ललित कुमार
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एक चैनल पर श्रीदेवी की तस्वीर को फ़ोटोशॉप करके बाथटब में डुबोया जाता है और कैप्शन ये कि “6:15: Sridevi lying drowned inside the bath tub” (आप कैमरा लेकर बाथरूम में खड़े थे क्या?)
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दूसरा चैनल “मौत के बाथटब” को दिखा रहा था… तीसरे की एंकर ही बाथरूम से ही बोल रही थी… चौथा पीछे क्यों रहता… उसने अपने रिपोर्टर को ही बाथटब में लिटा दिया…
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शुक्र है किसी चैनल ने एंकर को ये नहीं कहा कि डूबो और हमारे लार टपकाते दर्शकों को मर कर दिखाओ कि बाथ टब में ऐसे डूबा और मरा जाता है (वरना नौकरी गई समझो)
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वैसे तो भारतीय टीवी चैनल अपनी भद्द अक्सर पिटवाते रहते हैं — लेकिन TRP के इस नए तमाशे में तो भद्द की भी हद हो गई। किसी की मौत का टीवी पर ऐसा तमाशा हमने आज तक नहीं देखा। हिन्दी टीवी चैनलों को लगता है कि उनका चैनल केवल वही लोग देखते हैं जिन्हें तमिल फ़िल्मों की उड़ती स्कॉर्पियो पसंद आती हैं।
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दरअसल टीवी चैनलों के मालिकों, सम्पादकों और एंकरों ने पहचान लिया है कि भारतीय जनता नीम बेवकूफ़ है — उसे कितना भी गंद दिखा लो — वो टीवी बंद नहीं करेगी। बल्कि सच तो यह है कि जहाँ जितनी मूर्खता और नीचता होगी वहाँ यह जनता उतनी ही अधिक भीड़ लगाएगी।
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टीवी चैनलों ने पहचान लिया है कि ये ऐसा देश है जहाँ के लोग ऑपरेशन के बाद बिस्तर पर पड़े दोस्त के साथ सेल्फ़ी लेकर लिखते हैं “feeling behosh with dost”… लोग जनाजे में बिल्कुल सही एंगल से सेल्फ़ी लेकर पोस्ट करते हैं “feeling sad at shamshan”
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दूरदर्शन के स्वर्णिम काल में न्यूज़ एंकर्स स्टार होते थे… पब्लिक के चहेते होते थे… आजकल के एंकर्स जोकर हैं… लोग इनकी हंसी उड़ाते हैं… इन्हें शर्म आनी चाहिए कि पैसे के लिए ये अपनी ज़बान से कुछ भी ऊल-जुलूल बोलने को फ़ट से तैयार हो जाते हैं। यार पैसे से आगे कुछ नहीं दिखता क्या?…. शर्म है तो कोई एंकर्स एसोसिएशन बनाओ और चैनल मालिकों पर दबाव डालो कि हम इस तरह की बेहूदा एंकरिंग नहीं करेंगे…. लेकिन मुझे तो ये लगता है कि इन एंकरों में ख़ुद ही इतनी सलाहियत नहीं हैं कि ये बेहूदगी को बेहूदगी समझ सकें। इनके नज़रिए से देखें तो इन्हें लगता है कि सूट पहन कर ये लोग टीवी पर इतने गूढ़ ज्ञान की बात करते हैं कि अगर ये सड़क पर निकले तो लोग इनके चरण पकड़ लेंगे।
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टीवी चैनलों को भी क्या दोष दें… लालाओं द्वारा चलाए जा रहे लोकतंत्र के ये चौथे खम्बे भारतीय समाज की अवैज्ञानिक सोच, बेरोज़गारी, आलस, अति भावुकता, प्रश्नों से परहेज़, सर्वव्यापी भय, लालच और पैसे के पीछे अंधेपन जैसी चीज़ों को भुनाते हैं और अपनी जेबें भरते हैं। इनकी जेब में पैसा और हमारी मानसिकता में छोटापन बढ़ता चला जाता है।
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हम चटोरे लोग हैं… खाने के मामले में भी और ज्ञान के मामले में भी… जानकारी भी वही ग्रहण करेंगे जिसमें चटखारा हो…
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सोशल मीडिया ने भी श्रीदेवी की मौत का मज़ाक बनाया है… आज फ़ेसबुक पर एक चुटकुला पढ़ा, “पतियों द्वारा बाथ टब की खरीददारी में भारी वृद्धि… कारण पता नहीं”
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ये क्या है?
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क्या इसी बौद्धिक स्तर पर जीने लायक हैं हम?
(ललित कुमार कविता कोश के संस्थापक हैं। )