NRC को पूंजीवादी दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए

एनआरसी को अभी तक सिर्फ़ कम्युनल और संवैधानिक दृष्टि से ही देखा गया है। एनआरसी पूंजीवादी के कितना काम आ सकता है, किस तरह काम आ सकता है इस पर भी एक नज़र डाल लेना चाहिए। क्योकि पूंजीवादी जब फासीवाद को अपना हथियार बना लेता है तो दमन और क्रूरता के सारे पुराने मापदंड टूट जाते हैं।इसे समझना हो तोलोकल इंटेलिंजेंस यूनिट के हवाले से लिखी गई अमर उजाला की निम्न ख़बर पढ़ लीजिए-

संदिग्ध बांग्लादेशियों को लेकर बड़ा खुलासा, अपनी झोपड़ियों को खुद ही लगा देते हैं आग, ये है वजह

 

झुग्गी-झोपड़ियो में रहने वालों को अपराधी (संदिग्ध बंग्लादेशी) बनाकर जमीनों पर कब्ज़ा करने की साजिश

30 मार्च 2019 को इलाहाबाद के करेली के सुब्बन घाट के किनारे बसे झुग्गी बस्ती को तोड़ दिया गया क्योंकि वहां नगर निगम इलाहबाद की उन गाड़ियों के लिए गैराज बनाना था जो दिव्य और भव्य कुम्भ में खरीदी गई थी। उस स्थान पर 70-80 साल यानि 3-4 पीढ़ियों से रहते आए लोगों के सामने उनके आशियाने पर बुलडोजर चला दिया गया। यहाँ रहने वाले अधिकांश लोग दलित थे और प्लास्टिक के कूड़े बीनने का काम करते रहे हैं।दिल्ली, मुंबई समेत कई नगरों महानगरों में ये पहले भी होता आया है। कई बार झुग्गियों को उजाड़ने पर इसके खिलाफ़ जनांदोलन भी खड़ा हो जाता है और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और समाजसेवियों के दख़ल के बाद पुनर्वास की बाते उठने लगती हैं। लेकिन अब नागरिकता कानून की आंड़ में नए प्रोजेक्ट के लिए जमीन हथियाने के लिए तमाम झुग्गी-झोपड़ियों को उजाड़ना आसान होजाएगा। बस उन्हें अवैध बांग्लादेशी नागरिक घोषित करना भर होगा।

यूपी के लिसाड़ी गेट थानाक्षेत्र में हापुड़ रोड से सटी जाकिर कालोनी, आशियाना कॉलोनी और आसपास के क्षेत्र में करीब 500 से अधिक झुग्गी झोपड़ियां हैं। हापुड़ रोड पर खरखौदा क्षेत्र में भी जमना नगर के आसपास 300 से अधिक झुग्गी झोपड़ियां हैं। झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालेलोग अधिकांशतः कूड़ा व पॉलिथीन एकत्र करने का काम करते हैं।

बता दें कि यूपी में अवैध रूप से बांग्देलाशियों के छिपकर रहने की एलआइयू की सूचना पर तीन माह पहले शासन ने संदिग्ध लोगों के सत्यापन के लिए निर्देश दिए थे। इसके लिए बाकायदा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सितंबर 2019 में सर्कुलर जारी करके यूपी पुलिस को झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों की शिनाख्त करने का आदेश दिया था।इसके बाद एलआईयू और थाना पुलिस की संयुक्त टीम ने सत्यापन का खेल शुरू किया। और खुलासा किया गया कि ये लंबे समय से यहाँ अवैध रूप से रह रहे हैं और इनमें अधिकांश पूर्वोत्तर असम, पश्चिम बंगाल के भी हैं।

खुफिया एजेंसियों के हास्यास्पद घटिया दलीलें

उनका खेल यहीं नहीं रुकता खुफिया विभाग अपनी जांच में ये दावा भी करता है कि जब भी इन झुग्गी झोपड़ियों में रहने वालों का सत्यापन शुरू होता है तो ये लोग साजिश के तहत अपनी झोपड़ियों को ही आग के हवाले कर देते हैं।जिससे यह न पता चल सके कि कितने लोग यहां रह रहे हैं और सभी कहां के हैं। आग लगने के बाद पुलिस भी जांच करने नहीं जाती।

खुफिया विभाग एक आंकड़े देकर बताता है कि 25 मार्च 2018 को हापुड़ रोड पर आग से तकरीबन 300 से ज्यादा झुग्गी झोपड़ी जलकर राख हो गईं थीं। 22 अप्रैल 2018 को हापुड़ रोड पर 100 से ज्यादा झुग्गी झोपड़ी जल गईं थीं।

2017 में जाकिर कालोनी में 200 से ज्यादा झुग्गी झोपड़ियों में आग लगी थी। 2012 में भी हापुड़ रोड और जाकिर कालोनी में 200से ज्यादा झुग्गी झोपड़ी आग की चपेट में आईं थीं,और अपने इन आँकड़ों के आधार पर खुफिया विभाग निषकर्ष देता है कि पुलिस से बचने के लिए अवैध रूप से रह रहे ये संदिग्ध बांग्लादेशी अपने आशियाने को भी फूंकने से गुरेज़ नहीं करते।

गरीबी के आँकड़े बदलने, भारत को पूर्ण पूंजीवादी अर्थव्यवस्था राज्य बनाने में हो सकता है NRC का इस्तेमाल

देश में करीब 27 करोड़ यानि कुल आबादी का 21.92 % लोग गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) जीवन यापन करते हैं। इनमें से शेड्यूल ट्राइब (एसटी) 45.3% और शेड्यूल कास्ट (एससी) 31.5% के लोग इस रेखा के नीचे आते हैं। मौजूदा व्यवस्था में इन 22 प्रतिशत लोगों के प्रति भारत राज्यकी भूमिकाकल्याणकारी और संरक्षणकारी है।

बीपीएल श्रेणी के लोग इतने गरीब हैं कि इनके लिए दो जून का खाना जुटाना मुश्किल होता है, ये नागरिकता के कागज क्या जुटा पाएंगे। यदि इन लोगों की नागरिकता छीनकर इन्हें डिटेंशन कैंप में डाल दिया जाता है तो राज्य की भूमिका बदल जाएगी। वोकल्याणकारी भूमिका त्यागकरविकसित देशों की होड़ मेंशामिल हो जाएगा बल्कि सरकार 22 प्रतिशत आबादी के स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन, आवास आदि पर ख़र्च करने की जिम्मेदारी और जवाबदेहीसे मुक्त हो जाएगी।बाहर ठंड, लू, भूख आदि से मरने वालों से शासन प्रशासन की होने वाली छीछालेदर खत्म हो जाएगी। और मिश्र अर्थव्यवस्था वाली राज्य कल्याणकारी चोला त्यागकर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था वाला चोला पहन लेगा।

विकसित देशों में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या इसीलिए इतनी कमतर होती है क्योंकि वहाँ जेलों में रहने वालों की संख्या ज़्यादा होती है।विकास के सवाल पह हमेशा यूएसए का मॉडल सामने रखा जाता है। जबकि आबादी के अनुपात में अमेरिका में कैदियों की तादाद दुनिया में संभवतः सर्वाधिक है, उसमें भी वहाँ का गरीब मेहनतकश वर्ग विशेष तौर पर अफ्रीकी व हिस्पैनिक मूल वाले दो समुदायों की अधिकता है। इंडिया में भी गरीब मेहनतकश मुस्लिम और दलित, आदिवासी वर्ग ही एनआरसी और डिटेंशन कैम्प के निशाने पर है।

फैक्ट्री मालिकों के लिए मुफ्त गुलाम मजदूर पैदा करने का साधन है ‘एनआरसी’

असम एनआरसी में जगह न बना पाने वालों में 95 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे के सर्वहारा लोग है। ये ऐसे लोग हैं जो पैसे देकर ज़रूरी कागजात का जुगाड़ नहीं कर सके। ये ऐसे लोग हैं जो बॉर्डर पुलिस को घूस नहीं दे सके। ये दिहाड़ी पर काम करनेवाले ऐसे लोग हैं जिनके खिलाफ़ किसी ने भी शिकायत कर दी या फिर बॉर्डर पुलिस और फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल द्वारा टारगेट पूरा करने की कवायद का शिकार होकर ‘अवैध प्रवासी’ या ‘विदेशी’ हो गये। ऐसे लोगों की आर्थिक हैसियत ऐसी नहीं है कि 3 साल डिटेंशन सेंटर में बिताने के बाद वो जमानत के लिए ज़रूरी रुपए जुटा सकें।

देश भर में एनआरसी लागू होने की स्थिति मेंये भलीभांति जान लेना चाहिए कि मजदूर वर्ग अब शोषित मजदूर से गुलाम घुसपैठिए होने जा रहे हैं। दुनिया के दूसरे पूंजीवादी देशों को मॉडल के तौर पर देखें तो वे कथित ‘डिटेंशन कैंम्प’ या ‘हिरासत केंद्र’ नहीं होंगे, बल्कि वे मजदूरों की शक्ल में दासों या गुलामों के ‘सप्लाई सेंटर’ होंगे!

यूरोपीय औऱ अमेरिकी देशों की ही तरह भारत में भी जैसे जैसे आर्थिक संकट गहराता जा रहा है, मजदूरों के शोषण को और तीक्ष्ण करने के लिए एनआरसीऔर सीएए का प्रयोग होने की आशंका को बल मिल रहा है। पूँजीवादी मीडिया द्वारा एनआरसी-सीएए के पक्ष में प्रचार की यह भी एक बडी वजह है। वर्ना और क्या कारण है कि एक ओर तो सरकार सबको बंग्लादेशी घुसपैठिया बताकर नागरिकता छीन रही है वहीं दूसरी और भारत सरकार बांग्लादेश को बार-बार ये आश्वासन भी दे रही है कि ये पूर्णतयः भारत का आंतरिक मामला है और हम किसी भी घुसपैठिए को देश निकाला नहीं देंगे।

अकेले असम में करीब उन्नीस लाख लोगों को ‘डिटेंशन कैम्प’ के कैदी होने की व्यवस्था की गई है।जसमें 7 लाख मुस्लिम और 12 लाख दलित आदिवासी (हिंदू) हैं। एनआरसी में छँटने के बाद हिंदुओं की नागरिकता तय होने की अवधि- कम से कम दस साल लगेंगे। तब तक वो ‘डिटेंशन कैम्प’ में कैद रहेंगे। एनआरसी के जरिए गरीब वर्ग को दास-प्रथा की आग में झोंकने का इंतजाम किया जा रहा है। सीएबी और एनआरसीदरअसल हिंदू-मुस्लिम दोनो धर्मों के गैर-सवर्णों और आदिवासियों की गुलामी का दस्तावेज़ है।

कैदी बनाकर सस्ता श्रम हासिल करने का अमेरिकी मॉडल

सस्ते मजदूरों को शोषण के फंदे में फँसाये रखने के लिए ये तरीका अमेरिका और यूरोप में यह तरीका आजमाया जाता रहा है। जब तक मजदूर ऐसी कोई माँग न करें तब तक पूँजीपति, प्रशासन, मीडिया सब जानकर भी चुप रहते हैं अन्यथा श्रमिकों के सवाल को ‘अवैध अप्रवास’ के अंध-भावनात्मक मुद्दे में तब्दील कर दिया जाता है।नागरिकता छिनने का डर गरीब मजदूरों को बिना सामाजिक सुरक्षा का अधिकार माँगे, बिना संगठित हुए,कम मजदूरी पर काम करने के लिए मजबूर करने का हथियार बनने वाला है। जब कोई मजदूर वाजिब मजदूरी माँगे या यूनियन बनाने का प्रयास करे या समाजिक सुरक्षा का अधिकार माँगे, तो फैक्ट्री या कंपनी मालिक उन्हें पुलिस से साँठ-गाँठ कर ‘अवैध नागरिक’ घोषित करवा सकते हैं।

अमेरिका में अवैध अप्रवासी घोषित करने की धमकी के साथ एक और तरीका प्रयोग में लाया जाता है। वहाँ गरीब मेहनतकश विशेष तौर पर अफ्रीकी व हिस्पैनिक मूल के लोगो को छोटे से छोटे अपराधों में लंबे वक्त के लिए जेल भेजा जा रहा है या जमानत की शर्त इतनी कठिन रखी जाती है कि जमानत ही न करा सकें और लंबे समय तक जेल में ही रहें। यही कारण है कि आबादी के अनुपात में अमेरिका में कैदियों की तादाद दुनिया में संभवतः सर्वाधिक है।अमेरिका की अधिकांश जेलों का संचलाननिजी क्षेत्र के हाथों मेंहै।वो इन कैदियों का इस्तेमाल मुफ्त या नाममात्र की मजदूरी पर कठिन श्रम लेने के लिए करते हैं और सरकार से प्रति कैदी ख़र्च का पैसा भी हासिल करते हैं।

नागरिकता हो हथियार बनाकर बिना डिटेंशन कैम्प में रखे हुए भी सस्ता श्रम हासिल किया जा सकता है। सऊदी अरब समेत दूसरे खाड़ी देश भी अपने यहाँ50-60 साल से रह रहे औरदो तीन पीढियों से काम कर रहे लोगो को नागरिकता नहीं देते। दूसरे धर्म वालों की तो बात ही क्यावो मुसलमानों को भी नागरिकता नहीं देते क्योंकि यह उन्हें शोषण के खिलाफ़ संगठित होने, संघर्ष करने से रोकने का बड़ा और कारगर तरीका है।

श्रमिकों को अवैध घोषित कराने की धमकी देकरश्रम दोहन और डिटेंशन कैम्प में किसी श्रम कानून की सुरक्षा से परे स्वास्थ्य के लिए सबसे ख़तरनाक किस्म का श्रम ये दोनो भारत में भी लागू होने जा रहा है।

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