*प्रथमदृष्टया का अर्थ न समझने की उलझन*
विष्णु राजगढ़िया दरअसल हिंदी पट्टी की सामाजिक राजनीतिक चेतना में प्रखरता तो दिखती है, लेकिन कई बुनियादी अवधारणाओं का अभाव विनाशकारी है। ऐसी एक प्रमुख कमी है- प्राइमाफेसी या प्रथमदृष्टया की समझ। कई मामलों में यह देखा गया है कि प्राइमाफेसी नहीं बनने के बावजूद बतंगड़ हो जाता है। इसी प्रवृति के लिए हिंदी का प्रसिद्ध मुहावरा भी है- “कौवे के पीछे मत भागो, पहले अपना कान देखो।” श्री काशीनाथ सिंह के नाम पर यह फर्जी पत्र फेसबुक पर कई गंभीर लोगों ने शेयर किया। ‘जनज्वार’ में आई रिपोर्ट के अनुसार- “काशीनाथ सिंह ने कहा कि एक वाट्सअप मैसेज को मेरे नाम पर सर्कुलेट किया जा रहा है। किसी ने बदमाशी की है। मैंने कभी नहीं लिखा प्रधानमंत्री के नाम कोई पत्र।” रिपोर्ट के अनुसार, काशीनाथ सिंह कहते हैं- “तीन-चार दिन पहले मुझे किसी ने यह मैसेज वाट्सअप पर भेजा था। मैंने दो-तीन लोगों को फारवर्ड कर दिया था। इनसे भ्रम हुआ होगा।” काशीनाथ जी के इस स्पष्टीकरण के साथ ही यह प्रसंग खत्म हो जाना चाहिए था। अगर कुछ करना भी होता, तो उन लोगों की तलाश करनी चाहिए थी, जिन्होंने भ्रमवश या शरारत में इसे उनके पत्र के तौर पर प्रचारित किया। लेकिन हैरानी की बात यह है कि प्रथमदृष्टया यह प्रसंग समाप्त होने के बावजूद इसे अलग दिशा देकर काशीनाथ जी के खिलाफ अपमानजनक अभियान चलाया गया। यह भी एक उन्माद है जिसमें सच और विवेक की गुंजाइश कम है, भावनाओं और सदिच्छाओं का अतिरेक ज्यादा। यह भी एक किस्म की मॉब लिंचिंग है। बेबसाइट ‘हस्तक्षेप’ में पलाश विश्वास ने पूछा- “क्यों तमाम आदरणीय सत्ता के खिलाफ खड़ा होने से हिचकिचाते हैं।” पलाश विश्वास लिखते हैं- “भले ही पत्र किसी ने शरारत से जारी किया हो, मुद्दा सही है और हमें उम्मीद थी कि काशीनाथ सिंह इस पर अपना पक्ष जरुर रखेंगे। ऐसा हुआ नहीं है। उनकी रचनाओं में हम जिस काशीनाथ सिंह को पाते हैं, वह काशी के अस्सीघाट में कहीं तितिर बितर हो जाता है।” यह बात हैरान करने वाली है कि शरारत में पत्र जारी होने की बात को हिंदी लेखक इतनी मामूली बात के तौर पर पेश कर रहा है। ऐसे किसी पत्र पर किसी भी व्यक्ति का सिर्फ यह कहना पर्याप्त है कि यह मैंने नहीं लिखा। इसी तरह, गोपाल राठी लिखते हैं- “पत्र काशीनाथ जी ने नहीं लिखा, फिर भी बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित करता है। दोस्तो, अब कवि, लेखकों साहित्यकारों को डिस्टर्ब करना ठीक नहीं है। कोई मोदी से पंगा मोल नहीं लेना चाहता। सब सयाने जानते हैं कि ये इतनी जल्दी नहीं जाएगा। इसलिए नाहक क्रांतिकारिता दिखाने का कोई मतलब नहीं। गोपाल राठी ने भी फेसबुक पर यह फर्जी पत्र शेयर कर रखा है। हैरानी की बात यह है कि पत्र के नीचे उन्होंने टिप्पणी की है- “यह पत्र काशीनाथ जी के नाम से जारी हुआ था। बाद में उन्होंने इसका खंडन कर दिया।” इस टिप्पणी में ही स्पष्ट है कि यह काशीनाथ जी ने स्वयं जारी नहीं किया। तब खंडन के साथ “बाद में” लिखने का क्या मतलब? और जब संबंधित व्यक्ति ने खंडन कर दिया हो, तब भी उसे फेसबुक में लगाए रखकर भ्रम बढ़ाने का क्या औचित्य? गोपाल राठी के इस फेसबुक पोस्ट में सृजन शिल्पी ने पत्र के फर्जी होने की बात बताई। लेकिन इसे हल्के लेकर गोपाल राठी लिखते हैं- “चलिए, इस पोस्ट से काशीनाथ जी का नाम विलोपित कर लीजिये। लेकिन जो मुद्दे हैं, वह यथावत रहेंगे। उस पर चर्चा करो। भक्तों, यहां वहां की बात मत करो। तुम्हारे सीएम रमण सिंह और उनके बेटे का नाम है पनामा में।” अब देखिए, जिस ‘सृजन शिल्पी’ ने पत्र के फर्जी होने की एक सामान्य सूचना दी, उसे भक्त करार देने और रमण सिंह का आदमी बताने से क्या हासिल कर लेंगे आप? फिर जब आप कहते हैं कि पत्र से काशीनाथ जी का नाम विलोपित करके मुद्दों पर चर्चा करें, तो आप खुद ही विलोपित कर दें उनका नाम। मुद्दों पर चर्चा होने लगेगी। जाहिर है कि सोशल मीडिया के दुरुपयोग का यह एक दुखद प्रसंग है। इससे यह भी पता चलता है कि हम हिंदी के अपने लेखकों के साथ कैसा सलूक करते हैं। ‘अपना मोर्चा’ जैसी अमर कृति के लेखक के साथ लिंचिंग की यह त्रासद विडंबना है। किसी अंग्रेजी लेखक के साथ शायद ही कोई ऐसा क्रूर व्यवहार करे। अस्सी वर्ष के एक लेखक से आप ऐसा कोई पत्र लिखने का आग्रह कर सकते हैं। लेकिन जो उसने लिखा ही नहीं, उसे उसके नाम से जारी करके लेखक द्वारा उसे अपना मान लेने उम्मीद हास्यास्पद है। जिन्हें लगता हो कि काशीनाथ जी इस फर्जी पत्र को अपना मान लें, वैसे लोगों द्वारा विभिन्न लोगों के नाम जारी कुछ पत्र मैं पेश कर सकता हूँ। फिर देखिए उनका क्या जवाब आता है! (लेखक चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता हैं। राँची में रहते हैं।) |