धुर-दक्षिणपंथ का आदर्श मैकार्थी

प्रकाश के रे 

भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में धुर-दक्षिणपंथ के उभार और बढ़ते वर्चस्व के विश्लेषण में अक्सर 1930-40 के दशक की यूरोपीय राजनीतिक स्थिति की चर्चा होती है, जब हिटलर, मुसोलिनी और फ्रैंको जैसे लोकतंत्र-विरोधी ताकतों ने तबाही मचा दी थी. इसमें कोई दो राय नहीं है कि उस दौर के फासीवाद और नाजीवाद से मौजूदा धुर-दक्षिणपंथ बेहद प्रभावित और प्रेरित है, लेकिन उसकी कार्यशैली में बहुत अंतर है. सबसे बड़ा अंतर तो यही है कि इस राजनीति की फासीवादी प्रवृत्ति लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर और उसके आवरण में काम करती है.

अमेरिका में 1950 के दशक के शुरुआती वर्षों में विस्कॉन्सिन से सीनेटर जोसेफ मैकार्थी के आतंक के शिकार हजारों लोग हुए थे. सैकड़ों जेल भेजे गये और कई हजारों की रोजी-रोटी पर आफत आयी. राष्ट्रवाद विरोध, अमेरिका-विरोध, सेक्सुअल प्रिफरेंस, कम्युनिस्ट सोच, षड्यंत्र रचने आदि जैसे कई आधार बनाये गये. सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ सिनेमा, थियेटर, संगीत, कला, पत्रकारिता, खेल आदि से जुड़े लोगों को निशाने पर लिया गया. मैकार्थी के इस दक्षिणपंथी हमले के शिकार कई लोग आज दुनिया भर में आदरणीय हैं. कुछ नाम तो बीसवीं सदी के महानतम व्यक्तित्व हैं- अल्बर्ट आइंस्टीन, चार्ली चैप्लिन, बर्तोल्त ब्रेष्ट, हॉवर्ड फास्ट, एलेन गिंसबर्ग, पॉल स्वीजी, ऑरसन वेल्स.

मैकार्थी और ट्रंप जैसे नेता

अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के तौर-तरीकों को समझने के प्रयास में विश्लेषक पहले ही मैकार्थी को चिन्हित कर चुके हैं. ‘द नेशन’ में छपे एक लेख में एलन श्रेकर ने लिखा है, मैकार्थी की तरह ट्रंप भी मनोरोगी व्यक्तित्व हैं जिनके अनैतिक व्यवहार पर आधारित अभियान ने आधारभूत लोकतांत्रिक मूल्यों को रौंद डाला है. दोनों आला दर्जे के स्वार्थी हैं और अपने हितों के अलावा इनके लिए कोई भी चीज मायने नहीं रखती है. नव-दक्षिणपंथी नेताओं में दंभ और झूठ भी कूट-कूट कर भरा है, जो मैकार्थी की भी खासियत थी. सच को तोड़-मरोड़ के पेश करना इनके व्यक्तित्व और राजनीति का मुख्य लक्षण है. ‘द वाशिंग्टन पोस्ट’ की मानें, तो ट्रंप हर दिन औसतन छह-सात दफा गलतबयानी करते हैं. उनकी भाषा और हाव-भाव से सब परिचित ही हैं.

यह भी दिलचस्प है कि मैकार्थी की टीम के चर्चित और चालबाज सदस्य रहे रॉय कोहन ने 1970-80 के दशक में ट्रंप के धंधे को चमकाने में बड़ी भूमिका निभायी थी. यह आदमी कानूनी प्रावधानों को अपने हिसाब से इस्तेमाल करने में माहिर था.

McCarthy_Cohn

मैकार्थी को भद्र और सभ्य आचरण से परहेज था और उसे इस बात की कोई परवाह नहीं होती थी कि उसके द्वारा किसी व्यक्ति पर लगाये गये झूठे और गलत आरोपों का असर कितना खतरनाक और नुकसानदेह हो सकता है. सीनेट की सुनवाई में उसका रवैया ऐसा होता था कि आरोपितों और गवाहों की जिंदगी तबाह हो जाये और वे समाज में रहने लायक न रहें. ट्रंप, नाइजल फराज आदि नेताओं में ऐसी प्रवृत्ति साफ देखी जा सकती है. मीडिया के इस्तेमाल में भी मैकार्थी शातिर खिलाड़ी था. वह प्रेस में उल्टी-सीधी और रसदार खबरें प्लांट कराता था. प्रेस के एक बड़े हिस्से ने भी उसका खूब साथ दिया था. वह जान-बूझकर दिन में देर से बयान जारी करता था, ताकि मीडिया को उसकी जांच करने का मौका न मिले. चूंकि इन खबरों को चाव से पढ़ा भी जाता था और मैकार्थी के कहर का डर भी था, तो मीडिया भी उससे कड़े सवाल पूछने में हिचकिचाता था. इसमें कॉरपोरेट की भूमिका बेहद संदिग्ध रही थी.

मैकार्थी या ट्रंप या धुर दक्षिणपंथ के अन्य चेहरे सिर्फ दंभी या हिंसक भर ही नहीं हैं जिनका काम सिर्फ वैचारिक या नस्लीय आधार पर लोगों को प्रताड़ित करना रहा है. यह तो उनकी राजनीति का एक पक्ष है. दूसरा पक्ष इससे भी अधिक खतरनाक है. ऐसे लोग न सिर्फ लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण करते हैं, बल्कि नागरिकों की बेहतरी के लिए बनी कल्याणकारी योजनाओं और नीतियों को भी तार-तार करते जाते हैं. मुनाफाखोरी और कॉरपोरेट हितों की पक्षधरता के कारण ही इन्हें धनकुबेरों का पूरा साथ मिलता है. लेकिन यह कहते हुए यह भी याद रखा जाना चाहिए कि इन धुर-दक्षिणपंथी नेताओं के उभार की प्रक्रिया लंबे समय से चलती रही है, जो अब अपने चरम पर पहुंचती दिखायी दे रही है. इस हालत के लिए अपने को उदारवादी या वाममार्गी या समाजवादी कहने वाली लोकतांत्रिक शक्तियों को भी अपनी जवाबदेही तय करनी चाहिए. कल्याणकारी राज्य, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन, पर्यावरण से जुड़े मुद्दे तथा समाज के वंचितों और हाशिये के लोगों के विरुद्ध दक्षिणपंथ का अभियान बहुत पहले से चला आ रहा है जिसके कारण लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं का लगातार क्षरण हुआ है.

अमेरिका के संदर्भ में नैंसी मैक्लीन ने अपनी किताब ‘डेमोक्रेसी इन चेंस’ में इसका अच्छा विश्लेषण किया है. अन्य देशों के वर्तमान को समझने में यह किताब बहुत सहायक हो सकती है. इससे पता चलता है कि उग्र-दक्षिणपंथ के व्यापक एजेंडे को कभी ठीक से चुनौती नहीं मिली, बल्कि यह भी हुआ कि अन्य सियासी जमातें उसके कुछ इरादों में सहभागी भी बनीं. अपने देश के संदर्भ में याद कीजिये कि कौन-कौन कह रहा था और कह रहा है कि आर्थिक उदारवाद के अलावा कोई विकल्प नहीं है- ‘टीना’ फैक्टर!

कौन था जोसेफ मैकार्थी
Tombstone_of_Joseph_McCarthy

बहरहाल, अब जानते हैं कि मैकार्थी था कौन और क्या थी उसकी राजनीति. जोसेफ रेमंड मैकार्थी 1947 से 1957 के बीच रिपब्लिकन पार्टी का सीनेटर रहा था. यही दौर था जब अमेरिका और सोवियत संघ में शीत युद्ध जोरों पर था. फरवरी, 1950 में उसने एक सभा में उसने यह कहकर तहलका मचा दिया कि 205 सोवियत समर्थक और जासूस देश की संघीय सरकार में बतौर अधिकारी घुसपैठ कर चुके हैं. उस समय के माहौल में इस बयान को जोरदार चर्चा मिली, परंतु इस मामले में विदेशी मामलों की सीनेट कमिटी के सामने सुनवाई में वह एक भी कार्डधारी कम्युनिस्ट अधिकारी का नाम बताने में असफल रहा. फिर भी उसे खूब लोकप्रियता मिली क्योंकि अमेरिका में दुनिया के विभिन्न इलाकों- खासकर पूर्वी यूरोप और चीन- में बढ़ते कम्युनिस्ट प्रभाव तथा भयावह कोरियाई युद्ध के कारण डर का माहौल था. भयभीत जनमानस का दोहन करने में मैकार्थी खासा कामयाब रहा. उसने खुद को देशभक्त और अमेरिकी मूल्यों का प्रतिनिधि बताते हुए देशव्यापी कम्युनिस्ट-विरोधी ‘धर्मयुद्ध’ छेड़ दिया. उसकी नजर में नागरिक अधिकारों का कोई मतलब नहीं था.

उसकी लोकप्रियता ने उसे दुबारा 1952 में सीनेट पहुंचाया जहां उसको सरकारी कार्यवाही कमिटी और इस कमिटी के तहत जांच उपसमिति की अध्यक्षता मिल गयी. फिर क्या था! अगले दो साल तक उसने हजारों लोगों को नोटिस भेजा, कमिटी के सामने बुलाया, जेल भिजवाया और प्रताड़ना दी. सरकारी अधिकारियों, प्रोफेसरों, विद्वानों, पत्रकारों, कलाकारों, सैन्य अधिकारियों… किसी को भी नहीं बख्शा गया. मैकार्थी के कारण हजारों समलैंगिक लोगों को नौकरियों से निकाला गया. इन जांचों में एक भी मामले में कोई नतीजा नहीं निकला, मैकार्थी एक आदमी को भी दोषी साबित न कर सका. उसकी शह पर और सोवियत भय के कारण अन्य एजेंसियों ने भी बड़ी संख्या में लोगों को परेशान किया. मैकार्थी ने राष्ट्रपति आइजनहावर और ट्रूमेन को भी नहीं छोड़ा. मैकार्थी से परेशान होकर कई लोग अमेरिका छोड़ गये जिनमें एक नाम अपने समय का दुनिया का सबसे लोकप्रिय शख्स चार्ली चैप्लिन का भी था. वे 1972 में ही अमेरिका वापस गये ऑस्कर का लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड लेने.

मैकार्थी का पतन
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पर इस फित्ना का भी खात्मा एक दिन होना ही था. अप्रैल-जून, 1954 में सैन्य और प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ सुनवाई के दौरान सेना के वकील ने मैकार्थी की खूब फजीहत की. इस 36 दिन चली सुनवाई को पूरे देश ने टेलीविजन पर देखा. वकील जोसेफ नाई वेल्श ने सीनेटर को कहा कि आपने क्या भद्रता को पूरी तरह छोड़ दिया है. जून में ही एक लोकप्रिय डेमोक्रेटिक सीनेटर लेस्टर हंट ने अपने बेटे के एक साधारण अपराध पर रिपब्लिकन पार्टी द्वारा मीडिया में दुष्प्रचार करने के ब्लैकमेल के दबाव में आत्महत्या कर ली. आत्महत्या से एक दिन पहले ही मैकार्थी ने बिना नाम लिये हंट पर अनाप-शनाप बयानबाजी की थी. इन प्रकरणों ने मैकार्थी के खिलाफ माहौल बना दिया. उसी साल नवंबर में हुए मध्यावधि चुनाव में सीनेट का नियंत्रण डेमोक्रेटिक पार्टी के हाथ में चला गया और मैकार्थी को कमिटी से हटना पड़ा. दो दिसंबर, 1954 को सीनेट ने 22 के मुकाबले 67 मतों से मैकार्थी को सीनेट की परंपरा के विरुद्ध आचरण करने के लिए निंदा प्रस्ताव पारित कर दिया. इन घटनाओं के बाद मैकार्थी अकेला पड़ गया और 1957 में उसका दूसरा कार्यकाल पूरा होने से पहले ही उसकी मौत हो गयी.

मैकार्थी और मीडिया

इस संदर्भ में दो बातें और अहम हैं तथा हमारे आज के लिए प्रासंगिक हैं. साल 1950 में सिर्फ नौ फीसदी अमेरिकी परिवारों के पास टेलीविजन था, लेकिन 1959 में यह आंकड़ा 85.9 फीसदी तक पहुंच गया. उस समय के मनोरंजक कार्यक्रमों का पूरा जोर लोगों की रुचि के अनुरूप सामग्री देने पर था और तत्कालीन मुद्दे उनमें से पूरी तरह गायब थे. जाहिर है कि टेलीविजन के प्रसार ने मैकार्थी और उस तरह की सोच और हरकत, जिसे मैकार्थीज्म कहा जाता है, को बढ़ावा देने में इस माध्यम का बड़ा हाथ था. समाचार कार्यक्रमों का रवैया भी कोई खास अलग न था. उल्लेखनीय है कि फरवरी, 1950 के मैकार्थी के उस कुख्यात भाषण के एक महीने बाद ‘द वाशिंग्टन पोस्ट’ के एक कार्टूनिस्ट हर्बर्ट ब्लॉक ने ‘मैकार्थीज्म’ शब्द को गढ़ा था. यह भी ध्यान रहे कि मैकार्थी को कैथोलिकों के बड़े हिस्से और कैनेडी परिवार का भी साथ मिला था. अपने उदारवाद के लिए जाने जानेवाले अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने सीनेट सदस्य के रूप में कभी भी मैकार्थी के विरोध में नहीं बोला और 1952 के सीनेट चुनाव में मैकार्थी ने कैनेडी के खिलाफ खड़े रिपब्लिकन उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार करने से मना कर दिया था. यह भी दिलचस्प है कि डेमोक्रेट सीनेटर के रूप में कैनेडी ने मैकार्थी के खिलाफ लाये गये निंदा प्रस्ताव में वोट नहीं डाला था क्योंकि वे अस्पताल में थे. बाद में भी कभी उन्होंने यह जाहिर नहीं किया कि यदि वे सदन में होते, तो किधर मतदान करते.

वे दो पत्रकार जो मैकार्थी के खिलाफ खड़े हुए 
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सैनिक अधिकारियों के वकील वेल्श से पहले ही मैकार्थी के खिलाफ दो पत्रकार मोर्चा लिये हुए थे- एडवर्ड मुर्रो और लेरॉय गोर. मुर्रो लोकप्रिय टीवी सीरिज ‘सी इट नाउ’ के एंकर थे. उन्होंने मार्च, 1954 में दो एपिसोड मैकार्थी पर चलाये और कहा कि सीनेटर जांच के दायरे को लांघ कर प्रताड़ित करने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं. मुर्रो ने मैकार्थी के गैर-जिम्मेदाराना भाषणों के कई अंश दिखाकर सीनेटर के खिलाफ माहौल बनाने में बड़ा योगदान दिया. अप्रैल के पहले हफ्ते में मैकार्थी खुद इस कार्यक्रम में शामिल हुआ और उसने मुर्रो को भी देशद्रोही करार दिया. इससे उसकी लोकप्रियता और गिरी. मुर्रो और उनके प्रोड्यूसर ने अखबारों में मैकार्थी पर बने एपिसोड के विज्ञापनों के खर्चे अपनी जेब से दिये थे क्योंकि सीबीएस चैनल ने इसके लिए पैसे देने से मना कर दिया था. इन विज्ञापनों में सीबीएस का लोगो इस्तेमाल करने की मनाही भी थी. कहा जाता है कि इस एपिसोड के बाद चैनल में फोन कॉल का तांता लग गया था और सड़कों पर ट्रक ड्राइवर भी मुर्रो को बधाई देने लगे थे. यह भी दुर्भाग्य है कि टीवी की आर्थिकी ने अगले साल इस कार्यक्रम का प्रसारण रोकने पर मजबूर कर दिया क्योंकि पैसेवाले क्विज शो लोगों को भाने लगे थे. साल 2005 में इस प्रकरण पर एक अच्छी फिल्म ‘गुडनाइट, एंड गुडलक’ बनी थी.

लेरॉय गोर विस्कॉन्सिन के एक कस्बे सॉक सिटी में ‘सॉक-प्रियरी स्टार’ अखबार के संपादक थे. उन्होंने 18 मार्च, 1954 को पहले पन्ने पर एक धारदार संपादकीय लिखा तथा एक फॉर्म छापा जिसे भरकर पाठक सीनेटर मैकार्थी को पद से हटाने की मांग कर सकते थे. इसका जोरदार स्वागत हुआ, पर बहुत समय तक फॉर्मों को छुपाकर रखना पड़ा था क्योंकि मैकार्थी के समर्थक अधिकारी लोगों पर फर्जी मुकदमे डालकर परेशान करने लगे थे. इस अभियान ने भी मैकार्थी के पतन में बड़ा योगदान दिया.

हेरोइन जैसे खतरनाक नशे के आदी और भयंकर शराबी रहे मैकार्थी के बारे में उसकी रिपब्लिकन पार्टी के दो सीनेटर दोस्तों के बयान मानीखेज हैं. सीनेटर राल्फ फ्लैंडर्स ने नौ मार्च, 1954 को सदन में मैकार्थी को ‘भ्रम और विभेद फैलाने वाला’ बताते हुए उसकी तुलना हिटलर से की थी. सीनेटर विलियम जेनर ने कहा था कि मैकार्थी का व्यवहार उस बच्चे की तरह था जो किसी आयोजन में आये और नींबू-पानी के बर्तन में पेशाब कर दे.


लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं 

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