अभिषेक श्रीवास्तव / डूंगरपुर से लौटकर
कहने को तो डूंगरपुर जिला मुख्यालय से कौड़ीयागुण गांव कोई तीसेक किलोमीटर दूर होगा लेकिन गुजरात की सीमा से पहले पड़ने वाले एक विशाल जंगल और पहाड़-घाटी के कारण वहां पहुंचना थोड़ा दुरूह काम था। दिल्ली से आए अजीत यादव हमारे साथ सुबह जुड़ चुके थे। नारायणद्वय के साथ हम बिछीवाड़ा ब्लॉक की ओर दोपहर के भोजन के बाद निकल लिए। पिछले दिन के मुकाबले हवा थोड़ी हलकी थी फिर भी रह-रह कर बाइक लहरा जा रही थी। कोई बीस किलोमीटर अहमदाबाद हाइवे पर चलने के बाद रास्ता ऊबड़ खाबड़ हो गया। यहां से जंगल शुरू था। एकदम सूखा जंगल। नारायण जी रास्ते भर जंगल की खूबियों के बारे में बताते रहे। शाम होते जंगली पशुओं का बाहर निकलना शुरू हो जाता था। इसलिए हम मानकर चल रहे थे कि छह बजे से पहले हमारी वापसी हो जानी चाहिए। जंगल से गुजरने वाली कोई दस किलोमीटर लंबी पट्टी में एक लंगूर को छोड़ कर कोई और प्राणी नहीं दिखा।
जंगल खत्म होने के बाद ढलान थी और आबादी शुरू हो जाती थी। यहां से कौडीयागुण गांव के पहाड़ की चढ़ाई थी। थोड़ा ऊपर चढ़ते ही उस पार एक विशाल जलराशि के दर्शन हुए। यह कौड़ीयागुण का बांध था। चारों ओर पहाडि़यों से घिरी विशाल घाटी में बना यह बांध बेहद खूबसूरत था। जलाशय का पानी चारों दिशाओं में फैला हुआ था। एक नज़र में ऐसा प्रतीत होता था कि बारिश के मौसम में यह जगह स्वर्ग बन जाती होगी। जलाशय की चौहद्दी पर बनी सड़क के किनारे दो-चार मकान भी थे। आबादी लगभग गायब थी। जलाशय के किनारे रास्ते में पड़ने वाले पहले मकान पर हम रुके। भीतर से एक महिला निकल कर बाहर आईं और उन्होंने हमारा स्वागत किया। ये लक्ष्मीजी थीं। यहां की ग्राम सभा की अध्यक्ष। मानसिंह सिसोदिया ने जिन लोगों से हमें मिलने को कहा था, उनमें ये एक थीं। इनके अलावा एक थे इनके जेठ सूरजमल और दूसरे थे इनके ससुर पुंजाजी। वे दोनों गांव के पूर्व सरपंच थे। वे फिलहाल यहां नहीं थे। कुछ देर यहां हम सुस्ताए। यहां का पानी बहुत साफ और मीठा था। लंबी यात्रा की थकन दूर हुई।
आम तौर से इस इलाके में लोग मानकर चलते हैं कि 15 जून के बाद बारिश कभी भी हो सकती है। इसलिए जून लगते ही आदिवासी खेती की तैयारियों में जुट जाते हैं। कुल मिलाकर यहां दो-तीन महीने की खेती होती है। वही साल भर का आसरा है। इन दिनों गेहूं, मक्का, ग्वार आदि की खेती सभी करते हैं। साल के बाकी दिन मजदूरी से पेट भरते हैं। आज 14 जून था। दूसरे ग्रामीणों की तरह लक्ष्मी भी अपने खेती-किसानी के कामों में मसरूफ़ दिख रही थीं। इसलिए हमने उनका ज्यादा समय नहीं लिया और आगे सूरजमल के घर की ओर निकल लिए जो यहां से तीन किलोमीटर दूर था। पहाड़ का तीन किलोमीटर मतलब मैदान का दस किलोमीटर। चढ़ाई खड़ी थी। बाइक बंद हो जा रही थी। कुछ दूर पैदल चढ़ने के दौरान पूरे इलाके को भरी नज़र से हमने देखा। यह इलाका डूंगरपुर के दूसरे इलाकों की तुलना में पर्याप्त हराभरा और संपन्न दिखता था। गुजरात की सीमा यहां से काफी करीब थी। सूरजमल के यहां हम पहुंचे तो वे लकड़ी चीर रहे थे। जिस पहाड़ के नीचे उनका घर था, वह पहाड़ उन्हीं का था। बगल वाला पहाड़ उनके बेटे का। जब उन्होंने यह बताया तो बात पूरी तरह से समझ में नहीं आई। करीब घंटे भर की बातचीत में सारा मामला खुला।
दरअसल, बांध बनने से पहले सारे गांव घाटी में ही थे। जब बांध में पानी आया तो लोगों को मुआवजा मिला। वे थोड़ा ऊपर चले गए। इससे हालांकि फ़र्क नहीं पड़ा क्योंकि पूरी क्षमता से जलाशय के भरने के बाद इनकी रिहाइशों पर खतरा पैदा हो गया। कभी भी लोगों के घर डूब सकते थे। फिर सैकड़ों आदिवासियों ने वागड़ संगठन के लोगों के साथ मिलकर जिला कलक्टर को ज्ञापन दिया। सूरजमल बताते हैं कि उस वक्त जिला कलक्टर कोई महिला हुआ करती थीं। वे बहुत दयालु थीं। उन्होंने गांव वालों से कहा कि वे पहाड़ पर जाकर बस जाएं और वन विभाग की पाल से बाहर जितनी ज़मीन है, सब आपस में बांट लें। किसी को दस बीघा मिला तो किसी को बीस बीघा। सूरजमल के मुताबिक कुछ लोगों को ज़मीन का पट्टा भी दे दिया गया। बांध को चारों ओर से घेरी पहाडि़यों को लोगों ने आपस में बांट लिया। इस तरह सूरजमल के खाते में एक पहाड़ आ गया और उनके बेटे के पास दूसरा पहाड़।
प्रशासन को जो याचिका दी गई थी उसका मूल तर्क पेसा कानून और वनाधिकार कानून ही था। ज़ाहिर है, जो पहाड़ और ज़मीन मिली, वहां की लकड़ी और लघु वनोत्पाद भी आदिवासियों के हो गए। बस शर्त एक थी कि वे पहाड़ी के ऊपर वन विभाग की ज़मीन का अतिक्रमण न करें। आज तक यह स्थिति कायम है। डूंगरपुर में पेसा कानून और वनाधिकार कानून का यह शुरुआती प्रयोग वागड़ संगठन की मदद से किया गया। नारायण बरंडा यहीं के रहने वाले हैं। वे उस यात्रा के गवाह हैं जो 1998 में कौड़ीयागुण से तलैया तक गई थी। वे बताते हैं कि पेसा कानून 1996 में केंद्र में पारित होने के बाद सबसे पहली जागरूकता इसी क्षेत्र में आई थी। उन्हें इस कानून पर काम करते हुए ढाई दशक हो रहे हैं।
हमन जानना चाहा कि जब पेसा को लेकर उस वक्त इतनी जागरूकता थी तो क्या यहां के लोगों ने बांध का विरोध नहीं किया। कौड़ीयागुण से कुछ दूरी पर स्थित एक मैदानी गांव है रामपुर। पहले रामपुर और कौड़ीयागुण एक ही पंचायत का हिस्सा थे। रामपुर के वयोवृद्ध पूर्व सरपंच खातराजी हैं जो तत्कालीन पंचायत के लगातार 22 साल सरपंच रहे। वे बताते हैं कि बांध की परियोजना उनके कार्यकाल से भी पहले की थी और गांव वालों ने इसका विरोध भी किया था लेकिन किसी ने उनकी सुनी नहीं। उस वक्त तक पांचवीं अनुसूची के क्षेत्र पंचायती राज कानून से बाहर हुआ करते थे। अब वे मानते हैं कि बांध से इलाके को वास्तव में फायदा मिला है। साथ ही वे पेसा कानून की उपलब्धियों का भी बखान करते हैं।
सच्चाई हालांकि उतनी हरीभरी नहीं है जितना यह इलाका दिखता है। पहली शुरुआती दिक्कत तो यह रही कि केंद्रीय पेसा कानून के तहत गांव की जो परिभाषा दी गई थी उसे राजस्थान सरकार के कानून में स्वीकार नहीं किया गया। राजस्थान का कानून फला (घरों के एक समूह से मिलकर बनी रिहाइश) के स्तर पर ग्राम सभा को परिभाषित नहीं करता बल्कि उसके लिए राजस्व गांव होने की शर्त रखता है। फिर लघु वनोत्पादों पर ग्राम सभाओं को राजसान के कानून में सीमित अधिकार दिए गए हैं तथा भूमि अधिग्रहण के मामलों में सरकारी महकमे को ग्राम सभा से रायशुमारी करने की प्रक्रिया में ज्यादा ताकत दी गई है। इन प्रावधानों पर कई आदिवासी संगठनों ने आपत्ति दर्ज करायी थी। राजस्थान में पेसा पर काम करने वाले सबसे पुराने संगठनों में एक आस्था ने राजस्थान उच्च न्यायालय में इन नियमों के खिलाफ एक मुकदमा भी दायर किया था। कई गांवों में हालांकि आस्था और जल जंगल ज़मीन आंदोलन नामक संगठन की मदद से शिलालेख लगा दिए गए और गांव गणराज्य का एलान कर दिया गया। वह प्रक्रिया राजस्थान में कौड़ीयागुण से ही शुरू हुई और तलैया तक पहुंची थी।
समस्या यह भी थी कि जिन गांवों ने खुद का गांव गणराज्य घोषित किया उन्होंने कानून में वर्णित 11 बिंदुओं में से कुल चार या पांच बिंदुओं पर ही अपनी मांगें सीमित रखीं। कुछ साल बीतने के बाद 2002 से आदिवासी संगठनों की चिंता के केंद्र में वनाधिकार कानून आ गया जिससे पेसा पर ज़ोर कम हो गया। नतीजा यह हुआ कि पंचायती राज तंत्र के भीतर आदिवासियों के कम प्रतिनिधित्व के चलते समस्याएं पैदा होने लगीं। इस मायने में कौड़ीयागुण विशिष्ट गांव रहा जहां ग्राम सभा की अध्यक्षता और सरपंची दोनों एक ही परिवार के अख्तियार में रहे और दोनों इकाइयों के बीच संघर्ष न्यूनतम रहा।
पंचायती राज मंत्रालय ने 2 दिसंबर 2013 को पेसा कानून 1996 में संशोधन का एक बिल रायशुमारी के लिए सार्वजनिक किया जिसका नाम था पंचायत (एक्सटेंशन टु शिड्यूल्ड एरियाज़) बिल, 2013 और जिसे सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सिफारिशों के आधार पर तैयार किया गया था। कई महीनों तक सरकार इस बिल पर बैठे रही और 2014 के लोकसभा चुनाव के केवल छह माह पहले इसे प्रतिक्रियाओं के लिए सार्वजनिक किया गया। केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद भी इस पर काम अटका रहा। केंद्र और राज्यों के इस सुस्त रवैये के चलते दो नुकसान हुए हैं।
एक तो पेसा और ग्राम स्वराज पर काम करने वाले ज्यादातर संगठन कानूनी लड़ाई के पेंच मे फंस कर रह गए हैं। दूसरे, इसका असर आदिवासियों के शिक्षण और जागरूकता पर पड़ा है। कौड़ीयागुण का शिलालेख इसका बेहतरीन उदाहरण है जो गांव में कहीं गड़ा नहीं है बल्कि एक पहाड़ी के ऊपर स्थित मंदिर के भीतर उखाड़ कर रखा हुआ है। सूरजमल और नारायण बंधु हमें दिखाने के लिए शिलालेख बाहर ढोकर ले आते हैं और सामने खड़ा कर देते हैं। फोटो खिंचवाने के वक्त वे जिंदाबाद की मुद्रा में मुट्ठी तान कर खड़े हो जाते हैं। उनकी सहजता और ईमानदारी इस विस्थापित शिलालेख के साथ मिलकर एक त्रासद विडंबना रचती है।
हमने पत्थरगड़ी की जड़ों को तो देख लिया था, लेकिन मन में हताशा का जो तालाब लेकर हम शहर लौटे वो कोड़ीयागुण के जलाशय से भी ज्यादा बड़ा था।
(अजीत यादव के साथ)
क्रमशः