‘मीडिया मालिक’ पर छापे के विरोध में ‘पत्रकार संगठनों’ का पहला ऐतिहासिक प्रदर्शन!

अभिषेक श्रीवास्‍तव

दिल्‍ली में पहली बार पत्रकारों के संगठन किसी मीडिया मालिक पर पड़े छापे का विरोध करने के लिए आज जुट रहे हैं। अब तक परंपरा यह रहते आई थी कि किसी पत्रकार पर या किसी संस्‍थान पर दमन होता था तो चौथे खंबे यानी पत्रकारिता के साथ एकजुटता जताते हुए पत्रकार साथ आकर विरोध करते थे। ऐसा पहली बार है कि एनडीटीवी के प्रकरण में मालिक प्रणय राय पर पड़े सीबीआइ के छापे के विरोध में प्रेस क्‍लब ऑफ इंडिया, फॉरेन करेस्‍पॉन्‍डेंट्स क्‍लब, विमेंस प्रेस कॉर्प्‍स, एडिटर्स गिल्‍ड ऑफ इंडिया आदि संस्‍थाएं शुक्रवार की शाम साढ़े चार बजे विरोध प्रदर्शन में एकजुट होंगी।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्रणय रॉय खुद एक मशहूर पत्रकार रहे हैं और साथ ही एनडीटीवी के संस्‍थापक भी हैं। टीवी मीडिया में रजत शर्मा के अलावा वे इकलौते पत्रकार हैं जो अपनी कंपनी के मालिक भी हैं। पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारों का संस्‍थान के स्‍वामित्‍व की ओर बढ़ना एक आम चलन सा हो गया था। कई पत्रकारों ने अपने मीडिया संस्‍थान खड़े कर लिए और दूसरे संस्‍थानों में हिस्‍सेदारी ले ली। सबसे हालिया उदाहरण टाइम्‍स नाउ के ऐंकर रहे अर्णब गोस्‍वामी हैं जिन्‍होंने एनडीए के नेता और कारोबारी राजीव चंद्रशेखर के साथ मिलकर रिपब्लिक टीवी को पिछले महीने लॉन्‍च किया। इस उपक्रम में अर्णब की भी हिस्‍सेदारी है।

आम तौर से कई बड़े चैनलों में पत्रकारों को शेयरधारिता दी जाती रही है लेकिन पत्रकार का पूर्ण मालिकाना संस्‍थान पर रहा हो, ऐसा केवल रजत शर्मा के इंडिया टीवी और प्रणय रॉय के एनडीटीवी में ही देखने में आया है। जब कभी पत्रकारिता के संकट पर चर्चा चली है, मालिकाने के सवाल को गंभीरता से उठाया गया है। इसका एक उद्देश्‍य तो यह दिखाना रहा है कि पत्रका‍र और मालिक के बीच एक फ़र्क होता है और दूसरे, मालिकाने के बदलते हुए चरित्र के संग संपादक के पद की गरिमा खत्‍म होती गई है बल्कि कहें, संपादक का पद ही खत्‍म होता गया है। अब अखबारों में ज्‍यादा से ज्‍यादा कार्यकारी संपादक का पद देखने को मिलता है।

हिंदी के अख़बारों में तो हालत और बुरी है जहां मालिक ही संपादक बना बैठा है। दैनिक जागरण के मामले में ऐसा प्रत्‍यक्ष है जहां संजय गुप्‍ता मालिक भी हैं, संपादक भी और टिप्‍पणी भी लिखते हैं। उन्‍हें यह हैसियत केवल इसलिए प्राप्‍त हुई है क्‍योंकि वे अखबार के मालिक परिवार की दूसरी पीढ़ी से हैं जिन्‍हें बना बनाया कारोबारी साम्राज्‍य और राजनीतिक ताकत विरासत में मिली। वरना देशबंधु और इंडियन एक्‍सप्रेस जैसे अखबारों में भी मालिक का संपादकीय नीति में दखल रहा, लेकिन वहां हमेशा संपादक के पद को गरिमा बख्‍शी जाती रही। वह मॉडल अब पुराना पड़ चुका है।

एनडीटीवी के मालिक पर पड़े छापे की चारों ओर निंदा हुई है। इसे राजनीति से प्रेरित और अभिव्‍यक्ति की आज़ादी पर हमला बताया गया है। यह बेशक सही है क्‍योंकि एनडीटीवी पर फर्जीवाड़े का मुकदमा तो कांग्रेस राज में हुआ था जिसमें भाजपा का कोई हाथ नहीं है। हां, जिस तरीके से एनडीटीवी ने लगातार अपना आलोचनात्‍मक स्‍वर बनाए रखा है और हफ्ते भर पहले जिस तरीके से उसके स्‍टूडियो से ऐंकर निधि राजदान ने भाजपा प्रवक्‍ता संबित पात्रा को चले जाने को कहा, उसके आईने में छापे को देखा जाना दुरुस्‍त ही होगा।

बावजूद इसके यह तथ्‍य तो है ही कि पत्रकारिता के निकट इतिहास में शायद पहली बार किसी पत्रकार को ऑन एयर खुलकर अपने मालिक का बचाव करना पड़ा। पत्रकारिता की तस्‍वीर पर चाहे कितनी ही धूल जम चुकी हो, लेकिन एक बारीक लकीर हमेशा यह कायम रही है कि पत्रकार अपनी पत्रकारिता में मालिक का बचाव नहीं करता था। मालिक पर कोई कार्रवाई हुई तो उसकी खबर को बेशक दबा दिया जाता रहा। मालिक से जुड़ी किसी प्रतिकूल खबर को जगह नहीं दी जाती रही, लेकिन पहली बार चैनल के संपादक और सबसे चर्चित चेहरे के बतौर रवीश कुमार ने अपने मालिक प्रणय रॉय का स्‍क्रीन पर उस दिन बचाव किया और बाकी मीडिया को ‘गोदी मीडिया’ ठहरा दिया, जिस दिन छापा पड़ा।

किसी पत्रकार के लिए इससे बड़ी विडंबना क्‍या होगी कि वह अपने मालिक की गोदी में बैठ कर बाकी पत्रकारों को ‘गोदी मीडिया’ का हिस्‍सा कह दे। इस मसले पर न तो किसी ने बात की, न ही कोई आलोचना सामने आई बल्कि ठीक उलटा हो रहा है। संपादक और मालिक के बीच की विभाजक रेखा को बाकायदा मिटा कर तमाम पत्रकार संगठन आज कुछ देर बाद दिल्‍ली की सड़कों पर उतर रहे हैं। यह मालिक और पत्रकार के एकीकरण की अनूठी वेला है।

इस घटना को भविष्‍य में कैसे लिया जाएगा और आगे कभी जब मीडिया में स्‍वामित्‍व पर सवाल उठेगा तो एक स्‍वामी के पक्ष में खड़े हुए पत्रकार संगठनों का पक्ष क्‍या होगा, यह देखना बहुत दिलचस्‍प होगा।


तस्‍वीर साभार डेलीहन्‍ट

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