कांशीराम की पुण्यतिथि 9 अक्टूबर पर विशेष–
सत्येंद्र पीएस
लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन का हाल ही में एक बयान आया। उन्होंने कहा, “अंबेडकर ने स्वयं कहा था कि आरक्षण केवल 10 वर्षों के लिए आवश्यक है और उन्होंने 10 वर्षों के भीतर समान विकास की कल्पना की थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यहाँ तक कि संसद में मौजूद लोगों ने आरक्षण बढ़ाना जारी रखा।”
कांशीराम ने जिस घटिया तरीके पर उतरने की बात कही थी, महाजन का यह बयान उसका जीता जागता उदाहरण है। आइए, जानते हैं कि 10 साल के लिए आरक्षण का क्या खेल है।
अंग्रेजों ने ‘सांप्रदायिक निर्णय’ (Communal Award) से अछूतों को दो लाभ दिए थे-
- ऐसी सीटों का एक निर्धारित हिस्सा, कोटा जो अछूतों के पृथक निर्वाचक मंडल द्वारा चुनी जाएँगी तथा सिर्फ अछूतों से संबंधित लोगों द्वारा भरी जाएँगी।
- 2- दो वोटों का अधिकार, जिसमें एक वोट का प्रयोग पृथक मतदान में होगा औऱ दूसरे वोट का इस्तेमाल सामान्य मतदान में होगा।
उस दौर में मोहनदास करमचंद गांधी इसके खिलाफ हो गए। उन्होंने अनशन कर दिया और कहा कि अगर ऐसा होता है तो यह गलत होगा। गांधी जान देने पर उतारू हो गए और देश के विभिन्न इलाकों में दलितों पर अत्याचार की खबरें आने लगीं। इसे देखते हुए भीमराव अंबेडकर ने पूना पैक्ट किया, जिसमें दलितों के लिए उनकी आबादी के हिसाब से लोकसभा और विधानसभा में आरक्षण कर दिया गया।
अंग्रेजों की बनाई व्यवस्था में यह लाभ था कि दलितों को एक निश्चित संख्या में अपना प्रतिनिधि चुनकर संसद में भेजना था। उसके अलावा जो सामान्य सीटें थीं, उन पर भी उन्हें वोटिंग करने का हक था। आप इसे इस तरह समझ सकते हैं कि जैसे उत्तर प्रदेश में स्नातक तक पढ़े लोग अलग से अपना प्रतिनिधि विधानसभा के लिए चुनते हैं। इसमें फायदा यह होता कि जो भी दलित तबके के लोग चुने जाते, वह लोकसभा और विधानसभा में दलितों के हित की बात उठाते और दलित भी उसी को अपना नेता बनाते, जो उनके हक की बात संसद में बहुत जोरदार तरीके से उठाने में सक्षम दिखते।
गांधी ने आमरण अनशन कर पूना पैक्ट कराया। सांप्रदायिक निर्णय की जगह आरक्षण की व्यवस्था लागू करा दी। लेकिन विधानसभा और लोकसभा में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण हो जाने से वह व्यक्ति सदन में पहुँच पाता है, जो दलितों का जमकर विरोध करता है। दलितों की तुलना में पाँच गुना आबादी गैर दलितों की होती है। वह उसी व्यक्ति को सांसद या विधायक चुनती है, जो दलितों का विरोध करे और गैर दलितों का चमचा हो।
सुमित्रा महाजन चितपावन ब्राह्मण हैं। यह ब्राह्मण की वही किस्म है, जिसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। वही चितपावन, जो मराठों की की सत्ता कमजोर पड़ने पर पेशवा के रूप में प्रभावी हुए थे और यह प्रावधान किया था कि अछूत गले में मटकी और कमर में झाड़ू लटकाकर चलें। सड़क पर चलते समय वे मटकी में थूकें और जहां उनके कदम पड़ें, वह कमर में बंधे झाड़ू से साफ होता चले, जिससे उन सड़कों पर चलने वाले उच्च जातियों के लोग अपवित्र न होने पाएँ।
महाजन मध्य प्रदेश के इंदौर लोकसभा सीट से 1989 से लगातार भारतीय जनता पार्टी की सांसद चुनी जा रही हैं। वह केंद्रीय संचार राज्य मंत्री, केंद्रीय मानव संसाधन राज्य मंत्री, केंद्रीय पेट्रोलियम राज्य मंत्री रह चुकी हैं। हर दस साल में एक बार लोकसभा और विधानसभा में दलितों को आरक्षण देने का विधेयक लोकसभा में पारित कराया जाता है और उसमें महाजन भी वोट करती हैं। उन्होंने इंदौर विश्वविद्यालय से एलएलबी और एमए की पढ़ाई की है। इन सब वजहों से उन्हें पता है कि किस आरक्षण को 10 साल के लिए लागू किया गया था। उन्हें यह भी पता था कि अंबेडकर चाहते ही नहीं थे कि यह आरक्षण लागू हो और पूना पैक्ट के माध्यम से यह आरक्षण दलितों पर थोपा गया है।
इसी को लेकर कांशीराम ने चमचा युग नाम की पुस्तक लिखी थी। अंबेडकर से लेकर कांशीराम और मायावती तक कोई भी नहीं चाहता कि यह आरक्षण रहे। लेकिन सवर्ण तबका अपने हित में यह आरक्षण बनाए हुए है, जिससे चमचे के रूप में उन्हें दलित नेता मिलते रहें।
कांशीराम का यह कथन आज के विकट दौर में सही साबित हो रहा है, जब देश भर में दलितों की पिटाई हो रही है। मॉब लिंचिंग हो रही है। एक घटना का बहाना बनाकर गुजरात में गरीब गुरबों के ठेले पलटे जा रहे हैं और उन्हें मार मारकर भगाया जा रहा है। दलितों और पिछड़ों को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण क्या मिल गया, उतने से ही सवर्ण तबका बौखला गया है। महाजन को समाज के सभी वर्ग ने चुना है, स्वाभाविक है कि उन्हें सभी का प्रतिनिधित्व करना चाहिए। लेकिन महाजन अपनी जाति के हित में आरक्षण के खिलाफ लोगों को भड़का रही हैं। वह नहीं बतातीं कि सदन में जिस आरक्षण को वह हर 10 साल पर बढ़वाने के लिए वोटिंग करती हैं, उस आरक्षण को अंबेडकर चाहते ही नहीं थे। वह जबरी थोपा हुआ आरक्षण है। दरअसल महाजन अपनी जाति के हित में सरकारी स्कूलों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का विरोध 10 साल के आरक्षण के बहाने करना चाहती हैं। वह थोड़ा सा स्पेस भी दलितों को नहीं देना चाहती हैं, जिसकी तरफ कांशीराम ने इशारा किया था।
सवर्णों को चमचे की जरूरत क्यों पड़ती है, उस पर काशीराम लिखते हैं-
“कोई औजार, दलाल, पिछलग्गू अथवा चमचा इसलिए बनाया जाता है ताकि उससे सच्चे और वास्तविक संघर्षकर्ता का विरोध कराया जा सके। चमचों की माँग तभी होती है, जब सामने सच्चा और वास्तविक संघर्षकर्ता मौजूद हो। जब किसी लड़ने वाले की ओर से किसी प्रकार की कोई लड़ाई न हो, संघर्ष न हो और कोई खतरा न हो तो चमचों की माँग भी नहीं रहती।”
संयुक्त निर्वाचन मंडल की व्यवस्था की तुलना में पूना पैक्ट के माध्यम से दोगुनी सीटें दलितों को दी गईं। कांशीराम के मुताबिक महात्मा गांधी संयुक्त निर्वाचन मंडल के एक सच्चे और वास्तविक प्रतिनिधि के बदले में दो चमचे देने के लिए सहमत हो गए और इस तरह से 24 सितंबर 1932 के पूना पैक्ट के माध्यम से चमचा युग की शुरुआत हुई।
कांशीराम ने ‘चमचा युग’ के दुष्परिणामों से लोगों को आगाह किया है। काशीराम ने साफ कहा है कि चमचों के माध्यम से समाज के वंचित तबके के स्वतंत्र आंदोलनों को कुचलने की कवायद की जाती है, जिससे कि उनके हकों की लड़ाई न लड़ी जा सके।
(सत्येंद्र पीएस वरिष्ठ पत्रकार हैं। हाल ही में ‘मंडल कमीशन’ पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसकी बड़ी चर्चा है। )