लोकतांत्रिक मूल्यों की समझ का संकट

मौजूदा दौर के युवा कार्टूनिस्ट्स में सतीश आचार्य सबसे प्रभावी राजनैतिक व्यंगचित्रकार हैं, लेकिन महाराष्ट्र की नवगठित गठबंधन सरकार पर उनके बनाए कार्टून को देखकर बेहद निराशा हुई। ये समस्या सिर्फ़ उनकी नहीं पिछले एक दशक में लोकतंत्र को लेकर जिस तरह के नैरिटिव मीडिया और मौजूदा राजनीति द्वारा रचे गए हैं उससे लोकतंत्र की बुनियादी समझ को भी झुठलाया है।

गठबंधन सरकार ही लोकतंत्र का सही प्रतिरूप है

गठबंधन सरकार ही लोकतंत्र का सही प्रतिरूप होती हैं। क्योंकि गठबंधन सरकार द्वारा जनता द्वारा चुने गए कई राजनीतिक दलों को सरकार में अपने वर्ग, समुदाय और विचार का प्रतिनिधित्व मिलता है। जबकि बहुमत की सरकार दरअसल सत्ता में एक वर्ग और एक विचार का आधिपत्य है। ऐसी सरकार अपनी वैचारिकी और सांस्कृतिक वर्चस्व को हर वर्ग समुदाय और विचार पर थोपने के लिए निरंकुश और तानाशाही रुख़ अख्तियार करके लोकतंत्र का गला घोंट देता है। भारत के लोकतंत्र के संदर्भ में इसका डरावना इतिहास है और जीता जागता प्रमाण भी। देश केलोकतांत्रिक सत्ता में जब भी तानाशाही सत्ता आई है, एकदलीय बहुमतपर सवार होकर ही आई है।

1998 से लेकर 2003 तक में केंद्रीय सत्ता में उसी दल की सरकार थी जिसकी आज है लेकिन गर वो मौजूदा सत्ता की तरह अपने मंसूबे देश पर नहीं थोप पाई तो इसकी एक वजह यही थी कि वो एकदलीय बहुमत की सरकार नहीं थी। आज के संदर्भ में गर विचार करें तो क्या ये सरकार नोटबंदी जैसे आर्थिक आपातकाल और कश्मीरी आवाम को हाउस कस्टडी में रखने जैसे अलोकतांत्रिक और बर्बर मंसूबों को अंजाम दे पाती गर ये भी 1998-2003 की अटल बिहारी सरकार की तरह गठबंधन सरकार होती?

गठबंधन सरकार के बरअक्श लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास

आजादी के बाद भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था पर लगभग एक ही पार्टी का वर्चस्व था। कांग्रेस पार्टी ने लगभग दो दशक तक भारतीय राजनीतिक मंच पर अपना एकाधिकार बनाए रखा। कांग्रेस विरोधी यानि विपिक्षी दलों ने यह पाया कि उनकी सत्ता बँट जाने के कारण ही कांग्रेस सत्तासीन है। 1967 के चौथे आम चुनाव (लोकसभा और विधानसभा) मं कांग्रेस पहली बार नेहरु के बिना मतदाताओं का सामना कर रही थी। इंदिरा गाँधी मंत्रिमंडल के आधे मंत्री चुनाव हार गये। यही वह समय रहा जब गठबंधन की परिघटना भारतीय राजनीति में प्रकट हुई।

भारत में गठबंधन की राजनीति की शुरुआत एक क्रमिक विकास की प्रक्रिया के अंतर्गत हुआ है। इसकी शुरुआत देश के आजाद होने से लेकर विकास की सीढ़ियों तक चढ़ने के इतिहास में देखा जा सकता है। साथ ही धीरे-धेरे आम जनता व लोगों में जागरूकता से भारतीय राजनीतिक परिस्थतियों ने अपनी दशा और दिशा तय की। कहीं न कहीं ये गठबंधन की राजनीति की ही देन है जिसमें कई मुद्दे व चेतनाओं को लोगों के समक्ष रखा। निःसंदेह गठबंधन की राजनीति ने देश की राजनीति और समाज में महत्त्वपूर्ण सकारत्मक सुधार लाये हैं।

गठबंधन की राजनीति की ही देन है कि लोग लैंगिक, जातीय, वर्गीय और क्षेत्रीय सन्दर्भ में सामाजिक न्याय तथा लोकतंत्र के मुद्दे उठा रहे हैं।गठबंधन की राजनीति के माध्यम से जहाँ कई क्षेत्रीय पार्टियाँ अस्तित्व में आयीं, वहीं कई राष्ट्रीय पार्टियों ने कालांतर से दबी सामाजिक समस्याओं को उभारकर राजनीति का मुद्दा बनाया। बसपा ने दलित उत्थान, अन्य पार्टियों ने पिछड़ी जातियों के राजनीतिक और सामाजिक दावे की बात छेड़ी। “आरक्षण” का मुद्दा जो इस पिछड़ेपन की समस्या के समाधान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, इसी समीकरण की देन है। कई पार्टियों ने महिला घरेलू हिंसा, बाल अधिकार, शिक्षा के अधिकार जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों को भारतीय राजनीति का हिस्सा बनाया।

गठबंधन युग के पहले एक दल के ही मुद्दे राष्ट्रीय मुद्दे पर हावी रहते थे। लेकिन गठबंधन के कारण अब कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे राष्ट्र के समक्ष न मात्र लाये जाते हैं बल्कि उन पर वाद-विवाद की भी पहल की जाती है।  भ्रष्टाचार को लेकर, अल्पसंख्यकों से जुड़े मुद्दे या कई परमाणु परियोजनाओं पर ऐसे विवाद होते रहे हैं।गठबंधन राजनीति ने लोकतांत्रिक सहमति की राजनीति को जन्म दिया। यह सहमति कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर देश के वर्तमान विकास के लिए लाभकारी रही। इन मुद्दों में आर्थिक नीतियों के प्रति समन्वय व तालमेल सबसे महत्त्वपूर्ण रहा।

गठबंधन की राजनीति ने भारत को अधिक संघात्मक बनाया

गठबंधन सरकार से संघीय ढांचे की परिकल्पना साकार होती है। गठबंधन सरकार के फैसले और नीतियाँ दरअसल जनता के हर वर्ग की आम सहमति पर आधारित होतें है जबकि एकदलीय व बहुमत सरकार के फैसले आम सहमति के विपरीत तानाशाही प्रवृत्ति के होते हैं। एक बार फिर नोटबंदी, जीएसटी, देश पर युद्ध थोपने और कश्मीर में मॉस कस्टडी को याद कर लीजिए।

एकदलीय बहुमत की सरकार की तरफदारी करते हुए दो दलीलें जो सबसे ज़यादा दी जाती हैं उनमें से एक है कि मजबूत सरकार ही मजबूत और सख़्त फैसले ले सकती है। तो एक बात यहां समझ लेनी चाहिए कि मजबूत और सख्त फैसले वहीं होगें जो जन-विरोधी होगें। जनहित के फैसले कभी भी गठबंधन सरकार की राह के रोड़े नहीं बनते। मनरेगा जैसे जनकल्याणी कारी और विशाल योजना गठबंधन सरकार की ही देन है। सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, खाद्य सुरक्षा अधिनियम, भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास कानून और वन अधिकार अधिनियम जैसे जनहितकारी कानून भी गठबंधन सरकार के समय बने। जबकि एकदलीय बहुमत की मौजूदा सरकार नेइन कानूनों में संशोधन करके इन्हें लगभग निष्प्रभावी बना दिया है।

बहुमत सरकार के पक्ष में दूसरी दलील लोग ये देते हैं कि गठबंधन सरकारें अस्थायी होती हैं जिससे विकास काम और जनकल्याणकारी परियोजनाएं बाधित होती हैं। लेकिन अगर हम अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली एनडीए के साढ़े चार साल और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग (1 व 2) की 10 साल चली सरकार को देखें तो गठबंधन सरकारों को अस्थायी कहकर खारिज करने वालों के दावे निर्मूल साबित हो जाते हैं। जबकि कई राज्यों में भी गठबंधन की सरकारों ने भी अपने अपने कार्यकाल पूरे किए हैं।

न सिर्फ क्षेत्रीय पार्टियों के उदय व उनकी प्रगति से ऐसे कार्य हुए हैं जिनसे भारतीय संघ मजबूत होता है बल्कि अब ऐसे विवाद कम ही देखे जाते हैं जहाँ केंद्र की सरकार राज्य की सरकारों पर अनुचित दबाव और गैर-संवैधानिक हस्तक्षेप करें। गठबंधन को साथ लेकर चलना, कार्यसिद्धि पर अधिक जोर कहीं-न-कहीं राजनीतिक दलों की सोच को परिपक्व बनाने का कार्य कर रहा है।

मजबूत नेता लोकतंत्र को कमजोर कर देता है

“नेहरू को इतना मजबूत न होने दो कि वो सीजर हो जाए”- ये वाक्य पाठकों को नेहरू के तानाशाही रवैये के खिलाफ चेताते हुए खुद नेहरू ने चाणक्य के छद्मनाम से ‘द राष्ट्रपति’ नामक लेख में लिखा था।जबकि इसके ठीक उलट पिछले एक दशक से लगातार मजबूत नेता का नैरेटिव देश में सेट करने की कवायद लगातार होती रही है। 2009 के लोकसभा चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के बरअक्श लालकृष्ण आडवाणी की आयरन मैन की इमेज गढ़ी गई। लेकिन 2009 लोकसभा चुनाव में मुँह की खाने के बाद भाजपा ने 2014 में फिर मैस्कुलिन नेता का राग अलापा और कई तरह के नारों जैसे कि छप्पन इंची सीना, एक बदले दस सिर लाएंगे, के जरिए इसे जनता के दिमाग में आरोपित कर दिया। मैस्कुलिन नेता सत्ता के शीर्ष पर काबिज हुआ तो देश में 5 वर्ष स्त्री यौन उत्पीड़न, सैनिकों की मौत और कमजोर अल्पसंख्यक तबके और समाजिक रूप से पिछड़े दलित पिछड़े वर्ग के लोगों का बर्बरतापूर्ण दमन ही होता रहा।

2019 के लोकसभा चुनाव में सैनिकों का राजनीतिक इस्तेमाल के जरिए एक बार फिर मजबूत नेता और मजबूत सरकार की बात को जोर शोर से लोगों के दिमाग में बिठाई जाने लगी। इसके तहत प्रधानमंत्री मोदी को राष्ट्र बना दिया गया और उनकी आलोचना को लोकतंत्र के दायरे से निकालकर राष्ट्रद्रोह साबित किया जाने लगा। मोदी की जीत को राष्ट्र की जीत जबकि मोदी की चुनावी हार को राष्ट्र की हार और पाकिस्तान की जीत बताकर लोगों का डराया जाने लगा।

लोक-गायकों ने तानाशाही को महिमामंडित करके उसकी जमीन बनाई

बालेश्वर, हैदर अली जुगनू और इंदिरा श्रीवास्तव जैसे लोकगायक/गायिकाएं जिनके कंधे पर लोकगीतों के जरिए लोकतंत्र की सही तस्वीर को लोगों के सामने रखना उन लोगों ने राजनीतिक चेतना और लोकतंत्र की सही समझ न होने के चलते लोकतंत्र और संविधान विरोधी दक्षिणपंथ फासीवाद और मानवता के शत्रु हिटलर को लोक के बीच में महिमा-मंडित करके पेश किया है।

‘राजीव गांधी हत्याकांड’ बिरहा में हैदरअली जुगनू कहते हैं- ‘चाहे मिले हिटलरशाही, लेकिन मिली-जुली सरकार न मिले’, वहीं बलेश्वर गाते हैं कि ‘मिले हिटलरशाही पर चमचों भरा दरबार न मिले’।

अवधी की लब्ध-प्रतिष्ठ लोकगायिका इंदिरा श्रीवास्तव का खुलकर मानवता के दुश्मनका गुणगान करती हैं- “मोदी मोदी सबै गुहारें, उनके पाछे गुनिजन जावें, रामराज जस लागे दिखाई यही भारत में।”

सवाल उठता है कि मिलीजुली (गठबंधन) सरकार से इस देश के लोकगायकों इतनी तकलीफ क्यों है?उसका एक कारण यही है कि लोगो में लोकतांत्रिक समझ का विकास उस तरह से नहीं हुआ है। और जो कुछ थोड़ा बहुत हुआ भी था उसे पिछले दस साल के एजेंडाबद्ध पोलिटिकल नैरेटिव ने मेट दिया है।

एक बार नेहरू से किसी ने पूछा कि भारत के लिए उनकी विरासत क्या होगी, तो उन्होंने उत्तर दिया कि, “यकीनन स्वयं पर शासन करने में सक्षम चालीस करोड़ लोग।” ये लोकतंत्र पर नेहरू का दृढ़विश्वास ही था। हमें जनता के रूप में ये समझना होगा कि लोकतंत्र और देश की मजबूती मतदाताओं के जागरुक, विवेकशील और अधिकार चेतस होने से है क्योंकि लोकतंत्र में जनता महत्वपूर्ण है, मजबूत नेता और मजबूत सरकार नहीं।


लेखक युवा पत्रकार और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। 

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