‘देखिए, सरकार तो एक बार, संवेदनशीलता से काम ले सकती है..लेकिन संपादक नहीं ले सकते..ये जो 53 लोग कोरोना इन्फेक्टेड हैं – इन में से ज़्यादातर, मीडिया संस्थानों के प्रबंधन के मारे हुए हैं। ये न भी चाहते तो इनको फील्ड में काम करना ही पड़ता..मीडियाकर्मी की नौकरी पुलिस जैसी ही हो गई है, काम भी करते रहो..जान भी दांव पर लगाओ और पब्लिक की गाली भी खाओ, संपादक जी प्राइम टाइम में स्टार बन जाएंगे…’
मुंबई के एक टीवी पत्रकार दोस्त ने, मुंबई के 53 मीडियाकर्मियों के कोरोना पॉज़िटिव पाए जाने की ख़बर के बारे में पूछने पर मुझसे ये बात कही। कमोबेश ये ही बात लगभग उन सभी पत्रकार साथियों ने सीधे या अप्रत्यक्ष तौर पर दोहराई कि संस्थानों की उपेक्षा, इन पत्रकारों के कोरोना संक्रमित होने की सबसे बड़ी वजह है। हाल ही मुंबई में में पत्रकारों में कोरोना संक्रमण का शुरुआती मामला, एक अंग्रेज़ी टीवी चैनल के प्रसारण क्रू के संक्रमित होने के बाद सामने आया। लेकिन ये क्रू – किसी फील्ड में तैनात नहीं था, बल्कि एक पांच सितारा होटल में इसे सुरक्षा की दृष्टि से रुकवाया गया था। इन के संक्रमित होने के बाद, बाकी पत्रकारों के मन में भी एक बेचैनी घर कर गई, लेकिन अधिकतर संस्थानों ने इसके बाद भी स्वतः संज्ञान लेते हुए अपने पत्रकारों का कोई टेस्ट नहीं करवाया। अंततः 167 पत्रकारों का कोविड 19 टेस्ट, बीएमसी ने टीवी जर्नलिस्ट एसोसिएशन, मुंबई प्रेस क्लब और मराठी पत्रकार संघ की अपील पर करवाया और उसमें से 53 पत्रकार कोरोना वायरस पॉज़िटिव पाए गए।
मुंबई के ही एक और टीवी पत्रकार साथी, साफ कहते हैं कि वे अपने नाम के साथ कोई बात नहीं कहना चाहते और फिर वो बताते हैं, ‘संस्थान किसी को कोई प्रोटेक्शन किट नहीं देता। हम में से जिनके पास अच्छी प्रोटेक्शन किट है, वो अपनी खरीदी हुई है। जिनको ज़्यादा बचाव की जानकारी है, वो अपने स्तर पर जुटाई गई है। जिनको ये सुविधा है कि बिना फील्ड में जाए काम करें, ऐसे कम ही संस्थान हैं। आदत भी है कि ख़बर निकालनी है और डर भी कि नौकरी भी जा सकती है।’
‘कोरोना पॉज़िटिव पाए गए, ज़्यादातर पत्रकारों को आप देखेंगे, तो वे हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं के पत्रकार हैं। अंग्रेज़ी चैनल्स का क्रू तो फिर भी अधिक सुविधाओं और जानकारी से लैस है पर हिंदी समेत बाकी भारतीय भाषाओं के पत्रकारों का हाल बुरा है।’
ये बात सुनने में क्लासिस्ट लग सकती है, लेकिन ये एक सच भी है। तमाम जगह, एक ही संस्थान में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं की टीम के साथ सौतेले बर्ताव के किस्से आम रहे हैं। सबसे अहम बात, हमको मिले आंकड़ों के मुताबिक संक्रमित पत्रकारों में ज़्यादातर भारतीय भाषाओं के पत्रकार ही हैं। लेकिन इनमें भी सबसे ज़्यादा मार पड़ी है, फोटो जर्नलिस्ट्स और वीडियो जर्नलिस्ट्स पर। एक अख़बार के वरिष्ठ संवाददाता से मिली जानकारी के मुताबिक 53 में 17-18 संक्रमित पत्रकार, फ़ोटो जर्नलिस्ट हैं और उसके अलावा कई वीडियो जर्नलिस्ट। यानी कि कई मामलों में संवाददाता के बिना फील्ड में गए तो स्टोरी की जा सकती है, लेकिन फोटो जर्नलिस्ट या वीडियो जर्नलिस्ट (कैमरापर्सन) को स्पॉट पर जाकर, तस्वीरें और वीडियो शूट करने ही पड़ते हैं। ये ही वजह है कि वो अधिक संख्या में संक्रमित हुए हैं।
‘आख़िर कैसे कोई इन्फेक्शन से बच सकता है, जब उसको अगर संस्थान से मास्क उपलब्ध करा भी दिए जाएं, तो वे दोयम क्वालिटी के हों..मैंने रिपोर्टिंग के दौरान, ज़्यादातर साथियों को फील्ड में देखा-वो जो मास्क इस्तेमाल कर रहे थे, वो किसी काम के नहीं थे..संस्थानों को कोई परवाह नहीं है अपने पत्रकार की..’
ये बात बेहद गुस्से से कहते हुए, एक अख़बार के साथी साफ कहते हैं कि मीडिया संस्थानों को दरअसल आज नहीं, बहुत पहले से अपने स्टार चेहरों को छोड़ कर किसी की कोई परवाह नहीं रही है। अब जबकि संकट इतना बड़ा है, तब भी मीडिया कंपनियों का रवैया बिल्कुल वही है, जो अब तक रहा है। इस बारे में देश भर के दर्शकों को Stay Safe का संदेश दे रहे, मी़डिया ने ज़्यादातर जगह अपने पत्रकारों के लिए कोई आचार या सुरक्षा संहिता या सेफ्टी गाइडलाइन तय नहीं की है। वरिष्ठ टीवी पत्रकार और एनडीटीवी इंडिया के मैनेजिंग ए़डिटर रवीश कुमार ने हमसे बात करते हुए कहा,
‘हमको देखना होगा कि संस्थानों ने कोरोना की रिपोर्टिंग के लिए क्या गाइड लाइन बनाई है? ये जानकारी ज़रूरी है। अगर कोई रिपोर्टर अस्पताल के परिसर में है, या भीतर है या मान लीजिए धारावी की गलियों में घूम रहा है और उचित वस्त्रों से सुरक्षित नहीं है तो गंभीर सवाल बनता है। यह जानकारी भी ज़रूरी है कि जो उपकरण दिए जा रहे थे वो क्या हर रिपोर्टर या कैमरा मैन के नाम से तय किए गए थे या सामानों की अदला बदली हो रही थी? क्या उन्हें कहा गया कि एक्सक्लूसिव के लिए भीतर जाओ? रिपोर्टिंग कैसे करनी है, इसके लिए सबको CDC अटलांटा की गाइड लाइन देखनी चाहिए।’
हमारा मकसद इस ख़बर के वायरल हो जाने के बाद, केवल इसको एक ख़बर की तरह लिख देना नहीं था। इसलिए हमने 20 अप्रैल की शाम ये ख़बर आने के बाद से लगातार मुंबई और देश के अलग-अलग पत्रकारों से बात करना शुरु किया। मुंबई जो कि सबसे ज़्यादा कोरोना मामलों के चलते पहले ही संवेदनशील था, वहां ज़्यादा सतर्कता बरती जानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। एक पत्रकार साथी ने हमसे कहा, ‘हम उसी बीच घर भी जाते रहे, अब हम डर के साये में हैं कि क्या हमारा परिवार, पत्नी और बच्चे भी संक्रमित तो नहीं हुए। हम में से कई साथी इस टेस्ट में निगेटिव पाए गए हैं, लेकिन हमारा फिर से टेस्ट होगा..हमको नहीं पता कि क्या होगा। इसको भी आख़िर कम्युनिटी संक्रमण क्यों न माना जाए?‘
ये बात गंभीर और सही है क्योंकि इनमें से ज़्यादातर पत्रकार, रोज़ फील्ड में एक-दूसरे से मिलते हैं, संपर्क में आते हैं और कई बार साथ ही रिपोर्टिंग के लिए किसी हॉटस्पॉट में होते हैं, वहां से निकल कर दूसरे पत्रकारों से मिलते हैं। संक्रमण की पुष्टि तक वे परिवार के साथ भी रहे हैं, आपस में फुटेज और स्टोरी ट्रांसफर कर रहे हैं और कई पत्रकारों के अभी भी टेस्ट नहीं हुए हैं। अगर हिंदी चैनल्स के रिपोर्टर्स की बात की जाए, तो संक्रमित होने वाले ज़्यादातर पत्रकार वरिष्ठ संवाददाता या संपादक स्तर के पत्रकार हैं। ऐसे में इसको अगर व्यापकता के स्तर पर देखा जाए, तो तकनीकी तौर एक तरह के कम्युनिटी संक्रमण का ही मामला है।
कई पत्रकार साथियों ने सीधे तो कई ने इशारों में हमसे कहा कि कहीं न कहीं, नौकरी जाने का डर भी उनको सता रहा है। उनके ऊपर कहीं बिल्कुल सीधा, तो कहीं अप्रत्यक्ष दबाव है कि वो संक्रमण ज़ोन में जाकर ख़बरें निकाल कर लाएं। हाल में ही कुछ मीडिया संस्थानों में हुई छंटनी का असर भी इसी ख़ौफ़ को और गहरा कर दिया है। एक प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी अख़बार के वरिष्ठ संवाददाता ने हमसे बात करते हुए कहा,
‘दरअसल इसमें (संक्रमित पत्रकारों में) बड़ी संख्या फोटो पत्रकारों और कैमरापर्सन्स की है। इनमें से कई साथी फ्रीलांस करते हैं और उनके लिए कोई और काम – रोज़गार के तौर पर उपलब्ध नहीं हो सकता। टीवी चैनल्स और अख़बारों में हाल के दिनों में हो रही छंटनी से भी एक दबाव बना है कि रोज़ ख़बर लाकर देनी है। साथ ही, कई संस्थानों में ये कहा भी जाता है कि कोशिश करो कि कुछ बाकियों अलग कर पाओ…ऐसे में पत्रकारों के लिए दोनों ओर संकट ही है।’
एक हिंदी अख़बार में काम करने वाले साथी ने हमसे बस एक लाइन की टिप्पणी में अपनी बात रखी,
‘दरअसल हमको तो ये भी नहीं पता है कि कोरोना संक्रमित पत्रकारों की, उनके ठीक होने तक नौकरी बचेगी या नहीं…’
इस बारे में हमसे बात करते हुए, वरिष्ठ टीवी और वेब पत्रकार अभिसार शर्मा ने कहा,
‘हमको सबसे पहले ये देखना होगा कि जो पत्रकार कोरोना पॉज़िटिव पाए गए हैं, क्या इन पर नौकरी जाने का डर हावी था? क्योंकि दिल्ली में एक समाचार चैनल ने हाल ही में अपने 15-16 वेब पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया है। ये छंटनी प्रधानमंत्री की इस अपील के बावजूद हुई कि बिज़नेस हाउस, अभी लोगों को नौकरी से न निकालें। इसी तरह की और ढेरों ख़बरें हैं, जैसे कि टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने संडे एडिशन से कई पत्रकारों की छंटनी कर दी है…तो क्या इन पत्रकारों को नौकरी जाने का भी डर था, जब इनको संक्रमण के भारी ख़तरे वाली जगहों पर भी जाना पड़ा? दूसरा सवाल ये होना चाहिए कि क्या जो फोटो जर्नलिस्ट संक्रमित हुए हैं, वे अकेले गए थे या उनके साथ रिपोर्टर्स भी मौजूद थे? तीसरा सवाल ये है कि क्या इनको इनके संस्थान ने प्रोटेक्शन किट्स/इक्विपमेंट मुहैया करवाए थे? दिल्ली में मेरे कई पत्रकार साथी फील्ड में जाते हैं और वो बताते हैं कि प्रोटेक्टिव गेयर होने के बाद भी वो दूरी से इंटरव्यू करते हैं। दिल्ली में तो इतने मामले सामने नहीं आए हैं, जबकि मुंबई में तो कोरोना के सबसे ज़्यादा मामले हैं और ऐसे में अगर प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट संस्थान की ओर से नहीं दिए जाते..अगर नौकरी जाने का ख़तरा है..अगर इस डर के कारण पत्रकारों को संक्रमण का ख़तरा उठाना पड़ रहा है, तो इससे बड़ी त्रासदी और कुछ नहीं हो सकती।’
ज़ाहिर है कि हम मुंबई के इन पत्रकार साथियों के नाम सार्वजनिक नहीं कर सकते, लेकिन इनमें से कई का अभी टेस्ट नहीं हुआ है। वे अपने टेस्ट या तो करवा रहे हैं या बीएमसी के कैंप का इंतज़ार कर रहे हैं। इन सबके मन में डर है कि कहीं वे भी इस बीमारी संक्रमित न हो जाएं। जो टेस्ट में निगेटिव पाए गए हैं, वे भी ख़ौफ़ में हैं कि क्या उनके संक्रमण के लक्षण बाद में तो नहीं दिखेंगे। इस सब से बढ़कर, उनको ये चिंता सता रही है कि कहीं, उनके ज़रिए कहीं उनके परिजनों तक ये संक्रमण न पहुंच गया हो और इसके साथ ये निराशा कि जिन संस्थानों की तरक्की और चमक को बनाए रखने के लिए वो जान दांव पर लगा देते हैं, वो इस विकट काल में भी उनके प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाने की जगह उनसे मुंह फेरने को तैयार खड़े हैं।
ऐसे में इन पत्रकार साथियों, ख़ासकर फोटो जर्नलिस्ट्स और कैमरा जर्नलिस्ट्स को लेकर आवाज़ें उठनी चाहिए और पत्रकार संगठनों को संस्थानों पर दबाव बनाना चाहिए कि संस्थान इन पर किसी तरह का दबाव न बनाने पाएं, इनकी नौकरियां सुरक्षित रहें और जो मी़डियाकर्मी अभी तक इस वायरस की चपेट में नहीं आए हैं, वे सुरक्षित रहें। लेकिन ये भी कैसे होगा, क्योंकि इनमें से ज़्यादातर एसोसिएशन्स में यही संपादक – कुर्सियों पर कब्ज़ा किए बैठे हैं। ऐसे में इन फोटो जर्नलिस्ट्स के लिए प्रख्यात अमेरिकी व्यंग्यकार और पत्रकार पी जे ओरर्क की बात को याद करते हुए, इस रिपोर्ट का अंत किया जा सकता है,
‘प्रिंट पत्रकार होने की सबसे अच्छी बात ये है कि आप झुक कर जान बचा सकते हैं। ख़बर लिखने वाला फर्श पर लेट जाता है, जबकि कैमरामैन की जान जाती है। बीबीसी के एक युद्ध संवाददाता ने अपना संस्मरण, अपने 50 दिवंगत साथियों को समर्पित किया और मैं दावा कर सकता हूं कि वे सभी तस्वीरें खींचते हुए, शहीद हुए होंगे।’