दिल्ली के संपादकों से उन मंदिरों के नाम पूछ कर देखिए जहां राहुल गांधी गए थे। सोमनाथ के बाद दूसरा नाम लेने में वे हांफ जाएंगे। इन्हीं नामों में छुपी है मंदिर दर्शन की असली राजनीति…
अभिषेक श्रीवास्तव / गुजरात से लौटकर
चुनाव परिणाम की शाम बचपन के एक मित्र से फोन पर बात हुई। बीते दस दिन में उनसे कई बार बात हो चुकी है। बनारस में रहते हैं। कारोबार करते हैं। सूरत-राजकोट से खासी कारोबारी लेन-देन है उनकी। व्यापारियों की नब्ज़ समझते हैं। पहले क्या बात हुई रही, वो जाने दें। आज शाम बता रहे थे कि उनका एक कारिंदा इस बात से दुखी था कि अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी ने अपनी मां का पैर क्यों नहीं छुआ। बात निकली तो यहां तक जा पहुंची कि राहुल गांधी को अध्यक्ष बनने के तुरंत बाद कायदे से काशी विश्वनाथ जाकर दर्शन कर आना चाहिए था। लोगों में बड़ा मैसेज जाता। इस बात में कुछ दम हो या नहीं, लेकिन तकनीकी रूप से इसमें कोई खामी नहीं दिखती। जहां 22 मंदिर, वहां एक और सही। क्या फ़र्क पड़ता है।
परसों रात जब मैं गुजरात से लौटा तो दिल्ली के कुछ मित्रों से बात हुई। चूंकि मैं गुजरात में था, तो सहज ही लोग मानकर चल रहे थे कि मैं चुनावी रिपोर्टिंग के लिए गया था। बेशक, एक स्पॉट रिपोर्ट मैंने राहुल गांधी की वड़गांव रैली से लिखी भी थी, लेकिन मीडियाविजिल के लिए एक शब्द भी गुजरात चुनाव पर नहीं लिखा। उसकी वजह यही थी कि गुजरात यात्रा मेरी कुछ दूसरे निजी कारणों से थी। हां, टाइमिंग चुनी हुई थी। इसीलिए मित्रों ने जब पूछा कि क्या रहने वाला है, तो मोटे तौर पर मैंने यही कहा कि बीजेपी बहुमत से सरकार बना लेगी। कुछ मित्र इस बात में विशेष दिलचस्पी रखते थे कि आखिर राहुल गांधी की मंदिर यात्राओं से उन्हें क्या हासिल होगा। तकरीबन सभी की एक राय थी कि मोदी के तरीकों से मोदी को नहीं हराया जा सकता। हिंदुत्व को सॉफ्ट हिंदुत्व से मात नहीं दी जा सकती। क्या मंदिर जाना सॉफ्ट हिंदुत्व है? क्या मंदिर जाने का या जनेऊ का प्रदर्शन करना सॉफ्ट हिंदुत्व है?
आज मोहन भागवत कहीं कह रहे थे कि भारत में पैदा हुआ हर व्यक्ति हिंदू है। राहुल गांधी भी इस लिहाज से हिंदू ही हुए। फिर उनका मंदिर जाना या जनेऊ पहनना कोई विशिष्ट मायने तो रखता नहीं। मसला इन चीज़ों के सार्वजनिक प्रदर्शन या राजनीतिक इस्तेमाल का है। कह सकते हैं कि चुनाव के ऐन बीचोबीच राहुल गांधी ने मंदिर आदि का राजनीतिक इस्तेमाल किया। भारत जैसे देश में, जहां धर्म का इस्तेमाल राजनीति में पर्याप्त स्वीकार्य है और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी की प्रत्यक्ष देन है, राहुल गांधी उसके आगे पासंग भर नहीं हैं। इसलिए बेशक लग सकता है कि भाजपा के मैदान में भाजपा के तरीकों से उसे नहीं हराया जा सकता। मेरे बचपन के मित्र हालांकि इससे इत्तेफ़ाक नहीं रखते, जो कि भाजपा के पुराने समर्थक हैं।
जिस देश की भौगोलिकता तीर्थस्थलों के पड़ावों से तय होती हो, जिस देश में पर्यटन या देशाटन का प्राचीन पर्याय तीर्थयात्रा हो, जहां की चौहद्दी ही भगवानों से पहचानी जाती हो, वहां ऐसे कृत्यों पर विवाद का कोई मतलब नहीं बनता जब तक वह समाज को बांटने के उद्देश्य से न किए गए हों। राहुल गांधी के मामले में तो यह बिलकुल जायज कृत्य होना चाहिए क्योंकि समाज को बांटने वाली राजनीतिक सत्ता और ताकत को रोकने के लिए वे ऐसा कर रहे थे। जब तक सदिच्छा से भरा भक्त आराधना नहीं करेगा, तब तक भगवान बुरी मंशा वाले भक्तों के चक्कर में भ्रमित होता रहेगा। ईश्वर को भ्रमित होने से बचाने के लिए ज़रूरी है कि भले लोग उसके पास पहुंचें। ईश्वर को भी पता चले कि भक्ति केवल अभ्यास या मेहनत का काम नहीं है जिसका पुरस्कार भक्त को इतने के ही आधार पर मिल जाना चाहिए, बल्कि भक्ति बुनियादी रूप से नैतिकता का भी मसला है। नैतिक और अनैतिक भक्त का फ़र्क ईश्वर तभी कर पाएगा जब दोनों उसके समक्ष उपस्थित होंगे।
क्या आपने इस बात पर ध्यान दिया कि राहुल गांधी के मंदिर जाने से सबसे ज्यादा दर्द किसके पेट में उमड़ा था? उस शख्स के, जो खुद एक मठ का महंत होते हुए एक सेकुलर राष्ट्र के सूबे का मुख्यमंत्री है- योगी आदित्यनाथ। चुनाव प्रचार के दौरान यूपी के मुख्यमंत्री योगी जब कच्छ के स्वामिनारायण मंदिर पहुंचे, तो वहां उन्होने प्रेस के सामने राहुल के मंदिर दर्शन को ‘पाखण्ड’ करार दिया और कहा कि यह समाज में धार्मिक विभाजन को पैदा करने वाला काम है। अगर चुनाव के दौरान मंदिर जाना ‘पाखण्ड’ है, तो एक मठ का महंत बने रहते हुए मुख्यमंत्री बन जाने के पाखण्ड के लिए कौन सा वृहत्तर शब्द खोजा जाए? ऐसे किसी शब्द पर ऊर्जा ज़़ाया करने के बजाय ज्यादा ज़रूरी योगी के दर्द के स्रोत को जानना होगा। उससे शायद कुछ प्रकाश आवे…।
दरअसल, योगी नाथ परंपरा के मठ के महंत हैं। यह अपने मूल में शैव परंपरा है। राहुल ने क्या कहा था, याद करिए। उन्होंने खुद को शिव का भक्त बताया था। हिंदू धर्म के भीतर शैव परंपरा को जानने-समझने वाला कोई भी व्यक्ति इस बात को बेहतर जानता है कि इस परंपरा के मूल तत्व ही विशुद्ध भारतीय सेकुलरिज्म का आधार हैं। न सिर्फ संप्रदायवाद, बल्कि पुरुषवाद को भी शैव परंपरा अपने भीतर से चुनौती देती है क्योंकि शिव अर्धनारीश्वर हैं। यहां पुरुष वर्चस्ववादी सामंतवाद के लिए कोई स्पेस नहीं। योगी ने अपने पूर्वज महंतों अवैद्यनाथ व दिग्विजयनाथ के पदचिह्नों पर चलते हुए नाथ परंपरा की गुरु गोरखनाथ पीठ का धर्मोन्माद और सामाजिक बंटवारे के लिए जैसा कुख्यात राजनीतिक इस्तेमाल किया है, वह देश में शैव परंपरा के पीठों के लिहाज से जघन्य रूप से अधार्मिक कृत्य है। इसीलिए योगी या उनके जैसों को सच्चे शैवों से डर लगता है। यह तो हुई दार्शनिक बात। अब योगी के डर का राजनीतिक आयाम भी देख लें।
गुजरात के रापर जिले में कच्छ के रण के बीचोबीच शैव परंपरा से ही निकली एकल माता का एक धाम है। एकल माता को आप इधर की मां काली का एक स्थानीय संस्करण मान सकते हैं। इनके बारे में बहुत कुछ ज्ञात नहीं है, सिवाय इसके कि स्थानीय गांवों खराई और भरंडियारा आदि में कुछ लोगों के लिए ये कुलदेवी हैं। रापर से धौलावीरा की ओर जाते हुए जो आखिरी बसावट मिलती है, वहां एक रेस्त्रां है जिसका नाम एकल माता रेस्त्रां है। हमने उसके मालिक से पूछा कि एकल माता कौन हैं। वे नहीं जानते थे। हमने पूछा कि क्या वे वहां गए हैं। उन्होंने ना में जवाब दिया। उस इलाके में सौ किलोमीटर के दायरे में लोग एकल माता के धाम से अपरिचित हैं। इस अपरिचित धाम के जो महंत हैं, वे खुद को योगी आदित्यनाथ का गुरुभाई बताते हैं। नाम है महंत देवनाथ। अमदाबाद मिरर में चुनाव से पहले कच्छ की वरिष्ठ पत्रकार कुलसूम यूसुफ़ ने एक स्टोरी की थी देवनाथ पर, जिसके चलते मैं वहां जाने को प्रेरित हुआ। हम जब एकल धाम पहुंचे, तो नमक के सपाट मैदानों के बीच सांय-सांय करती हवा में सूना सा वह रंगीन मंदिर किसी भयावहता का आभास दे रहा था। एक आदमी आसपास नहीं। न महंत, न भक्त। महंत के कमरे में ताला लगा था। हां, एक बुझा हुआ दीपक ज़रूर रखा था जो इस बात का पता देता था कि वहां कुछ दिन पहले पूजा हुई है।
महंत देवनाथ 12 साल से भारतीय जनता पार्टी का कच्छ में काम देख रहे हैं। काम का मतलब है धर्म प्रचार, आदि। अपने गुरुभाई यानी योगी आदित्यनाथ के मुख्यमत्री बनने के बाद देवनाथ की महत्वाकांक्षा ज़ोर मारने लगी। उन्होंने रापर से बीजेपी का टिकट लेने के लिए पूरी जान झोंक दी और महीने भर पहले भुज में 300 साधु-संतों के साथ उन्होंने टिकट की मांग पर एक भव्य प्रेस कॉन्फ्रेंस कर डाली। ऐसे लोगों को राष्ट्रीय मीडिया ‘फ्रिंज’ यानी हाशिये का भी नहीं मानता, सो खबर आई और गई। उसके बाद से देवनाथ का अता-पता नहीं है। मैंने फोन पर बात करने की कोशिश की लेकिन फोन नहीं उठा। कुलसूम खुद एकल धाम कभी नहीं गई हैं, लेकिन बताती हैं कि एकल धाम की आड़ में कुछ और कारोबार होते हैं। ”मामला बहुत शेडी हैं”, वे ऐसा कहती हैं। कुछ पहले कच्छ से एक महंत पकड़ा गया था। वह किसी छोटे से धाम की आड़ में नशीले पदार्थों की तस्करी करता था। ऐसा हमें स्थानीय लोगों से बात करने पर पता चलता है, हालांकि सदियों पुराने एकल धाम के अचानक बने महंत देवनाथ के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं है।
अब आप इस बात पर ध्यान दें कि राहुल गांधी ने जिन 22 मंदिरों का दौरा किया वे कौन-कौन से थे। अधिसंख्य शैव परंपरा के मंदिर थे या फिर वे इष्टदेव, जो भारत में मिश्रित संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। मसलन, एक है रणछोड़जी का मंदिर। सोमनाथ वाले विवाद के कारण बाकी मंदिरों का लेखा-जोखा सामने नहीं आ सका, वरना आपको पता लगता कि वीर मेघमाया मंदिर, बहुचारजी मंदिर, खोडि़यार मंदिर, शामलाजी मंदिर, कबीर मंदिर आदि ऐसी अलोकप्रिय जगहें हैं जिनका आम तौर से तीर्थस्थलों के रूप में जि़क्र नहीं होता है। वीर मेघमाया मंदिर मेघवाल समाज का शक्तिपीठ है। मशहूर फिल्म भवनी भवाई में इसका जिक्र आपको मिलेगा। बहुचारजी मंदिर हिंजड़ों का शक्तिपीठ है। गुजरात में देवी के तीन शक्तिपीठ हैं जिनमें एक बहुचारजी माता भी हैं। बहुचारजी माता पुरुष वर्चस्ववाद के विरोध का प्रतीक है। नरेंद्र मोदी यहां नहीं आते। वे अंबा माता के पीठ जाते हैं। इसी तरह शामलाजी मंदिर विष्णु या कृष्ण के अवतार का प्रतीक है जो वैष्णवों में उतना लोकप्रिय नहीं क्योंकि अतीत में इस पर जैनों ने अपना दावा ठोंका था। खोडि़यार माता मगरमच्छ की सवारी करने वाली शक्ति की देवी हैं। इनकी एक तस्वीर हमें एकल माता के धाम में मंदिर की दीवार पर मिली थी।
ये जो छोटी-छोटी माताएं या अवतार हैं, हिंदुत्व के लिए खतरनाक हैं। हिंदुत्व सारे धार्मिक मामले को राम (या ज्यादा से ज्यादा कृष्ण तक, वह भी पुरानी बात हो गई) तक सीमित कर देने की ख्वाहिश रखता है। राम हिंदुत्व का राजनीतिक वाहन है। राम मंदिर हिंदुत्व का राजनीतिक प्रोजेक्ट। हिंदू धर्म ऐसा नहीं है। यहां गांव-गांव में अलग कुलदेवी है। अलग-अलग इष्टदेवता हैं। एक ही देवी के कई संस्करण हैं। मसलन, महंत देवनाथ के जिस एकल धाम की बात हमने की, वहां मंदिर के भीतर एक देवी मगरमच्छ पर बैठी मिली (खोडि़यार माता) तो एक और देवीं ऊंट पर चढ़ी मिली। एक ऐसी तस्वीर थी जिसमें शेर पर जुड़वां माताएं बैठी हुई थीं। खुद एकल देवी की प्रतिमा के बगल में एक और देवी की प्रतिमा थी। इनके बारे में तकनीकी जानकारी रखने वाले लोग भले कम होते जा रहे हों, लेकिन गांव-गिरावं में आस्थाएं अब भी इन्हीं के हिसाब से चलती हैं। गांव का आदमी राम के अलावा भी तमाम भगवानों को पूजता है। उसके लिए उसका लोकल देवता ज्यादा अहम है।
इसीलिए जब राहुल गांधी जब ऐसे किसी अलोकप्रिय लेकिन मिश्रित संस्कृति वाले स्थानीय भगवानों के यहां जाते हैं, तो योगी की निगाह में ‘पाखंडी’ हो जाते हैं और मीडिया की निगाह में यह काम ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ बन जाता है। जबकि अपने मूल में ऐसे मंदिरों का दर्शन और उन्हें सार्वजनिक दायरे में प्रकाशित करने का काम हिंदुत्व की सबसे जबर काट साबित हो सकता है। यह ऐसे ही नहीं है कि गुजरात के गांवों में कांग्रेस को ज्यादा वोट आए हैं और शहरों में कम। इसकी एक ठोस ऐतिहासिक वजह है। एक सौ पचीस साल पुरानी कांग्रेस आज भी सबसे बड़ी जिंदा हिंदू पार्टी है। वह जिस हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करती थी, वह धर्म और उसके देवता लोगों को आपस में जोड़ते थे। बांटते नहीं थे। कांगेस तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं की पार्टी थी। भाजपा एक भगवान की पार्टी है। यह संयोग नहीं है बल्कि दोनों दलों की राजनीतिक विचारधारा का अक्स है।
कुछ लोगों ने मीडिया में राहुल गांधी को नेक सलाह दी थी कि वे बेशक मंदिर जाएं तो जाएं, थोड़ा मज़ार और गिरजा भी हो आवें। अव्वल तो ये मीडियावाले नहीं जानते कि राहुल गांधी कहां और क्यों जा रहे हैं। आप दिल्ली के किसी संपादक से पूछकर देखिए कि सोमनाथ के अलावा बाकी 21 मंदिरों के नाम बताओ जहां वे गए थे। वह तुरंत हांफने लगेगा। उस पर से हेकड़ी ये कि वे राहुल गांधी को धर्मनिरपेक्ष होने की सलाह दे रहे हैं। अभी राहुल केवल मंदिरों में गए हैं तो इतना हड़कंप है। वे मस्जिदों/दरगाहों में जाने लगे तो हिंदुत्व का क्या हाल होगा, बस एक छोटी सी कहानी सुनकर आप समझ जाएंगे।
कहानी वहीं से है जहां मैं घूम रहा था। गुजरात का कच्छ। कच्छ में एक उजड़ा हुआ शहर है लखपत। इसकी कहानी कभी और सही। लखपत के भीतर एक दरगाह है। दरगाह है औलिया अल्लाह हज़रत पीर सैयद शाह अबू तुराब कादरी की। यह सूफी सम्मत में कादरी सिलसिले की एक मशहूर दरगाह है जहां दूर-दूर से लोग दर्शन करने आते हैं। कथा कुछ यों है कि पीर जब जिंदा थे, तो उस वक्त लुटेरों का इलाके में बड़ा खौफ़ था। यह बात कोई दो-ढाई सौ साल पहले की रही होगी। और पुरानी भी हो सकती है। कहीं लिखित दर्ज नहीं है। केवल जुबानी चली आ रही है। एक बार एक हिंदू औरत पीर के पास अपनी व्यथा लेकर पहुंची। उसकी गाय लुटेरे खोल ले गए थे। पीर उसकी गाय खोजने निेकले और लुटेरों से मुठभेड़ हो गई। गाय के लिए उन्होंने लुटेरों से जंग लड़ी। लुटेरों ने उनका सिर कलम कर दिया।
यह कहानी सुनाते हुए दरगाह के सेवादार उस्मान भाई की आंखें भर आती हैं। वे कहते हैं, ”आज जाने इस देश में क्या-क्या हो रहा है… जबकि यहीं हमारे औलिया एक हिंदू औरत की गाय के लिए शहीद हो गए थे।” सोचिए, राहुल गांधी अगर मज़ार/दरगाह/खंडहर में विचरने लगे और ऐसी कहानियां लाकर सबको सुनाने लगे, तो हिंदुत्व के प्रोजेक्ट का क्या हश्र होगा?
जो लोग राहुल गांधी के मंदिर जाने को हलके में ले रहे हैं, उन्हें धर्म की राजनीति का सिक्का पलट कर देखना चाहिए। हर सिक्का ‘शोले’ के जय का नहीं होता कि दोनों तरफ एक ही खुदाई हो। धर्म की राजनीति और धर्म के बीच एक झीना सा परदा होता है। परदा देखना है तो सिक्का उछालना होगा। राहुल गांधी ने गुजरात में और कुछ नहीं किया है, बस हिंदुत्व का सिक्का उछाल दिया है और इतने से ही छप्पन इंच का बहुमत निन्यानबे पर जाकर अटक गया है। डेढ़ साल बाद यह सिक्का किस करवट बैठेगा, यही देखने वाली बात है।