऐसे समय में इस पंक्ति का याद आना त्रासद है जब हैदराबाद से लेकर रांची और अब उन्नाव तक से बलात्कार, हत्या और नृशंसता की ख़बरें ही नहीं आ रहीं, बल्कि उन पर टिप्पणियों के माध्यम से जो कुछ सोशल मीडिया से लेकर कथित मेनस्ट्रीम मीडिया में लिखा-परोसा जा रहा है वह इतना घिनौना है कि दुखी करता है, क्रोध भरता है और फिर गहरे अवसाद में डालता है. 

मसलन सबसे तेज़ भागता चैनल रुकता है जब ग़लती से रिमोट की तो वहाँ निर्लज्जता की सारी सीमाएँ तोड़ते हुए बताया जा रहा है कि ‘क्या हुआ था उस रात!’ मेरा अहिंसक मन एक ज़ोरदार थप्पड़ मारते हुए कहना चाहता है – बस करो कमबख्तों. वहाँ कोई रोमांचक घटना नहीं मनुष्यता की बेरहम हत्या हुई थी. हैवानियत ने इंसानियत का गला घोंट दिया था. या ट्विटर पर अंगुलियाँ फिराते फिर जब एक कथित फिल्मकार कहता हुआ दिखता है कि ‘रेप को क़ानूनी बना देना चाहिए ताकि हत्याएँ न हों’ तो लगता है क्यों नहीं इस नीच को किसी ऐसे क़ैदखाने में डाल देना चाहिए जहाँ कोई गे रेपिस्ट रहता हो. या फिर फेसबुक पर लड़कियाँ क्या न करें, क्या करें का भाषण सुनता हूँ तो सिगरेट को आखिरी कश तक खींच कर कहने का मन होता है कि ‘बस करो यह भाषण प्लीज़. इन भाषणों ने लड़कों को हैवान बना दिया है. जिनके कमर में कट्टे खुंसे होते हैं उनकी भी होती है हत्या. चार लोग घेर लें तो रिवाल्वर भी काम नहीं आती स्प्रे वगैरह तो चीज़ ही क्या हैं. और ये जो पुलिस-कचहरी-सुरक्षा वगैरह-वगैरह-वगैरह बनाई गई है वह क्या केवल कश्मीरियों को क़ैद करने या नेताओं के पीछे क़दमताल करने के लिए है? जिस देश में पुलिस क्वार्टर्स और पुलिस चौकी तक में रेप होते हों वहाँ लड़कियाँ किसे करें फोन किसकी ले शरण? कितनी लडकियाँ सीख सकती हैं मार्शल आर्ट? ग़रीब और विकलांग हैं कहीं तुम्हारी चिंता में या अब मिडल क्लास ही भारत है? और जहाँ ज़िन्दगी इतनी मंहगी हो गई हो वहाँ कैसे न निकलें घर से? लिखवा दो सडकों पर केवल मर्दों के लिए या उनके लिए अलग सड़कें बनवा दो. पर प्लीज़ शट योर सागी माउथ. अब बलात्कारियों के धर्म और जाति में उलझने वालों को देने के लिए गैर स्त्री-विरोधी गालियाँ अभी तक आविष्कृत नहीं हुईं तो उन दरिंदों पर क्या कहें. 

गुस्सा तब भी आता है जब एक आदरणीय मंत्री महोदया कहती हैं कि प्याज के मंहगे हो जाने से उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि वह प्याज नहीं खातीं. लेकिन सूत्र मिलता है समझने के लिए. साहबों के बच्चे दरिंदों के शिकार नहीं होते इसलिए उन्हें बलात्कार से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. साहब ट्रेनों के सस्ते दर्जों में नहीं चलते इसलिए उन्हें कैसे फ़र्क़ पड़े इस बात से कि दम घुटने से मर गए कई लोग जनरल बोगी में. साहबों के बच्चे क्लर्की का फॉर्म नहीं भरते तो क्या फ़र्क़ पड़ता है रिजल्ट निकले न निकले. साहबों की पत्नियाँ रात में निकलती हैं तो बड़ी गाड़ियों में ड्राइवरों के साथ तो क्या फ़र्क़ पड़ता है कि पतली गलियों से गुज़रने वाली लड़कियों के साथ क्या होता है. साहबों के घर के लोग मिलों में काम नहीं करते तो मज़दूर जिए या मरे क्या फ़र्क़ पड़ता है, हाँ मिलों के मालिक साहबों के घरवालों जैसे हैं तो उनके पेट में मरोड़ भी उठे तो सत्ताएं हिल जाती हैं, बहुत-बहुत फ़र्क़ पड़ता है. साहबों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते तो क्या फ़र्क़ पड़ता है कि पानी में दूध मिले या दाल में चूहा मरे! और अब तो साहबों के बच्चे सरकारी यूनिवर्सिटीज में भी नहीं पढ़ते तो क्या फ़र्क़ पड़ता है कि जे एन यू या आई आई एम सी या कहीं और की फीस बढ़े या दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों को ठेका मज़दूरों में तब्दील कर दिया जाए. गुजरात में निकल लें हज़ारो छात्र सड़क पर साहबों का मीडिया ट्रंप परिवार के बेडरूम से फुर्सत पायेगा तो पाकिस्तान चला जाएगा, इसलिए किसी को क्या फ़र्क़ पड़ता है! 

केदार जी ने लिखा था कई बरस पहले 

जहाँ लिखा है तुमने प्यार
वहाँ लिख दो
सड़क
फ़र्क़ नहीं पड़ता
मेरे युग का मुहावरा है
फ़र्क़ नहीं पड़ता   

अब जहाँ प्यार लिखा है वहाँ बलात्कार लिखने को कहा जा रहा तो लिखते रहिये आप किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. 

और जाने कौन सा नशा है कि फ़र्क़ उन पर भी नहीं पड़ता जिनके बच्चे इन या इन जैसी यूनिवर्सिटीज में पढ़ते हैं या बिना प्याज जिनकी दाल में छौंक नहीं लगती या जिनके घर के लड़के नौकरियों की रेस में कहीं थककर ज़हर खा लेते हैं या जिनके घरों की लड़कियों को निकलना होता है अकेले सड़कों पर सार्वजनिक वाहनों या अपनी स्कूटियों के भरोसे. पड़ोसी की एक आँख के बदले अपनी दोनों आँखे दे बैठे इन लोगों को भक्त कहने का जी नहीं करता. भक्ति इस क़दर अंधी नहीं होती. तुलसी से बड़ा भक्त कौन होगा लेकिन वह भी अपने भगवान पर शर्त लगाने की हिम्मत करते थे. यह कोई और प्रजाति है. घोर परपीड़क. जाने कैसा देश बनाया हमने कि संविधान में प्रगतिशील धाराएं जुडती रहीं, स्कूलों में ‘परहित सरिस धरम नहीं भाई’ पढ़ाया जाता रहा और एक ऐसी नस्ल देश की आबादी में बढ़ती चली गई जिसके सुख का अर्थ है दूसरे का दुःख. कभी मुसलमान है दूसरा, कभी दलित, कभी ग्राहम स्टेन जैसा ईसाई, कभी महिला ‘अदर’ है कभी कोई कभी कोई. यह मर्दानगी वाली नस्ल है जिसके लिए शक्ति का मतलब दूसरों को कुचलने की क्षमता. जिसके लिए नैतिकता एक बेमानी शब्द है. जो मर्यादा पुरुषोत्तम की तस्वीर प्रोफाइल पर लगाकर किसी महिला को उसकी मर्यादा भंग करने की धमकी दे सकते हैं. जिन्होंने गालियों को अपनी पहचान बना ली है और सही ग़लत के अंतर को नष्ट कर दिया है. आग उनके घर में न पहुँचे यह असंभव है लेकिन अभी नशा इतना गहरा है कि उन अभागी औरतों की याद आती है जिन्हें अफीम का गहरा नशा देकर पतियों की चिता पर फेंक दिया जाता था. 

मैं नहीं जानता कि मैं क्या लिख रहा हूँ. लेकिन मैं एक भयानक दुःख से गुज़र रहा हूँ जो गुस्से से अवसाद तक की यात्रा कर चुका है. जब यह लिखना ख़त्म करके मोबाइल उठाऊंगा तो शायद हैवानियत की कोई और ख़बर आए. भयावह है कि मैं इसके लिए तैयार हूँ. अक्टूबर में कश्मीर में एक दोस्त से पूछा था कि गुस्सा नहीं आता? उसने कहा आदत पड़ती जा रही है. भयावह है कि मुझे भी इन ख़बरों की आदत पड़ती जा रही है और मेरा दुःख एक इमोजी तक सिमटता जा रहा है.

 

अशोक कुमार पांडेय 

(लेखक कवि और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। हाल ही में कश्मीर पर लिखी उनकी किताब कश्मीरनामा:इतिहास और समकाल ख़ासी चर्चा में रही।)

 

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