मनदीप पुनिया / कैराना से लौटकर
कैराना उपचुनाव के नतीजे हम सभी के सामने हैं। बीजेपी की मृगांका सिंह हार गई हैं। विपक्ष की प्रत्याशी तबस्सुम हसन 55000 से ज्यादा मतों से विजयी रही हैं। इन नतीजों से एक बात तो साफ हो चुकी है कि खेती-बाड़ी के मुद्दों के आगे भाजपा का हिंदुत्व वाला कार्ड औंधे मुंह गिर गया है। इस उपचुनाव में भाजपा की उम्मीदवार मृगांका सिंह के लिए योगी ने चुनावी रैली में मुज़फ्फरनगर के दंगों से लेकर कैराना के पलायन का जिक्र किया, तो दूसरी तरफ रालोद के जयंत सिंह अपनी उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार करते वक़्त गन्ने और साम्प्रदायिक सौहार्द की बात कर रहे थे।
वोटिंग वाले दिन ईवीएम मशीनों के खराब होने की लगातार शिकायतें आई थीं जो रालोद के नेताओं का चिंता का कारण भी बन गई थी, जिसके बाद उन्होंने चुनाव आयोग से मुलाकात कर दोबारा चुनाव करने की मांग भी की थी। 73 बूथों पर 30 मई को दोबारा चुनाव करवाया गया था। इन सब घटनाओं के बीच ईवीएम टेंपरिंग वाला मुद्दा फिर से ताज़ा हो गया था। वरिष्ठ पत्रकारों के साथ-साथ विपक्ष के नेताओं ने इन सब गड़बड़ियों पर चिंता जाहिर की थी।
इस चुनाव को अजीत सिंह की राजनीति का फाइनल भी कहा जा रहा था, लेकिन हमें ये चुनाव अजीत सिंह का फाइनल नहीं बल्कि उनके बेटे की सियासी पारी की शुरुआत नज़र आया। जयंत ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के युवाओं में ठीक-ठाक पकड़ भी बना ली है। इस चुनाव के बाद तबस्सुम हसन भी एक महत्वपूर्ण भूमिका में आ गई हैं। पहले उनकी छवि कैसी भी रही हो, लेकिन इस चुनाव के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मुसलमान उन्हें अपने नेता के तौर पर देख रहा है। इस चुनाव में दलितों के नेता के रूप में चंद्रशेखर रावण भी स्थापित हो चुका है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दलितों ने अब चंद्रशेखर को अपने नेता के रूप में देखना शुरू कर दिया है। जब हम दलितों से बात कर रहे थे तो ज्यादातर दलित चंद्रशेखर की गिरफ्तारी को लेकर भाजपा से बहुत ज्यादा गुस्सा थे। दलित साफ कह रहे थे कि वे चंद्रशेखर के जयंत को समर्थन देने के कारण ही रालोद की प्रत्याशी को वोट कर रहे हैं। अब भाजपा के संजीव बालयान और सुरेश राणा को अपनी खिसकती जमीन के बारे में सोचना शुरू कर देना चाहिए।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान आर्थिक पूंजी में बेशक कमजोर हों लेकिन सामाजिक पूंजी के मामले में ये ग्रामीण किसान पहली कतार के खिलाड़ी हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि इनका दबदबा सिर्फ गांव ही नहीं शहर के दूसरे कामकाजी समुदायों पर भी है। जब हम शामली शहर के बाजार में घूम रहे थे तो बहुत सारी दुकानों पर रालोद के झंडे लहरा रहे थे। इनमें ज्यादातर ऐसी दुकानें थी जिन पर यहां का देहात समान खरीदने आता है। शामली मार्किट में हार्डवेयर की दुकान चलाने वाले बिसन गर्ग से जब हमने उनकी दुकान पर रालोद का झंडा लगे होने की बात पूछी थी तो उन्होंने साफ कहा था, ‘यहां के किसान-मजदूर मेरे ग्राहक हैं और अगर उनके पास ही पैसा नहीं होगा तो मेरी दुकान क्या खाक चलेगी। और दूसरी बात अगर उनको पता लग गया कि मैं भाजपा को वोट देने वाला हूं तो मेरी दुकान की तरफ थूकेंगे भी नहीं। कुछ भी हो जाए हमें इन किसानों के साथ ही खड़ा रहना पड़ेगा।’
शहर में भाजपा मज़बूत जरूर थी लेकिन देहाती पार्टी के ठप्पे वाली रालोद शहर और कस्बों में भाजपा से ज्यादा पीछे नहीं थी। किसान जातियों में सिर्फ हिन्दू गुज्जरों को छोड़ दें तो लगभग सभी ने भाजपा के खिलाफ वोट डाला है। ग्रामीण मज़दूर भी इस चुनाव में किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े थे। जब हम खेतों में काम कर रहे मज़दूरों से बातचीत कर रहे थे तो सभी का यही कहना था कि जब खेत के मालिक को ही गन्ने की पेमेंट नहीं मिलेगी तो वो हमें मज़दूरी कहाँ से देंगे, लेकिन मज़दूरों की ही शहरी जमात भाजपा के पक्ष में थी।
भाजपा की हार के बाद जब एक स्थानीय भाजपा नेता से हमारी हुई तो उनका कहना था, ‘मीडिया वालों मेरा नाम तो लिखना मत। मुस्लिम और दलितों का भाजपा के खिलाफ गुस्सा साफ दिख रहा था पर जाटों से इतने बड़ी मुखालफ़त की उम्मीद नहीं थी। मैं तुम्हें एक मोटी सी बात बता देता हूं कि हमें लग रहा था कि सारे जाट हमसे गुस्सा नहीं है। मुझे 50 प्रतिशत जाटों की वोट भाजपा को मिलने की उम्मीद थी, लेकिन सिर्फ 20-25 प्रतिशत जाटों ने ही हमें वोट दी है।’
अगर मोटा-मोटा देखा जाए तो मुस्लिम, जाट और दलित समुदाय का सियासी गठजोड़ अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तैयार हो चुका है जो भाजपा को 2019 के आने वाले चुनाव में भी तंग करने वाला है।