तो मोदी सरकार ने ओबीसी आरक्षण को विभाजित करने का फ़ैसला किया है। कभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते राजनाथ सिंह ने यह प्रयोग किया था। ओबीसी लिस्ट को पिछड़ों और अति पिछड़ों में बाँटा गया था। बताया गया था कि आगे बढ़ चुकीं कुछ पिछड़ी जातियाँ, आरक्षण का सारा लाभ अकेले हज़म कर जाती हैं। इसलिए बीजेपी अति पिछड़ों के लिए अतिरिक्त व्यवस्था कर रही है। मक़सद तब भी ओबीसी जातियों के एक बड़े तबके को अपने साथ जोड़ना था और अब भी है।
रोजग़ार से इसका कोई लेना-देना नहीं है।
सरकार के इस फ़ैसले की हक़ीक़त समझना मुश्किल नहीं है। आरक्षण लागू होता है सिर्फ़ सरकारी नौकरियों पर, और कोटे के अंदर कोटा देने को बेक़रार मोदी सरकार ने सरकारी नौकरियों के ख़िलाफ़ अघोषित युद्ध छेड़ दिया है। उसके आर्थिक दर्शन में सरकारी पक्की नौकरियों के लिए कोई जगह नहीं है। वह ठेका मज़दूऱों के रूप में कॉरपोरेट महाप्रभुओं के लिए गूँगे ग़ुलामों की व्यवस्था करने में जुटी है। श्रम सुधार के नाम पर ऐसी कोशिश एक बिल की शक्ल लेकर लोकसभा में पेश हो चुका है जिसमें काम के घंटे से लेकर न्यूनतम मज़दूरी तक की बाध्यता हटाई जा रही है।
यानी ‘क्रीमी’ लेयर की सीमा 6 लाख से बढ़ाकर 8 लाख करने का फ़रमान सुनाने वाली सरकार ने पतीले से दूध ग़ायब कर दिया है।
मोदी सरकार ने अभूतपूर्व ढंग से सरकारी नौकरियाँ हज़म की हैं-यह कोई आरोप नहीं है।
बीते मार्च में केंद्र सरकार ने ख़ुद माना था कि 2013 से 2015 के बीच केंद्र सरकार की नौकरियों में क़रीब 89 फ़ीसदी की कमी आई। राज्यमंत्री जीतेंद्र कुमार ने संसद में जवाब दिया कि 2013 में 1,51,841 सीधी नौकरियाँ दी गई थीं जो 2014 में घटकर 1,26,261 रह गईं और 2015 में केवल 15,877 लोगों की सीधी भर्ती की गई। इस सिलसिले में छपी इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर यहाँ पढ़ें।
इसका सीधा मतलब यह हुआ कि 2013 से 2015 के बीच आरक्षित वर्ग की नौकरियों में 90 फ़ीसदी की गिरावट आई। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के लिए निर्धारित आरक्षण के ज़रिए 2013 में 92,928 लोगों को नौकरी मिली थी। 2014 में यह तादादा 72,077 थी और 2015 में महज़ 8,436 लोगों को नौकरी मिली।
यानी आरक्षण जैसे किसी भी समावेशी सिद्धांत का लाभ तभी हो जब सरकारी क्षेत्र में रोज़गार का सृजन हो। लेकिन मोदी सरकार निजीकरण की राह पर इतनी ज़ोर-शोर से चल रही है कि उसके विचारक अब स्कूल, अस्पताल, तो छोड़िए, जेल तक को निजी क्षेत्र के हवाले करने की माँग करने लगे हैं।
ऐसे में कोटा के अंदर कोटा हो या ना हो, नौकरी का टोटा रहा तो मामला ही उलट जाएगा। लगता है कि आरक्षण समीक्षा की बात कहकर चीभ जला चुका आरएसएस अब इसी तरह उसे बेमानी बनाने में जुटा है।
इस मसले पर वरिष्ठ पत्रकार अरविंद शेष ने अपनी फ़ेसबुक दीवार पर लिखा है–
“जिन नौकरियों में आरक्षण मिलना है, वे नौकरियां ही नहीं रहेंगीं तो आरक्षण का क्या कीजिएगा..! अचार लगाइएगा..!
मोदी सरकार ने ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर की सीमा छह लाख से बढ़ा कर आठ लाख कर दी! ठीक है… अच्छी बात है..!
लेकिन बताइए न जरा.. कि क्रीमी लेयर की सीमा बढ़ाने से आरक्षण का लाभ मिलेगा कैसे..!
खुद सरकार संसद में कहती है कि केंद्र सरकार की सीधी भर्तियों में 89% की कटौती हुई है। यानी 100 पदों में 89 गायब! आरक्षण मिले भी तो बचे हुए महज 11 पदों में कितना ले लीजिएगा..!
मोदी के दीवाने ओबीसी चिंतकों या दिमागी गुलामों को अभी भी ‘मोदी-मोदी’ करते हुए गड़हे में उछलते हुए देख कर फुदकू बेंग (मेंढ़क) की याद आती है.. जो बरसात के वहम में ही करने लगता है… टें-टें… टें-टें…टें-टें… टें-टें..!
ये मोदी सरकार सारी सरकारी नौकरियां या तो खत्म कर देगी या उसे प्राइवेट या ठेके पर दे देगी..! फिर सुनते रहिएगा… बजाते रहो… गाते रहो… ‘मोदी-मोदी… मोदी-मोदी. ”
यहाँ यह सवाल भी पूछना ज़रूरी है कि जो लोग आरक्षण को अपनी राजनीति का आदि अंत मानते हैं, वे इस मुद्दे पर मौन क्यों हैं ? रोटी में अपने हिस्से को लेकर इतने जागरूक लोग आटा चुराने वाले भंडारी की ओर उंगली कब उठाएँगे ?
मत भूलिए कि नौकरियाँ हवा में नहीं पैदा होतीं। इसके पीछे पूरा अर्थतंत्र होता है और अगर कोई सरकार, नौकरियाँ घटाने वाले अर्थतंत्र का झंडा बुलंद कर रही है तो मतलब यही है कि वह आरक्षण के तहत मिलने वाले लाभ का अंत करना चाहती है।
बर्बरीक