रामायन राम
कांशी राम ने दलितों को जितना संगठित किया उससे कहीं ज्यादा उन्हें अंदर से कमजोर और रक्षात्मक बना दिया! दलित राजनीति को व्यक्ति केंद्रित, पर्सनालिटी कल्ट पर निर्भर बना कर दलितों को मसीहाई के भरोसे छोड़ दिया।इसीलिए गरीब दलित अपने ऊपर होने वाले अत्याचार के खिलाफ तन कर खड़ा होने के बजाय अपने मसीहाओं के सत्ता में आने का इंतज़ार करता है।और दलित के अमीर मध्यवर्ग को सत्ता का ऐसा चस्का है कि अब वह आर एस एस- बीजेपी की शरण मे जाने से हिचकिचाता नही है।
निःसंदेह कांशीराम को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने कम से कम उत्तर प्रदेश में दलितों को स्वतन्त्र राजनैतिक शक्ति बना दिया। लेकिन इस शक्ति का इस्तेमाल सौदेबाज़ी के लिए हुआ बदलाव के लिए नहीं ! मैं ऐसा इसलिए बोल रहा हूं कि आज की परिस्थिति में उत्तर प्रदेश का बहुजन आंदोलन कहां खड़ा है।आज ऐसा लग रहा है जैसे उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति और संगठन का कोई वजूद ही नही है।आज चौतरफा सामंती मनुवादी हमले के दौर में बहुजन दलित समाज असंगठित और लाचार स्थिति में खड़ा है।आज दलित उत्पीड़न के खिलाफ कोई ‘भीम गर्जना’ सुनाई नहीं देती। और जो दलित नवजवान डट कर सामने आते हैं कांशीराम की पार्टी उनके साथ खडे होना तो दूर उनको राजनैतिक दुश्मन बताती है।
यह समय दलित आंदोलन को फिर से संगठित करने का है। इस समय दोस्त और दुश्मन की पहचान साफ साफ होनी चाहिए। व्यक्तिगत अहम और व्यक्ति पूजा से आगे निकल कर संघर्ष करने वाली ताकतों को साथ लेना होगा। जाति उन्मूलन का प्राथमिक लक्ष्य होना चाहिए। आज सत्ता के ‘मास्टर की’ के सिद्धांत की सीमाएं उजागर हो चुकी हैं। व्यवस्था परिवर्तन ही दलित मुक्ति का रास्ता हो सकता है।इसलिए दलित आंदोलन को रेडिकल होना पड़ेगा।
कांशी राम ने भारतीय समाज की विसंगतियों और विडंबनाओं को ठीक समझा था।जब उन्होंने कलम को लंबवत से क्षैतिज घुमाते हुए भारतीय समाज की व्यख्या की थी तो उन्होंने सही जगह उंगली रखी थी।लेकिन सोपनवत क्रम में जड़ रूप में बंधे हुए समाज को क्षैतिज बनाने की जो प्रक्रिया और निदान उन्होंने सुझाया उसने कोई नया बदलाव लाने की जगह एडजस्टमेंट भर किया और समाज आज भी उसी सोपानवत क्रम में खड़ा है।।
इसलिए आज जहां दलित आंदोलन खड़ा है वहां से वाम दिशा में तीखा घुमाव लेने की जरूरत है !