विष्णु राजगढ़िया
लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि की क्या भूमिका है? केंद्र और राज्य में अलग दलों की सरकार होना स्वाभाविक है। एक बार चुनाव के बाद जनप्रतिनिधि का दायित्व पूरे क्षेत्र और राज्य व देश के हितों का प्रतिनिधित्व करना होता है। अगर जनप्रतिनिधि नकारात्मक भूमिका में रहे, तो लोकतंत्र का मतलब ही बदल जाएगा।
लेकिन दिल्ली के सांसद मनोज तिवारी से जुड़े दो रोचक प्रसंग देखें। सांसद और दिल्ली भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के नाते उन पर बड़ा दायित्व है। लेकिन जनता के हितों से जुड़े गंभीर सवालों पर उनकी भूमिका उन्हें हास्यास्पद बनाती है। मानो वह खुद को एक गायक की भूमिका तक सीमित देख रहे हैं। वह संसदीय क्षेत्र के लगभग 17 लाख से ज्यादा मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्हें लगभग छह लाख मतदाताओं ने वोट दिया।
दिल्ली भाजपा प्रदेश अध्यक्ष और सांसद होने के नाते मनोज तिवारी को इस योजना के लिए शुभकामना देनी चाहिए थी। अगर दिल इतना बढ़ा न हो, तो खामोश रहकर योजना के कार्यान्वयन पर नजर रख सकते थे।
लेकिन मनोज तिवारी ने धैर्य का परिचय नहीं दिया। 10 सितंबर को पहले ही दिन ट्वीट करके दावा किया कि वह पांच घंटे तक लगातार फोन करते रहे, किसी ने रिसीव नहीं किया।
ऐसे संदेश के जरिए मनोज तिवारी ने इस पूरी योजना को बेकार बता दिया। यानी सरकारी दफ्तरों में लोग कतारों में खड़े रहें, मामूली कामों के लिए महीनों परेशान रहें, बाबू की जेब गर्म करें तो ठीक, लेकिन अगर इसे सुधारने का कोई बड़ा कदम उठाया जा रहा हो, तो उसे एक झटके में खारिज कर देना ही एक सांसद का कर्तव्य है।
मनोज तिवारी के इस ट्वीट पर नागरिकों ने काफी चुटकी ली। पूछा कि आखिर आप किस काम के लिए फोन कर रहे थे? अब तक मनोज तिवारी ने अपना वह काम नहीं बताया है। किसी ने लिखा कि योजना की नियमावली में बता दिया गया है कि एक बार फोन करते हैं,तो दोबारा करने की जरूरत नहीं है। कॉल ऑपरेटर खुद संपर्क कर लेगा। फिर भी आपने पांच घंटे फोन करके परेशान क्यों किया?
किसी ने लिखा कि अगर आपको होम डिलीवरी पर भरोसा नहीं है, तो अपने भक्तों से कहें कि वे इस सुविधा का फायदा न लें, सरकारी दफ्तर जाकर ही अपना काम कराएं।
मनोज तिवारी ने 12 सितंबर को फिर हल्की टिप्पणी कर डाली। दिल्ली सरकार द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में किए जा रहे गंभीर प्रयासों की बात किसी से छुपी नहीं है। फिलहाल स्टूडेंट का एक डाटा बैंक बनाया जा रहा है। उसका कई लिहाज से काफी उपयोग होगा। उसमें आधार नंबर की भी मांग की गई है। साफ लिखा गया है कि आधार नंबर की गोपनीयता संबंधी कानून का पालन किया जाएगा।
लेकिन मनोज तिवारी ने दिल्ली के अभिभावकों से खुला आह्वान कर दिया कि अपने बच्चों का डाटा न दें। यानी इस काम को बाधित करने की अपील की। किसी राज्य सरकार की कल्याणकारी योजना में इस तरह दखल डालना किसी सांसद के लिए कितना शोभनीय है?
ट्विटर में किसी ने सलाह दी कि इसे सरकारी कामकाज में व्यवधान डालने की श्रेणी में रखते हुए धारा 186 के अंतर्गत मुकदमा दायर किया जाए।
जाहिर है कि हल्के आरोप-प्रत्यारोप के इस सिलसिले का कोई अंत नहीं। ऐसे विषयों पर गंभीर चर्चा नहीं होगी। कोई मनोज तिवारी से यह नहीं पूछेगा कि उन्होंने अपने किस काम के लिए 40 घंटे तक लगातार फोन किया? वह काम हुआ या नहीं? कोई यह भी नहीं पूछेगा कि जब खुद भारत सरकार ने हर योजना और हर काम में आधार कार्ड को प्रवेश करा दिया है, तब दिल्ली सरकार के डाटा बैंक में आधार नंबर पर वह ऐसी नकारात्मक भूमिका क्यों अपना रहे हैं?
सोशल मीडिया की दुनिया में वाहवाही लूट कर मनोज तिवारी चाहे जितना खुश हो लें, राजनीति में हर व्यक्ति की एक छवि बनती है। राजनेता से लोग जिस गंभीरता की अपेक्षा करते हैं, उस पर खरा नहीं उतरने पर वह दिल्ली भाजपा के लिए सर दर्द साबित हो रहे हैं।