फूलपुर उपचुनाव: सावधान! यह जाति समीकरणों की जीत है, हिंदुत्व की हार नहीं

अनिल यादव 

इलाहाबाद सिविल लाइंस में कुर्मी जाति के भाजपाई बड़े उत्साह से जाति समीकरण समझा रहे थे बल्कि एक तरह का व्याख्यान दे रहे थे. चूँकि वे खुद कुर्मी हैं तो बात कुर्मी जाति से शुरू किये थे. सपा के उम्मीदवार से उन्होंने बात शुरू की थी- नागेन्द्र प्रताप असली कुर्मी नही हैं. बारह गैयाँ हैं. पहले यह लोग घोड़े पालते थे और राजाओं की चाकरी करते थे. यह बात सबको पता है. पूरा समाज जनता है. कुर्मी तो बिलकुल वोट नहीं देने जा रहा है सपा को. चाहे उत्तम आएँ चाहे नरोत्तम.

चुनाव का समीकरण बूझने की कई शर्तें हैं जिसमें दो बातें लिखकर रखनी चाहिए. पहली यह कि बोलना कम सुनना ज्यादा है. दूसरी अपने जानने-पहचानने वालों से सिर्फ घर-परिवार की बातें करनी चाहिए, राजनीति पर नहीं. पर यह गलती करते सब हैं. लोकसभा फूलपुर का परिणाम बहुत अप्रत्याशित नहीं है. साधारण भिन्न का सवाल था. कोई भी समझ सकता था कि जीत तो सपा के प्रत्याशी की ही होगी अगर कुछ चमत्कार सा नहीं  हुआ. पंडित जवाहरलाल नेहरू, कांशीराम और वीपी सिंह से लेकर केशव प्रसाद मौर्या तक कई राजनीतिक पड़ाव हैं जिन पर ठहरकर चुनावी राजनीति के गतिविज्ञान पर बहुत सारी टिप्पणी की जा सकती है. 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी पहली बार इस सीट पर चुनाव जीती और फूलपुर लोकसभा में अब तक की सबसे बड़ी जीत थी. लेकिन इस उपचुनाव में भाजपा चारों खाने चित्त हो गयी.

कई मार्के की बातें हैं कि भाजपा चाहकर भी हिंदुत्व का कार्ड नहीं खेल पायी. हाँ, शुरू में अतीक को लेकर माहौल बनाया पर बन नहीं पाया. वोटर जान गए थे कि अतीक मैदान से बाहर हैं. कुर्मी बहुल फूलपुर में कुर्मी जाति के राजनीतिक दबदबे का अंदाज़ा इस तरह से लगाया जा सकता है कि नागेन्द्र प्रताप सातवें कुर्मी सांसद होंगे. कुर्मी जाति के लोग उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या के मंसूबे को वक्त रहते आंक लिए थे कि अगर भाजपा उपचुनाव जीत गयी तो अगला मौर्या जाति का होगा. सपा के उम्मीदवार को स्थानीय होने का फायदा मिला.

दूसरी, उपचुनाव में अखिलेश यादव के भाषणों को सुना जाए तो गोरखपुर और फूलपुर दोनों जगह यह जोर देकर वे बोल रहे थे कि वे कौन हैं? क्या वे हिन्दू नहीं हैं? यानि यह कि वह हिन्दू हैं. हाँ, यह ज़रूर है कि दोनों जगह अखिलेश यादव ने अपने पिछडी जाति के होने को भी साफ़-साफ़ बोलते हुए जातिगत संख्याबल के आधार पर भागीदारी की बात की पर हिंदुत्व की राजनीति पर कोई आक्रामक टिप्पणी नहीं की.

तीसरी बात यह कि अतीक के सहारे भाजपा की नाव पार लग सकती थी पर अतीक अहमद अपनी गद्दी जाति के मुसलमानों के अलावा अन्य मुसलामानों का वोट नहीं पा सके और सपा यह प्रचारित करने में सफल हो गयी कि अतीक ‘सरकारी उम्मीदवार’ हैं और उनको केशव प्रसाद मौर्या और केशरीनाथ त्रिपाठी ने खड़ा किया है कि वे मुसलमानों का वोट काट सकें.

चौथी और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह कि फूलपुर लोकसभा सीट के बगल की सीट इलाहाबाद पर 1988 में उपचुनाव हुआ और कांशीराम चुनाव लड़े और चुनाव में एक नोट और एक वोट का नारा दिया. लगभग सत्तर हज़ार रुपये जनता से कांशीराम को मिले और इसी के आसपास वोट भी मिला. इस उपचुनाव में बसपा ने अपने वोटरों की प्रतिबद्धता को साबित कर दिया कि कम से कम चमार जाति का वोटर मजबूती से उसके साथ खड़ा है.


लेखक गिरि इंस्टिट्यूट, लखनऊ में चुनाव शोधार्थी हैं 

First Published on:
Exit mobile version