छतीसगढ़ की वरिष्ठ अधिवक्ता व मानवाधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज और छत्तीसगढ़ में कार्य कर रहे “जनहित पीपुल्स लीगल रिसोर्स सेंटर” से जुड़े वकीलों के एक समूह ने कानूनी प्रक्रियाओं की समझ के आधार पर राज्य में आदिवासी ज़मीनों की लूट की प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया है। इस क्रम में उन्होंने एक दस्तावेज़ प्रकाशित किया है जो अनुभवों के आधार पर कानूनी सहायता प्रदान करने की दिशा में केन्द्रित है। मीडियाविजिल अपने पाठकों के लिए इसे छह किस्तों में प्रकाशित कर रहा है। प्रस्तुत है दूसरी किस्त– (सम्पादक)
पेसा अधिनियम के तहत आने वाली किसी भी ग्राम सभा को स्पष्ट निर्देश है कि गांव में किसी भी परियोजना को शुरू करने से पहले और विशेष रूप से भूमि के अधिग्रहण/अलगाव से जुड़े किसी भी गतिविधि के मामले में परामर्श किया जाना चाहिए। ग्राम सभा को विशेष रूप से कानून के माध्यम से निर्देशित किया गया है कि ग्राम सभा की जमीन का औद्योगिक प्रयोग करने से पहले ग्रामसभा की मंजूरी लेनी आवश्यक है. अनुसूचित ग्राम सभाओं को अधिकार है कि वे जब चाहें पहले किया गया आवंटन निरस्त भी कर सकती है.
वास्तविकता में ऐसे किसी नियम का पालन नहीं किया जाता, ज्यादातर ग्रामसभाओं को तो पता ही नहीं कि उनकी ग्रामसभा के भीतर आने वाले क्षेत्र को किसी परियोजना के लिए दे दिया गया है, ऐसे में सलाह लेने की बात तो दूर है. फर्जी दस्तावेजों के जरिये जमीनों पर कब्जा किया जाता है। आदिवासी अभी भी अपने जल, जंगल, जमीन से जुड़े हैं। वे किसी तरह जमीन का सौदा नहीं करते इसलिए डरा धमका कर ये काम लिया जाता है।
पेसा कानून को आधार बनाकर लोहंडीगुडा बस्तर में टाटा स्टील के एक इस्पात संयंत्र के विरुद्ध याचिकाएं उच्च न्यायालय में लगाई गई हैं, जिसका फैसला आना अभी बाकी है। लेकिन फैसला आने से पहले ही आदिवासियों को उनके घरों से लगातार विस्थापित किया जा रहा है।
यहां हम दो केस प्रस्तुत कर रहे हैं जो पेसा अधिनियम से सम्बद्ध हैं:
प्रेमनगर का मामला:
प्रेमनगर पांचवीं अनुसूची का गांव है जहां पर इफ्को ने बिजली सयंत्र लगाने की परियोजना शुरू करने के लिए गांव का चयन किया। गांव वालों ने इस परियोजना का विरोध किया। गांव वालों को समझाने के तमाम प्रयास किये गये। परियोजना का विरोध करने वालों को जेल तक भेजा गया जिसका हर तरफ से विरोध हुआ। अंत में इस परियोजना को ठंडे बस्ते में ड़ाल दिया गया। इस सयंत्र को स्थापित करने के लिए प्रशासन ने तरीके में बदलाव कर प्रेम नगर गांव को नगर पंचायत बना दिया। संविधान का अनुच्छेद 243 IX-1 के अधिकार अनुसूचित ग्रामसभाओं के अधिकार, नगरपालिकाओं पर लागू नहीं होते हैं।
ग्राम सभाओं को नगर पंचायत में शामिल करने का खेल पिछ्ले कई सालों से लगातार हो रहा है। छत्तीसगढ़ राज्य के इस असंवैधानिक कार्य को चुनौती देने के लिए गैर सरकारी संगठन “जनहित” प्रेमनगर के ग्रामीणों की मदद कर रहा है।
भारत जन आंदोलन के नेतृत्व में ग्राम चौक के आदिवासियों ने छतीसगढ सरकार के इस कदम का विरोध किया था, आदिवासियों के इस विरोध का कारण उनकी भूमि अनिवार्य रूप से साउथ ईस्ट कोलफील्ड्स लिमिटेड – एक सार्वजनिक क्षेत्र की खनन कम्पनी द्वारा ‘महान-2’ परियोजना के तहत खनन के लिए अधिग्रहण किया जाना था। इस जमीन का अधिग्रहण करते समय पेसा का उल्लंघन किया गया था। एसईसीएल ने मंजूरी प्राप्त करने के लिए एक ग्राम सभा की सहमति का झूठा प्रस्ताव प्रस्तुत किया। पास के गांवों के लगभग 5,000 आदिवासियों ने 26 दिसंबर 2009 को विरोध करने के लिए खनन कार्यालयों पर मार्च निकालने का फैसला किया ।
आदिवासी ग्रामीणों की आजीविका और पर्यावरण को धता बताते एसईसीएल ने खनन शुरु कर दिया है। कंपनी ने 6 आदिवासियों के खिलाफ 36 लाख रुपये 9 फ़ीसद ब्याज दर पर वसूली के लिए एक सिविल केस दायर किया है! “जनहित” एसईसीएल पर काउंटर केस कर रहा है।
आदिवासी भूमि के गैर-अलगाव के लिए प्रावधानों का उल्लंघन
छत्तीसगढ़ भू राजस्व संहिता धारा 170 (बी) के माध्यम से आदिवासियों की जमीन को गैर-आदिवासियों को हस्तांतरण पर रोक लगाती है। वास्तव में विभिन्न राज्यों में ऐसे कई प्रावधान, कानून, नियम हैं जो आदिवासी क्षेत्रों या आदिवासी स्वामित्व वाली भूमि पर लागू होते हैं।
“समता बनाम आंध्र प्रदेश” (एआईआर 1997 एससी 32/9/7) केस में अदालत ने अनुसूचित क्षेत्रों के सीमांकन की संवैधानिक योजना में आदिवासी भूमि के गैर-अलगाव की केन्द्रीयता को संवैधानिक दर्जा दिया। और सरकारी वन भूमि, आम भूमि का हस्तांतरण किसी राज्य इकाई या आदिवासी सदस्यों की सहकारी समितियों के अलावा सबको निषिद्ध किया। समता के फैसले को किसी बड़ी खंडपीठ ने उल्लेखित नहीं किया है, लेकिन कई छोटे / समांतर न्यायालयों ने आदेश पारित किया है।
जानकी सिदार का अजीब मामला:
रायगढ़ जिले में इस आदिवासी महिला के नाम पर जमीन के दो टुकड़े 2000 में मोनेट स्टील के नाम पर (नवीन जिंदल के भाई की कंपनी) धोखे से पंजीकृत कर दिया गया। यह जमीन जानकी सिदार और अमर सिंह नामक एक आदिवासी के नाम पर दर्ज है। इस तरह के मामलों में प्रशासन अघोषित रूप से इन कम्पनियों के एजेंट का काम करता है.
जब जानकी ने अपने साथ हुई धोखाधड़ी के लिए प्राथमिकी दर्ज की, तो वह भाग्यशाली थी कि उस समय शहर के पुलिस अधीक्षक “कंपनी का आदमी” नहीं था, इसलिए मोनेट स्टील के प्रबंधक- शुबेंदू डे और विभिन्न ‘भू-माफियाओं’ को जेल भेज दिया गया। लगभग 3 महीने पहले उन्हें जमानत मिल गई लेकिन पुलिस अधीक्षक को दंड स्वरुप बस्तर भेज दिया गया।
वर्ष 2011 में जानकी को धारा 121 बी के तहत फिर से आवेदन दर्ज कराने की अनुमति दी गई। मुआवजे और 10 साल की देरी के लिए राजस्व अधिकारियों के खिलाफ जांच का अनुरोध खारिज कर दिया गया। मुआवजे के लिए आवेदन फिर से दायर किया गया है।
जानकी सिदार का आरोप है कि पटवारियों से लेकर कलेक्टरों तक राज्य अधिकारियों ने उनके मामले में बहुत पैसा कमाया। सात वकीलों ने उन्हें बार-बार धोखा दिया।
हाल ही में राज्य के आदिवासी गृहमंत्री श्री ननकीराम कंवर को वीडियोकॉन कंपनी का बिजली संयंत्र स्थापित करने के लिए आदिवासियों की भूमि स्थानांतरित करने के आरोप में पकड़ा गया था। 1 नवंबर को छत्तीसगढ़ राज्य के “जन्मदिवस समारोह” के लिए विडियोकॉन ने अभिनेता सलमान खान को बुलाया जिसमें सलमान ने हाथ फहराते हुए दबंग के संवाद दोहराए। सलमान जब ऐसा कर रहे थे तो पूरा मंत्रिमंडल खड़ा हो गया। उन्होंने छत्तीसगढ़ के लोगों से वीडियोकॉन के साथ देने की अपील की।