“जिस पांव के नीचे गरदन दबी हो उसे सहलाना ही समझदारी है!”

जितेन्द्र कुमार

सर्वोच्च न्यायपालिका और सरकार के बीच की खींचातानी का सबसे वीभत्स रूप उसी दिन सबके सामने आ गया था जब प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा से दो कार्यकाल पहले प्रधान न्यायाधीश रहे जस्टिस टी एस ठाकुर सार्वजनिक रूप से प्रधानसेवक मोदी के सामने यह कहते हुए फफक पड़े थे कि हमारे पास जजों की भारी कमी है और सरकार हमें जज मुहैया नहीं करा रही है। यह सरकार और सर्वोच्च न्यायपालिका के बीच का लंबे अंतराल में सबसे खटास भरा दृश्य था। इस घटना पर वहां बैठे प्रधानसेवक ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, बल्कि उनके शूरवीर कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बाद में बताया कि सरकार प्रधान न्यायाधीश की बात पर ‘गंभीरतापूर्वक’ विचार करेगी। इसका परिणाम क्या हुआ, यह आज तक देखने को नहीं मिला। जस्टिस ठाकुर के बाद प्रधान न्यायाधीश बने जस्टिस खेहर भी रिटायर हो गए लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात ही रहा। 

इस साल 10 जनवरी को पांच सदस्यीय कॉलेजियम ने दो नामों की सिफारिश की- एक इंदू मल्होत्रा और दूसरा उत्तराखंड हाइकोर्ट के चीफ जस्टिस के एम जोसेफ। सरकार साढ़े तीन महीने से अधिक समय तक फाइल पर बैठी रही और अब जाकर इंदू मल्होत्रा के नाम को सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में स्वीकार किया जबकि जोसेफ के नाम पर आपत्ति दर्ज कराते हुए दीपक मिश्रा को वापस भेज दिया। सरकार के उस निर्णय को मिश्रा जी ने मान भी लिया और कहा कि सरकार के पास ‘ना’ कहने का अधिकार है। 

अब सारा पेंच यहीं फंस रहा है और बहस भी यहीं से शुरू होती है।

कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा को लिखे अपने लंबे जबाब में जस्टिस जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त न करने के कई तर्क गिनाए हैं। कानून मंत्री का कहना है कि चूंकि वे हाइकोर्ट के चीफ जस्टिसों में वरिष्ठता के हिसाब से 12वें नबंर पर आते हैं, इसलिए उन्हें नियुक्त करना ठीक नहीं होगा। दूसरा कारण सरकार ने यह गिनाया है कि चूंकि वह केरल हाइकोर्ट के हैं जहां से पहले ही बहुतायत में सुप्रीम कोर्ट में जज मौजूद हैं जबकि अन्य कई हाइकोर्ट से एक भी जज नहीं है, इसलिए भी यह काफी मुश्किल है। तीसरा कारण यह है कि सु्प्रीम कोर्ट में लंबे समय से एससी/ एसटी का कोई जज मौजूद नहीं है, इसलिए भी उनके बारे में सोचना मुनासिब नहीं है… आदि-इत्यादि। 

अब अगर कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद के लिखे पत्र पर गौर करें तो सरकार का झूठ तत्काल सामने आ जाता है। रविशंकर इस बात को गिनाने से कतराते हैं कि जस्टिस जोसेफ वही जज हैं जिन्होंने बीजेपी द्वारा उत्तराखंड में हरीश रावत की सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने को खारिज कर दिया था। लेकिन सरकार तो सरकार है, उसने नया तर्क गढ़ा कि न्यायमूर्ति जोसेफ वरिष्ठता के क्रम में 42वें नंबर पर आते हैं। यह सही है, लेकिन इसके इतर उनके बारे में यह बात भी उतनी ही सही है कि वे सभी हाइकोर्ट के प्रमुख न्यायाधीशों से दो साल से अधिक दिनों से मुख्य न्यायाधीश रहे हैं। जो इस मामले के जानकार हैं उनका कहना है कि सरकार का यह वाहियात तर्क है कि उनको रोकने के लिए वरिष्ठता को मुद्दा बनाया जा रहा है। इस लिहाज से यही सरकार पिछली बार मोहन शांतनागौदर, नवीन सिन्हा, दीपक गुप्ता, एस के कौल और अब्दुल नजीर को जज बना चुकी है जबकि उन लोगों को जज बनाते समय उन सबसे वरिष्ठ कई जज मौजूद थे। इसी तरह कानून मंत्री का यह तर्क कि इससे केरल हाइकोर्ट के जजों की संख्या काफी हो जाएगी, बचकाना है क्योंकि मोदी सरकार ने ही जस्टिस एस के कौल को सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त किया जबकि जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस सीकरी दिल्ली हाइकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट में जज बनाए गए थे!

इसी तरह सरकार के इस वाहियात तर्क का क्या जवाब हो सकता है जिसमें वह कहती है कि एससी/एसटी की संख्या बढ़ाई जानी है! इसके चलते जस्टिस जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट में नहीं लाया जा सकता है। इसके लिए सरकार को पहले से ही स्पष्ट नीति बनाने की जरूरत है जिससे कि सबको पता हो कि अब क्या होने वाला है। अगर जस्टिस जोसेफ को नियुक्त भी कर दिया जाता तब भी एपेक्स कोर्ट में चार वैकेंसी होने वाली है, जिसे एससी/एसटी से तत्काल भरा जा सकता है। 

लेकिन सचमुच वही बात नहीं है जिसे मोदी सरकार और उनके दो शूरवीर मंत्री रविशंकर प्रसाद और अरुण जेटली कह रहे हैं। बात वह है जिसका जिक्र वे लोग नहीं करना चाह रहे हैं बल्कि उन्हें औकात बताना चाहते हैं जिसने कभी इन लोगों के इच्छा के खिलाफ काम किया है।

याद कीजिए 2014 कोजब नरेन्द्र मोदी प्रधानसेवक बने ही थे। राजनीतिक गर्मी तो नहीं लेकिन मौसम गरम हो गया था। चीफ जस्टिस लोढ़ा वाली कॉलेजियम ने दो जजों की नियुक्ति के लिए सरकार को आर नरीमन और गोपाल सुब्रमण्यम के नाम भेजे। जस्टिस लोढ़ा एक जरूरी काम से विदेश चले गए, उनके विदेश जाते ही सरकार ने आज की ही तर्ज पर गोपाल सुब्रमण्यम का नाम रोक लिया। गोपाल सुब्रमण्यम का नाम इसलिए रोका गया क्योंकि उन्होंने सोहराबुद्दीन शेख मामले में अमित शाह को घसीट लिया था। देश के दो सबसे ताकतवर आदमियों ने कॉलेजिम की सिफारिश को मानने से इंकार कर दिया। जब जस्टिस लोढ़ा लौटे तो उन्होंने सरकार को  चिठ्ठी लिखीः “मेरी जानकारी और सहमति के बिना उनके नाम को हटाकर कार्यपालिका ने एकतरफा फैसला ले लिया है जो अनुचित है। यही एक विषय है जिसपर पुनर्विचार नहीं हो सकता है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता करने की इजाजत किसी भी परिस्थिति में नहीं दी जा सकती है।अगर मुझे लगेगा कि न्यायपालिका की आजादी से समझौता हो गया है तो मेरे लिए ऑफिस में बैठना अंसभव हो जाएगा।” न्यायपालिका बनाम मोदी सरकार का तनाव बढ़ ही रहा था कि गोपाल सुब्रमण्यम ने अपना नाम वापस ले लिया, परिणामस्वरूप जस्टिस लोढ़ा कॉलेजियम के उस फैसले को अंतिम परिणति तक नहीं पहुंचा पाए। हालांकि जस्टिस लोढ़ा ने उसी समय मोदी सरकार को चेताया था- “यह आपने गलत किया है और इसकी पुनरावृत्ति भविष्य में कभी भी, किसी भी प्रधान न्यायाधीश के साथ नहीं होनी चाहिए।”

अरुण जेटली ने सुप्रीम कोर्ट के बारे में कहा था कि वह बिना मतलब का सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप कर रही है। उसी दिन से रविशंकर प्रसाद कोर्ट को लेकर कुछ ज्यादा ही आक्रामक हैं। रविशंकर प्रसाद के एससी/एसटी जजों की नियुक्ति के तर्क पर गौर करें तो यह इस सरकार का सबसे हास्यास्पद तर्क लगता है। यह तर्क वही रविशंकर प्रसाद दे रहा है जिसने सुप्रीम कोर्ट के एसससी/एसटी एक्ट में सुधार के लिए दिए गए फैसले का कोर्ट में विरोध करने से इंकार कर दिया था। प्रधानसेवक नरेन्द्र मोदी से जब दलित सांसद मिले थे तो उन्होंने इस मामले में हस्तक्षेप करने के मामले में चुप्पी साध ली थी। जब सरकार को लगा कि दलित उद्वेलित है और जगह-जगह 2 अप्रैल को हिंसा की खबरें आईं, तब आनन-फानन में 2 अप्रैल को ही रिट याचिका दायर की गई। रही बात एक ही राज्य से कई जज होने की, तो रविशंकर प्रसाद सहित पूरी बीजेपी ‘मैरिट’ मे विश्वास रखने वाले हैं, एकाएक इस मामले में उन्हें कोई खास राज्य कैसे दिखने लगा?

ऐसा लगता है कि कि पूरा तंत्र ही ऐसे ताकतवर लोगों को बचाने में लगा हुआ है, जिनके हाथ में खून के अनगिनत दाग हैं। रविशंकर प्रसाद और अरुण जेटली इस की व्यवस्था करते हैं। अरुण जेटली ने कांग्रेस और साथी दलों की ओर से लाए गए महाभियोग को ‘मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र और सुप्रीम कोर्ट के अन्य जजों को डराने की कोशिश’ बताया है लेकिन वही हैं जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के बारे में कहा था कि वह बिना मतलब सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप कर रही है। संसद में कॉलेजियम सिस्टम के ख़िलाफ़ अरुण जेटली की तक़रीरें और रविशंकर प्रसाद का आक्रामक तेवर इतिहास का हिस्सा हैं।

दुखद यह है कि दीपक मिश्रा मोदी के लिए वही हैंजो बहुत पहले एक बार इंदिरा गांधी के लिए एन रे थे हममें से बहुतों ने ए एन रे को नहीं देखा हैलेकिन उनकी काली करतूत तो इतिहास में दर्ज है। हर इस तरह की घटना-दुर्घटना के बाद वे बरबस याद आ जाते हैं! कुछ साल पहले तक एक तरफ जस्टिस लोढ़ा थे जिनका कहना था कि अगर सरकार कॉलेजिम के फैसले को नहीं मानती है तो उनके लिए इस कुर्सी पर बैठना मुश्किल हो जाएगा तो दूसरी तरफ जस्टिस दीपक मिश्रा हैं जो कहते हैं कि सरकार के पास पूरा अधिकार है कि वह कॉलेजियम के फैसले को न माने! और मिश्रा जी यह कहे भी क्यों नहीं? क्योंकि उन्होंने भी प्रेमचंद का महान उपन्यास गोदान पढ़ रखा है।

गोदान का महत्वपूर्ण पात्र होरी अपनी पत्नी धनिया से कहता हैः “जिस पांव के नीचे गर्दन दबी हो, उस पांव को सहलाना ही समझदारी है!” अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कालिखो पुल ने आत्महत्या से पहले लिखे पत्र में आदित्य मिश्रा का नाम लिख छोड़ा है, जो उनसे घूस मांग रहा था! आदित्य मिश्रा भाई थे दीपक मिश्र के! अब पैर किसकी है और गर्दन किसकी, कहने की ज़रूरत नहीं है।

जितेंद्र कुमार, वरिष्ठ पत्रकार और मीडियाविजिल के सलाहकार मंडल के सदस्य हैं 



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