हमारे शहर में कुछ दिनों पहले व्याख्यान देने एक विद्वान आये, तो उन्होंने इसकी पहली पंक्ति की एक अजीब ही व्याख्या कर डाली ! कहा कि हमारा देश “सारे जहाँ से अच्छा” कैसे हो सकता है, दुनिया में और भी देश हैं, जो अच्छे हैं और कुछ तो हमसे ज़्यादा अच्छे हैं। फिर भी ऐसा भेदभाव और मिथ्या देशाभिमान न करते हुए हमें कहना चाहिए कि ‘सारे देश, यानी सारा जहाँ अच्छा है, महज़ हमारा मुल्क नहीं !’ और उन्होंने कहा कि यह बात विनोबा भावे ने कही थी। विडम्बना यह है कि वह ‘साझा विरासत’ विषय पर बोल रहे थे !
मैंने पूरी विनयशीलता से एतराज़ किया कि चाहे विनोबा भावे सरीखे सम्माननीय संत ने कहा हो, पर यह बयान कविता के कुपाठ का अद्भुत उदाहरण है। कविता कई बार वस्तु-सत्य से ज़रा अलग हटकर या ऊपर उठकर हृदय अथवा भाव के सत्य की अभिव्यक्ति करती है। क़तई ज़रूरी नहीं कि यह भाव-सत्य, वस्तु-सत्य की सुसंगति में हो या उससे प्रमाण की अपेक्षा रखता हो ! इस मानी में उसका रथ, जैसा कि कहते हैं, सत्यवादी युधिष्ठिर के रथ की मानिंद पृथ्वी से ज़रा ऊपर उठकर चलता है। मिथक है कि महाभारत युद्ध के दरमियान जब मजबूरन उन्हें अर्द्धसत्य बोलना पड़ा, तो उनका यह सम्मान छिन गया, यानी धर्मराज का रथ एकदम पृथ्वी पर आ गया ! संभव है कि विनोबा भावे ने छद्म राष्ट्रवाद के ख़तरे से आगाह करने के लिए ऐसी व्याख्या की हो, लेकिन तब भी इस उत्कृष्ट काव्य-पंक्ति का आखेट करना कितना मुनासिब था या कि है? इसी तरह कुछ लोग आज़ादी की आधी रात दिये गये नेहरू के मशहूर भाषण में मीनमेख निकालते हुए कहते हैं कि उस वक़्त तो दुनिया के बहुत सारे देशों में सूरज चमक रहा था, फिर उन्होंने यह क्यों कहा कि ‘जब सारा विश्व सोता है, भारत जाग रहा है!’ कहने की ज़रूरत नहीं कि यह भी काव्यत्व की नासमझी की ही एक हास्यास्पद नज़ीर है।
ग़ौरतलब है कि राष्ट्रीय गीत के लिए चुनी गयी रचना के भी उस हिस्से को नहीं गाया जाता, जिसमें व्यक्ति या समाज के किसी अभाव और दुख का इज़हार हो ; क्योंकि उससे एक तो राष्ट्र-गौरव कुछ कम होता जान पड़ता है और दूसरे, अवाम या रचनाकार के रूप में किसी ख़ास इंसान की तकलीफ़ की ओर ध्यान बँटता है। राष्ट्रवाद की यही विडम्बना है कि उसके जोश के बीचोबीच व्यक्तियों की व्यथा की बात करना गोया एक गुनाह है ! आजकल के JINGOISM या अंधराष्ट्रवाद के दौर में तो और भी, जब आप कथित देशभक्ति के आडम्बर के बरअक्स दलितों-अल्पसंख्यकों-स्त्रियों-किसानों-मज़दूरों-छात्रों- बेरोज़गारों की वंचना और उत्पीड़न के सवाल उठाते ही राजसत्ता और उसकी समर्थक शक्ति-संरचनाओं द्वारा शक की निगाह से देखे जाते हों !
राष्ट्र कोई भौगोलिक इकाई भर नहीं, बल्कि असंख्य जीते-जागते, हाड़-मांस के इंसानों के समुच्चय का नाम है। इस लिहाज़ से वह राष्ट्रीय गीत भी अधूरा है, जो राष्ट्र के साधारण नागरिकों की तकलीफ़ से बेगाना हो। सौभाग्य से, डॉ. इक़बाल के ‘तराना-ए-हिंदी’ में यह कमी नहीं है और वह व्यक्ति एवं समाज की विडम्बना से मुख़ातब है, जिससे देशभक्ति के आवेश में नज़र मिलाने से हम कतराते हैं। इसका आख़िरी शे’र या मक़ता है : ” ‘इक़बाल’ कोई महरम अपना नहीं जहाँ में मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ हमारा।”
महरम-जानने/समझनेवाला, मर्मज्ञ ।
दर्द-ए-निहाँ– छिपा हुआ दुख।
लेखक हिंदी के प्रसिद्ध युवा कवि और आलोचक हैं।