13 अप्रैल को चैनलों पर धड़धड़ा कर एक ब्रेकिंग न्यूज़ आई। बताया गया कि प्राइवेट मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आरक्षण ख़त्म कर दिया। इसमें क्या छोटे और क्या बड़े, सभी शामिल थे। इंडिया टुडे की वेबसाइट ने बाज़ी मारते हुए इस ख़बर को तेज़ी से फैलाया।
एक बार फिर साबित हुआ कि बीजेपी के समर्थकों में एक वर्ग ऐसा भी है जो आरक्षण को ख़त्म कराने का सपना देख रहा है। मोहन भागवत या आरएसएस के दूसरे नेता उन्हें सहलाने के लिए आरक्षण समाप्त करने का बयान देते रहते हैं। बाक़ी के लिए मोदी के जुमले हैं कि आरक्षण कभी समाप्त नहीं हो सकता। बहरहाल, इस चक्कर में ‘मेरिटधारी पत्रकारों’ ने पत्रकारिता की नाक एक बार फिर कटा ली।।
फटाफट चैनलों को बहस का अच्छा मौका मिल गया। जल्दी ही यूपी के अधिकारी सफाई देते नज़र आये कि इस तरह का कोई कोटा यूपी में था ही नहीं, पर चैनलों ने इस खबर को घर-घर पहुँचाने में अमेरिका के बम ऑफ़ आल बम से भी मुक़ाबला जीत लिया।
मसलन, एपीएन चैनल की इस तस्वीर में देखिये।
“अब यूपी में मेरिट से बनेंगे डॉक्टरी में मास्टर”
इस बहस में चैनल के एक संपादक के अलावा लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार भी शामिल हुए। समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता भी बैठे लेकिन उन्हें सही जानकारी लेने की फुरसत नहीं मिली। उन्होंने आराम से बैठ कर बीजेपी पर बरसने में एक घंटा ज़ाया किया। राजनीतिज्ञों का तो खैर काम ये ही है कि गलत सही हर बात पर लपेटो लेकिन मीडिया के टाईधारक एंकरों की ‘मेरिट लिस्ट’ कब बनायी जाएगी। इन्हें लगता है कि आरक्षण में मेरिट नहीं होती। एक बार आरक्षण देकर ही किसी कॉम्पिटिटिव एग्जाम में इन्हें बैठा दिया जाये, अपनी मेरिट का अंदाज़ा हो जायेगा।
जहाँ तक बात है ‘आरक्षण वाले डॉक्टर’ की तो उस पर पत्रकार सर्वप्रिया सांगवान की एक फेसबुक पोस्ट का ज़िक्र यहाँ करना होगा ताकि समझा जा सके कि आरक्षण वाला डॉक्टर क्या होता है।
“आप आरक्षण के पक्ष में हो सकते हैं या खिलाफ हो सकते हैं, इसमें कोई समस्या नहीं है। समस्या तब होती है जब आप अपनी बात को गलत तथ्यों के साथ रखते हैं। एक मेडिकल की छात्रा रही हूं, थोड़ा सा ‘करेक्ट’ कर सकती हूं। एक मेडिकल संस्थान में दाखिले के बाद सभी को एक ही तरह की परीक्षा देनी होती है। सभी के लिए उसे पास करने का ‘क्राइटेरिया’ भी समान होता है। मतलब जितने भी विद्यार्थी हैं, वे जब डिग्री लेते हैं तो समान होते हैं। किसी के नंबर कम, ज्यादा हो सकते हैं लेकिन वे इलाज करने के क़ाबिल होते हैं। इसलिए ‘आरक्षण वाला डॉक्टर’ एक दुष्प्रचार है। आरक्षण वाला डॉक्टर कोई नहीं होता।
उससे पहले जब आप एडमिशन के लिए टेस्ट दे रहे होते हैं तो जरूर आरक्षण होता है। एक जनरल कैंडिडेट को पता है कि उसके पास कितनी सीट हैं जिन पर उसे मुकाबला करना है। परीक्षा के नतीजे आने के बाद आरक्षण को दोष देना बहुत सामान्य प्रतिक्रिया है। आपको एक जनरल कैंडिडेट ने पछाड़ा है, लेकिन आप खुद की आरक्षण वाले से तुलना करने लगते हैं। आरक्षण वाले आपसे कम नंबर जरूर लाते हैं प्रवेश परीक्षा में, लेकिन उनके लिए भी न्यूनतम सीमा रखी गई है। जनरल के लिए क्वालीफाइंग 50% है और आरक्षित के लिए 40% , इसलिए ऐसा कभी नहीं होता कि 3-4 नंबर लाने वाला उम्मीदवार डॉक्टर बनने चला है। आप इस बात को सीबीएसई की वेबसाइट पर पढ़कर तसल्ली कर सकते हैं। यह बात मैंने सीबीएसई-पीएमटी परीक्षा के हिसाब से कही है। वैसे भी इस दौर में जब राज्य परीक्षाओं में इतना घपला हो, प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की बाढ़ हो, तब आप कैसे सिर्फ आरक्षण को अपने साथ हुए अन्याय के लिए दोषी ठहरा सकते हैं।
UPSC में पहली रैंक टीना डाबी ने ली है। वह एक आरक्षित समाज से आती हैं। लेकिन एक लड़के अंकित का कहना है कि उसके नंबर टीना से ज्यादा थे पहले पेपर में। लेकिन अंकित को जनरल वाले ने पछाड़ा है, टीना डाबी ने नहीं। यह बात भी सच है कि टीना अगर जनरल से अपना फॉर्म भरतीं तो उनका एडमिशन नहीं होता। दूसरा यह भी होता है कि कई बार आपके नंबर नेगेटिव मार्किंग में कट जाते हैं, दूसरा कैंडिडेट उन सवालों को अटेम्पट ही नहीं करता तो आखिर में उसके नंबर आपसे ज्यादा बन जाते हैं। दरअसल, ऐसे कई सवाल हैं जो दोनों को ही नहीं आते हैं। इससे आप दोनों ही नालायक नहीं साबित हुए। लेकिन संसाधन कम हैं तो परीक्षा इसी तरह ली जा सकती है।
आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि आरक्षित सीटों पर भी कितना कम्पटीशन है। UPSC या PMT में लाखों लोग अप्लाई करते हैं जो आरक्षित समाज से होते हैं। हर पिछड़े या दलित को नौकरी या दाखिल नहीं मिल जाता। आरक्षण का विरोध तब करना चाहिए जब वह आपको मिल रहा हो, लेकिन तब कोई आदर्शवाद आप में नहीं जागता। आरक्षण का पक्ष लेते हुए भी वे अच्छे लगते हैं जिन्हें आरक्षण नहीं मिला लेकिन वे किसी पिछड़े, दबे-कुचले इंसान का भला होते हुए देख खुश हैं।”
वैसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जन्म तो इसलिए हुआ होगा कि ख़बरें फटाफट विज़ुअल समेत लोगों तक पहुँच जाएँ। लेकिन इस चक्कर में शुरू हुई फटाफट बहसें लोगों को तेज़ी से बेवकूफी की गर्त में धकेले रही हैं। कहाँ तो, मीडिया का काम तो था कि समाज में जो खाई राजनीति बना रही है, उसे सही जानकारी से पाट दें लेकिन लगता है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया खुद कोई राजनीतिक दल है जो निरंतर कोशिश करता है कि लोगों में अज्ञानता पनपती रहे और उसका काम चलता रहे।
.मणिकर्णिका