दावोस में बतकही और उनके मतलब !
प्रकाश के.रे
दावोस की बैठक से पहले ऑक्सफैम द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया था कि दुनियाभर में बीते साल जो संपत्ति का अर्जन हुआ है, उसका 82 फीसदी हिस्सा सर्वाधिक धनी एक फीसदी के खाते में गया है. भारत के लिए यह आंकड़ा 73 फीसदी है. बहरहाल, इस आंकड़े पर काफी चर्चा हो चुकी है तथा आर्थिक विषमता और वेतनों में खाई का अनुभव हम आसानी से अपने रोजमर्रा के जीवन से पा सकते हैं. इसी बीच एक सर्वेक्षण अमेरिका से आया है, जिस पर गौर करना जरूरी है. अमेरिका की एक वैश्विक संचार मार्केटिंग संस्था एडेलमैन ने दावोस में अपनी सालाना रिपोर्ट जारी की है जिसे ट्रस्ट बैरोमीटर कहा जाता है. इसमें लोगों के विभिन्न संस्थाओं के प्रति भरोसा का आकलन किया जाता है. इस बार 28 से अधिक देशों के 33 हजार लोगों का सर्वेक्षण किया है. इसमें सरकारों के साथ मीडिया के प्रति लोगों का भरोसा बहुत कम हुआ है तथा सत्तर फीसदी झूठी और गलत खबरों को लेकर चिंतित पाये गये. मीडिया आज के दिन किसी भी अन्य क्षेत्र से सबसे कम भरोसेमंद है. हम इन आंकड़ों और सैंपल साइज को लेकर बहस कर सकते हैं, पर इससे माहौल का एक अंदाजा तो मिलता ही है.
आखिर दावोस से हमें इतनी उम्मीद भी क्यों होनी चाहिए! विश्व आर्थिक मंच का यह सालाना जमावड़ा राजनेताओं, कारोबारियों और उद्योगपतियों का एक जलसा ही है. चूंकि इसे एक निरपेक्ष मंच की तरह देखा जाता है, तो कभी-कभार सहयोग और सहमति के मौके बन जाते हैं, या फिर कुछ प्रतिभागी बेबाकी से अपनी बात कह जाते हैं. लेकिन चाहे वहां पर्यावरण पर चर्चा हो जाये या महिलाओं की बराबरी पर बतकही हो जाये या फिर आर्थिक और क्षेत्रीय बराबरी की जरूरत पर जोर दे दिया जाये, दावोस का अंतिम सच बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेशनों तथा मालदार थैलीशाहों के हितों की रक्षा ही है. पिछले साल दावोस में ट्रंप के आसन्न संरक्षणवाद का भय व्याप्त था, तब चीनी राष्ट्रपति ग्लोबल गांव के देवता बन कर उभरे थे. इस बार क्या हुआ? भले ही चीनी मीडिया यह दावा करे कि इस साल के जलसे की थीम राष्ट्रपति जिनपिंग के पिछले साल के भाषण से प्रेरित थी, पर यह भी सच है कि चीनी प्रतिनिधियों को बार-बार निवेशकों को यह भरोसा दिलाने की जरूरत पड़ी कि चीन अपने कर्ज को नियंत्रित करने की कोशिश करेगा. चीनी प्रतिनिधि तो यहां तक कह गये कि 2008 की आर्थिक मंदी जैसी स्थिति आयेगी तो चीन बड़ी संस्थाओं को सहारा देगा. लेकिन इस दफे मजे की बात यह रही है कि ट्रंप प्रशासन द्वारा कॉरपोरेट करों में भारी कटौती से कारोबारी और धनकुबेर बहुत खुश आये और ट्रंप को लेकर पहले की आशंकाएं बहुत हद तक दूर हो चुकी हैं.
तो, यह देखा जाना चाहिए कि एक तरफ ब्रिटिश लेबर पार्टी के नेता धनी लोगों और कॉरपोरेशनों पर टैक्स बढ़ाने और उसमें पारदर्शिता की बात कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ वैश्वीकरण के मूल्यों की रोजाना धज्जियां उड़ानेवाले डोनाल्ड ट्रंप करों में राहत देकर वैश्विक अभिजात्यों को अपने पाले में लाने में सफल होते दिख रहे हैं. इन दो तरह की सोच के बीच में आगामी सालों की राजनीतिक बहसें और लड़ाईयां घटित होंगी. अफसोस की बात है कि भारत अपनी तमाम आंकड़ेबाजी, मीडिया मैनेजमेंट और सियासी शोशेबाजी के बावजूद वैश्विक रस्साकशी में दोयम दर्जे का खिलाड़ी ही बना रहेगा, जबकि उसमें अगली कतार में खड़े होने का दम-खम है. और आखिरी बात यह कि हमें यह तो पूछना ही चाहिए कि दावोस में प्रधानमंत्री मोदी के भाषण को व्यापक स्तर पर संपादित कर विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर क्यों डालने की जरूरत पड़ी! ऐसा वे क्या बोल गये, जो नहीं बोलना था?
(तस्वीरें आल्ट न्यूज़ से साभार।)