ख़ुलासा: न्यूज़ चैनलों का ‘ISIS लिंग’ और शम्स ताहिर ख़ान !

एक ज़माने में जब जनसत्ता पढ़ने लायक़ अख़बार हुआ करता था तो एक क्राइम रिपोर्टर की धूम थी। नाम था शम्स ताहिर ख़ान। बंदा क्या लिखता था। बेहद संवेदनशील क़लम। अपराध के पीछे का मनोविज्ञान और उसका सामाजिक संदर्भ स्पष्ट हो जाता था। रिपोर्ट सीधे दिल में उतर जाती थी। यह वह दौर था जब पुलिस की बताई कहानियों को ‘कथित’ और ‘संदिग्ध’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किए बिना नहीं लिखा जाता था। पुलिस के दावों की ख़ूब पोल खोली जाती थी। उस दुबले-पतले शम्स ने अपनी संवेदनशील क़लम के ज़रिये काफ़ी नाम कमाया।

तब से यमुना में काफ़ी पानी बह चुका है। अब शम्स मोटा हो गया है। ‘आज तक’ का चेहरा है। चैनल में अपराध की रिपोर्टिंग उसी के हवाले है। वह इंडिया टुडे (अंग्रेज़ी) का ऐंकर भी है और ग्लोब के दूसरे हिस्सों में भी उसकी पहचान है। पर अब उसके लिए ‘कथित’ या ‘संदिग्ध’ जैसे शब्दों का ख़ास मतलब नहीं। उसकी टीम धड़ल्ले से पुलिस की ज़बान बोलती है। किसी भी आतंकी घटना की सुगबुगाहट के साथ ही इस टीम को पता चल जाता है कि इसके पीछे दुनिया के किसी कोने में बैठे ‘बगदादी’ या ‘जवाहिरी’ का हाथ है। ‘ख़ुरासान माड्यूल’ जैसे ना जाने कितने आंतक के माड्यूल के नाम इस टीम के सदस्यों की ज़बान पर रहते हैं। आत्मविश्वास इतना गोया हर कार्रवाई के पहले आतंकी ब्ल्यूप्रिंट भेजकर आज तक से सलाह लेते हैं। दाऊद इब्राहिम या छोटा शकील जैसे नामों की तो गोटी बनाकर आए दिन कैरम खेला जाता है.. अपनी इस तेज़ी से ‘टीम शम्स’ ख़ूब इनाम-इकराम पा रही हैं।

लेकिन ‘सच’.. ?.छोड़िए भी..फ़ैशन के दौर में इसकी गारंटी क्या माँगना..!

ज़रा नीचे देखिए। 8 मार्च को लखनऊ में शुरू हुई मुठभेड़ के साथ ही सैफुल्लाह के आईएसआईएस आतंकी होने का ऐलान किया जाने लगा। ‘माड्यूल’ के बारे में भी बातें हुईं। आईएसआईएस की कारग़ुज़ारियों पर फटाफट पैकेज बनाए और दिखाए गए। (सातवें चरण के मतदान के साथ यह मुठभेड़ जनता को लगभग लाइव  ही दिखाई जा रही थी। )…एक तरफ़ मतदान और दूसरी तरफ़ मुठभेड़ से टीवी का परदा झूम रहा था..चारों तरफ़ उत्तेजना ही उत्तेजना .अंत में बताया गया कि ‘आईएसआईएस आतंकी’ मारा गया।

‘नंबर एक’ आज तक का यह आलम था तो नंबर दो और तीन पर रहने वाले एबीपी न्यूज़ और इंडिया टीवी कहाँ पीछे थे। सब ताल ठोंककर सैफ़ुल्लाह के आईसआईएस कनेक्शन का ढोल बजा रहे थे।

इंडिया टीवी ने तो ठाकुरगंज के उस घर को आईसआईएस का हेडक्वार्टर ही घोषित कर दिया। कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता था।

मतदान और ऑपरेशन ख़त्म होने  के बाद पुलिस ने साफ़ किया कि सैफ़ुल्लाह का आईएसआईएस से कोई कनेक्शन नहीं था।

 

आज तक ने भी बताया, पर उत्तेजना इतनी जबर थी कि लिंक भी ‘लिंग’ बन गया ..

हद तो यह कि एडीजी दलजी चौधरी ने सैफुल्लाह के आईएसआईएस कनेक्शन की बात का खंडन कर दिया, लेकिन दूसरे दिन ये ख़बर लिखे जाते वक़्त (9 मार्च, दोपहर 1 बजकर 10 मिनट) आज तक सैफुल्ला को आईएसआईएस ट्रेन्ड आतंकी बता रहा था…

अगर ‘नंबर एक’ से तीन चैनल का यह हाल है तो बाकी नंबर वालों ने क्या-क्या किया होगा, अंदाज़ ही लगाइये। भारत पर आईएसआईएस के ‘पहले हमले’ का ऐलान हो चुका था। उसकी हरकतों के दुर्दांत दृश्य टीवी के परदे के ज़रिये लोगों के दिमाग़ में घुस रहे थे। पीछे से भय का संचार करने वाला संगीत, प्रोड्यूसर और एडिटर के कौशल की गवाही दे रहा था।

ऐास नहीं है कि आईएस महज़ कल्पना है। या कि इस ख़तरे से बचने के उपाय नहीं किए जाने चाहिए। लेकिन क़ानूनी रोक के बावजूद लखनऊ के पुलिस एक्शन का लाइव प्रसारण करना, क्या कहता है ? क्या दुनिया के किसी भी सभ्य देश में ऐसा संभव है ? क्या मतदान के साथ-साथ देश पर हमले का यह भाव यूँ ही जगाया गया ? इसके पीछे की राजनीति और अर्थशास्त्र बहुत स्पष्ट है।

यह ना सोचें कि रिपोर्टिंग के ‘इस दौर’ में शम्स ताहिर ख़ान को नींद कैसे आती होगी…? बाज़ार चैन की चाँदी का भी इंतज़ाम करता है। नींद आ ही जाती है…! और हाँ, इसकी ज़िम्मेदारी शम्स की नहीं है, वह तो बस माँग की पूर्ति कर रहा है। मीडिया के लिहाज़ से भारत को ‘दूसरे नंबर का घटिया मुल्क’ बनाने की ज़िम्मेदारी उन मालिकों की है जिन्होंने उत्तेजना का कारोबारी होना, संपादक होने की शर्त बना दी है। संपादकों की ग़लती बस इतनी है कि उन्होंने ख़ुद को संपादक मानना छोड़ दिया है..।

.बर्बरीक 

(इस ख़बर की हेडलाइन बकवास है और पूरी तरह हिंदी न्यूज़ चैनलों से प्रेरित है। ख़ुलासा का अर्थ भी सार-संक्षेप होता है, भंडाफोड़ नहीं ! )

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