सुभाष कोली मीडिया का हीरो नहीं है…हाँलाकि उसे होना चाहिए था। सुभाष कोली बताता है कि मनुष्य का ईमान उसे कितना मज़बूत बना सकता है। सुभाष कोली वही शख्स है जिसने बताया कि 18 जून को क्रिकेट मैच में पाकिस्तान से भारत की हार के बाद, बुरहानपुर में मुसलमानों की नारेबाज़ी और पटाखे फोड़ने की ख़बर पुलिस ने गढ़ी थी। उसके मोबाइल से सौ नंबर पर फोन करने वाले पुलिस वाले ही थे। इस तरह उसे एक झूठे मामले में शिकायतकर्ता बना दिया गया।
सुभाष कोली ने मध्यप्रदेश पुलिस की इस घटिया हरक़त की पोल खोल दी। सुभाष ने कोर्ट में भी हलफ़नामा देकर कहा कि पुलिस ने 15 नौजवानों के ख़िलाफ़ झूठी कहानी गढ़ी है और ग़लत तरीके से उनके नाम का इस्तेमाल करके केस दर्ज किया है | गाँव वालों ने भी पुलिस पर आरोप लगाया है कि पुलिस गाँव में हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच दरार डालना चाहती है । जबकि गांव में सब एक दूसरे के साथ मिलकर रहते हैं
लेकिन हुआ यह कि 15 बेगुनाह मुसलमानों की ईद ख़राब हो गई।
हुआ यह कि पुलिस के हवाले से छपी इस ख़बर पर करोड़ों लोगों ने आँख मूंद कर भरोसा कर लिया।
हुआ यह कि ‘पाकिस्तान की जीत पर मुसलमान ख़ुश होते हैं ‘ के प्रचार को और बल मिला।
हुआ यह कि कोली के भंडाफोड़ पर कान देने की फ़ुर्सत किसी के पास नहीं है।
आख़िर क्रिकेट मैच को लेकर मुसलमान क्या सोचते हैं- यह वे कैसे जान सकते हैं जिनका मुसलमानों से कोई रिश्ता ही नहीं रह गया है, नफ़रत के सिवा।
लेकिन कभी था रिश्ता। ख़ूब था। सतह पर आज भी है। तब किसी मुसलमान को मुसलमान होने की वजह से मारे जाने का डर नहीं था। मशहूर पत्रकार अजित साही ने उन्हीं दिनों की याद करते हुए एक आँखों देखा हाल बयान किया है…उनका अनुभव कोई विशेष नहीं है, यह बहुत लोगों के लिए आम अनुभव है…पढ़िये और सोचिए कि जो बदला है वह क्यों और कैसे बदला है–
ईद, क्रिकेट और भारत का मुसलमान
1998 की बात है. मैं दिल्ली की एक टीवी प्रोडक्शन कंपनी में नौकरी करता था. मलेशिया का एक टीवी स्टेशन दुनिया भर में रमज़ान के तौर-तरीक़ों पर कार्यक्रम बना रहा था और उसने भारत में इस काम का ठेका इस कंपनी को दे दिया. मेरी झोली में आया लखनऊ का सफ़र, और मैं एक कैमरामैन, एक लाइन प्रोड्यूसर और एक साउंड रिकॉर्डिस्ट के साथ निकल लिया.
18 जनवरी की सुबह हमारी टीम लखनऊ के “मुसलमानी” इलाक़ों में शूटिंग करने लगी. पहले हमने उन मुहल्लों का दौरा किया जहां सेंवई तैयार की जाती हैं. पहली बार देखा ऊन की तरह सेंवई के भी लंबे-लंबे लच्छों को आंगनों में फैला कर सुखा कर तैयार किया जाता है. कुछ घंटों बाद हम पहुंचे चौक जहां तंग गलियों में पुश्त-दर-पुश्त इतिहास बसा है. ये वही जगह है जहां जगप्रसिद्ध टूंडे के कबाब मिलते हैं. हमें लगा रोज़े के माहौल में इस फ़क़त मुसलमानी मुहल्ले के सारे ढाबे बंद होंगे. मगर ऐसा नहीं था. यूं कहिए कि हरेक ढाबा खुला था. लेकिन वहां खाना नहीं खाया जा रहा था. बल्कि हर ढाबे में टीवी चालू था जिसपर ढाका में चल रही इंडिपेंडेंस कप एकदिवसीय क्रिकेट श्रृंखला के फ़ाइनल मैच का प्रसारण हो रहा था.
ये मैच भारत और पाकिस्तान के बीच खेला जा रहा था. पहले बल्लेबाज़ी करके पाकिस्तान की टीम 314 रन बना चुकी थी. एकदिवसीय क्रिकेट के तब तक के इतिहास में पहले बल्लेबाज़ी करके इतने रन बनाने वाली किसी भी टीम को कभी हार नही मिली थी. भारतीय पारी की शुरुआत भी अच्छी हुई थी. सचिन तेंदुलकर का विकेट खोने के बावजूद भारत एक विकेट पर 250 रन बन चुका था. इसमें सौरव गांगुली का शतक शामिल था. देर से शुरू होने की वजह से ये मैच अड़तालिस ओवरों का था. भारत को अगले दस ओवरों में पैंसठ रन बनाने थे और उसके नौ विकेट बाक़ी थे. हम लोगों ने फ़ौरन समझ लिया कि हम एक नाज़ुक वक़्त पर एक मुसलमानी मुहल्ले में आए हैं. हम सबके मन में एक ही अनकही बात थी: क्या ये मुसलमान पाकिस्तान की टीम की तरफ़दारी कर रहे हैं? हम एक ढाबे पर जमा भीड़ के पीछे चुपचाप खड़े होकर मैच और नज़ारा देखने लगे.
अगले डेढ़-दो घंटों में हमने जो अनुभव किया वो ज़िंदगी भर न भूलेगा. दाढ़ी-टोपी वाले ऊंची मोहरी का पैजामा पहने ये सभी रोज़ेदार बच्चे, जवान और उमरदार मुसलमान मर्द एक सुर से भारत की टीम के नारे लगा रहे थे. भारत के एक-एक चौवे और छक्के पर ज़ोरदार तालियां बजा कर उछल रहे थे. पाकिस्तान के गेंदबाज़ों को हूट कर रहे थे. ख़ासतौर से सक़लैन मुश्ताक़ जब अपने रनअप पर दौड़ते थे तो ये लोग उनका ख़ूब मज़ाक उड़ा रहे थे. जब सक़लैन के ओवरों में भारतीय बल्लेबाज़ धुंआधार रन बना रहे थे तो “फिर पिट गवा” का हल्ला हो जाता था. जब भारतीय खिलाड़ी के बल्ले पर लग कर उछली गेंद कैच नहीं होती थी तो ये ख़ुशी से ताली बजाकर गले मिलने लगते थे. हम लोग विस्मृत होकर ये सब देखते रहे. फिर मैच में अचानक मोड़ आया और भारत के चार विकेट फटाफट गिर गए. ढाबे पर सन्नाटा छा गया. जल्द ही छटा विकेट भी गिर गया. बीस गेंद में अब भी उन्नीस रन बनाने थे. चोटी के सभी बल्लेबाज़ आउट होकर पवेलियन लौट चुके थे. सिर्फ़ विकेटकीपर नयन मोंगिया थे जिनसे कुछ आशा बची थी. जब वो भी रनआउट हो गए तो जमा मुसलमानों में मायूसी छा गई. अब एक ओवर बचा था और नौ रन बनाने थे.
शाम रात में ढल रही थी. हर गेंद के साथ रोशनी कम हो रही थी. स्टेडियम के आसपास कोई मस्जिद रही होगी जहां से अज़ान सुनाई दी. घबराई हंसी के साथ एक मुसलमान बोला, “चल लेओ, भइया, नमाज़ पढ़ लेओ. मैच गवा.” फ़ौरन एक दूसरी आवाज़ आई, “अमे नहीं. ऊ बांग्लादेश की अज़ान बा. ऊ हमसे आधे घंटे आगे है.” सब वहीं डटे रहे. आख़िरी ओवर की पहली चार गेंदों पर छह रह बन गए. अब दो गेंदों में तीन रन बनाने थे. क्रीज़ पर हृषिकेष कानित्कर थे जिन्होंने भारतीय टीम में एक महीने पहले ही खेलना शुरु किया था. कहीं से हल्की सी आवाज़ आई, “ई कउन है, मे?” लेकिन इसका किसी ने जवाब नहीं दिया. सक़लैन मुश्ताक़ पारी के आख़िरी ओवर की पांचवीं गेंद फेंकने के लिए दौड़े. सब सांस रोके देखते रहे. कानित्कर ने बल्ला घुमाया. गेंद बाउंड्री पार चली गई.
उस वक़्त उस ढाबे पर जमा मुसलमानों का उठा शोर ज़रूर मीलों दूर सुनाई दिया होगा. मैं और मेरे साथियों ने एक दूसरे की ओर देखा. हम सब मुस्करा रहे थे. हमको लग रहा था आज हमने दो मैच जीत लिए. इतने में पास की मस्जिद से अज़ान सुनाई दी. भीड़ तुरंत छंटने लगी. हम टैक्सी की ओर लौटने लगे. रास्ते में दो बेहद ख़ुश दिख रहे मुसलमान लड़के आपस में ज़ोर-ज़ोर से बात करते जा रहे थे. एक ने दूसरे से कहा, “आज तो ईद हो गई!” और दोनों उछलते हुए गली में मुड़ गए.
अजित साही
(अजित साही देश के जाने-माने पत्रकार हैं जिनका शुमार भारत के चुनिंदा शुरुआती टीवी पत्रकारों में किया जाता है। इसके अलावा वे मानवाधिकारों के क्षेत्र में भी काफ़ी सक्रिय रहे हैं। )