सोशल मीडिया पर चर्चा है कि कैराना उपचुनाव के प्रचार के दौरान यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बीजेपी की हार होने पर इस्तीफ़ा देने का ऐलान किया था। इस बात की पुष्टि न हो तो भी इसमें कोई शक़ नहीं कि लगातार तीन लोकसभा सीटों पर बीजेपी की हार ने योगी आदित्यनाथ की जिताऊ क्षमता को सवालों के घेरे में ला दिया है। उनकी जिस ‘फ़ायरब्रांड इमेज ‘को भुनाने के लिए बीजेपी उन्हें देश भर में घुमाती है, वह यूपी में ही भीगी-सिकुड़ी दिख रही है। कैराना के पलायन के मुद्दे पर ध्रुवीकरण की कोशिशों का मतदाताओं ने जैसा जवाब दिया है, वह योगी के पलायन की पटकथा लिख सकती है। पढ़िए, योगी की मुश्किलों की शिनाख़्त कराता वरिष्ठ पत्रकार पीयूष पंत का उपचुनाव विश्लेषण -संपादक
पश्चिमी उत्तर प्रदेश का कैराना लोकसभा उप–चुनाव जीत कर राष्ट्रीय लोक दल की प्रत्याशी बेगम तब्बसुम हसन ने दो–तीन चीज़ें साफ़ कर दी हैं। पहला, यह कि भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ उप–चुनावों में साझा प्रत्याशी उतारने की विपक्षी दलों की रणनीति कारगर साबित हुई है। उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर से की गयी यह शुरुआत आज उत्तर प्रदेश के ही कैराना में भी सफल रही और आज ही महाराष्ट्र की भण्डारा–गोंडिया लोक सभा सीट के उप–चुनाव के नतीजे में भी दिखाई दी, जहां कांग्रेस–एनसीपी के साझा उम्मीदवार ने भाजपा को मात दे डाली। गौरतलब है कि ये सभी संसदीय सीटें भारतीय जनता पार्टी ने २०१४ के लोक सभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के तथाकथित करिश्मे के चलते हासिल की थीं।
तो दूसरी चीज़ जो निकलती है वो इसी करिश्माई व्यक्तित्व से जुडी है यानि क्या यह कहा जा सकता है कि २०१८ आते–आते नरेंद्र मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व ढलान पर है या फिर ऐसा कुछ करिश्मा था ही नहीं, बल्कि मुख्य धारा की मीडिया और सोशल मीडिया द्वारा खड़ा किया गया वो बिजूका था जिसे हमारी चुनाव प्रणाली की ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट ‘ पद्धति ने सत्ता की फ़सल काटने का मौक़ा दे दिया। देश के चुनावी इतिहास में यह पहली बार हुआ था कि मात्र ३१ फ़ीसदी वोट हासिल कर कोई पार्टी अकेले दम पर सरकार बना सकी।
तीसरी चीज़ जो सामने आती है वो ये कि अगर राष्ट्रीय दल कांग्रेस महत्वपूर्ण क्षेत्रीय दलों को उनके प्रभाव क्षेत्र की हैसियत के अनुरूप सीटें देकर साझा प्रत्याशी उतारता है और मतों का विभाजन रोकने की रणनीति अपनाता है तो निश्चित रूप से भाजपा को परास्त कर सकता है।
और चौथी चीज़ जो सामने आती है वो ये सवाल कि क्या कैराना में विपक्षी दलों के साझा प्रत्याशी की जीत यह दर्शाती है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों, खासकर जाटों, ने भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे से दूरी बना ली है ? गौरतलब है कि उप–चुनाव के प्रचार के दौरान योगी आदित्य नाथ ने जिन्ना की तस्वीर और मुज़फ़्फ़रनगर दंगों का मामला जोर–शोर से उठाया था। इसके पहले २०१७ के विधान सभा चुनाव में कैराना से हिन्दुओं के पलायन का मामला भी उठाया गया था।
कैराना लोक सभा उप–चुनाव के परिणाम से एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या कैराना की जनता मोदी–योगी के भाषणों, खोखले नारों और झूठी उम्मीदों से इतनी ऊब चुकी है कि भाजपा की मृगांका सिंह को पिता की मौत से पैदा हुए सहानुभूति वोट भी नहीं मिल पाए ?
इनमें से बहुत सवालों के उत्तर तो इस उप–चुनाव में जातीय आधार पे पड़े वोटों के प्रतिशत के विश्लेषण के बाद ही मिल पाएंगे लेकिन एक बात साफ़ है कि कैराना ने विपक्षी दलों के गठबंधन के गोरखपुर–फूलपुर से शुरू हुए सफल चुनावी सफर के सिलसिले को जारी रक्खा है।
वैसे कैराना की जीत इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस उप–चुनाव को बीजेपी और विपक्षी एकजुटता की सफलता के लिए एसिड टेस्ट माना जा रहा था। इसका महत्व इसलिए भी था क्योंकि कैराना लोक सभा और नूरपुर विधान सभा का उप–चुनाव २०१९ के लोकसभा चुनाव से पहले शायद उत्तर प्रदेश में आख़िरी उप–चुनाव हैं इसलिए उत्तर प्रदेश में हिंदुत्व की प्रयोगशाला रहीं इन सीटों का आने वाले समय में सूबे की सियासत पर दूरगामी असर पड़ सकता है। अपने नेतृत्व में लोक सभा के तीनों महत्वपूर्ण चुनाव हारने के बाद योगी आदित्यनाथ की अपनी पार्टी के भीतर और सहयोगी दलों के साथ मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
कैराना उप–चुनाव विपक्षी एकजुटता बने रहने के नज़रिये से भी महत्वपूर्ण था। तब्बसुम हसन के साझी उम्मीदवार होने के बावजूद उनकी सफलता को लेकर अटकलें लगाई जाने लगी थीं। इसका कारण भी था क्योंकि न तो मायावती ने खुलकर अपना समर्थन दिया था और न ही अखिलेश चुनाव प्रचार में गए थे। ऐसे में सारा दामोदार राष्ट्रीय लोक दल के अजित सिंह और उनके बेटे जयंत पर आ गया था। उन्होंने गांव–गांव घूम कर मेहनत भी खूब की और अपने परंपरागत जाट वोट बैंक को भाजपा की झोली से निकालने के लिए मोदी स्टाइल में जाट अस्मिता का कार्ड भी खेला। साथ ही भाजपा के जिन्ना कार्ड के जवाब में किसान का गन्ना(भुगतान) कार्ड खेला और ‘गन्ना उठा,जिन्ना गिरा‘ का नारा तक दे डाला। इसके अलावा इस उप–चुनाव को जीतना अजित सिंह के लिए अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने का भी सवाल था। लगता है कि वे इस बार जाट–मुस्लिम मतदाता को लामबंद करने में सफल रहे।
वैसे विपक्षी गठबंधन की प्रत्याशी तब्बसुम हसन का भी कैराना में अपना प्रभाव क्षेत्र रहा है, वे हुकुम सिंह को हरा कर २००९ का लोक सभा चुनाव बीएसपी के टिकट पर जीत चुकी हैं। प्रत्याशी बनने के लिए आरएलडी में जाने से पहले वे समाजवादी पार्टी में थीं। वैसे भी उनका परिवार समाजवादी पार्टी से जुड़ा रहा है। उनके बेटे नाहिद हसन सपा से विधायक हैं। उन्होंने २०१७ के विधान सभा चुनाव में भाजपा की मृगांका सिंह को हराया था। उनके पति स्वर्गीय मुन्नवर हसन लगातार सपा के टिकट पर जीतते रहे थे।
विपक्षी एकता के सामने भारतीय जनता पार्टी के लिए ये उप–चुनाव जीतना आसान नहीं था। वैसे भी कैराना भारतीय जनता पार्टी की परम्परागत सीट नहीं रही है। सीधी टक्कर में जातीय समीकरण हमेशा ही उसके खिलाफ रहते हैं। २०१४ में मोदी लहर और मुज़फ्फरनगर दंगों से बने माहौल के चलते १६ साल बाद हुकुम सिंह कैराना की सीट बीजेपी के लिए जीत पाए थे।
लेकिन इस बार मतदान के ठीक एक दिन पहले चुनाव क्षेत्र से सटे बाग़पत में मोदी जी का ५० मिनट का भाषण भी मृगांका की जीत के लिए माहौल नहीं पैदा कर सका जबकि मोदी जी के बारे में मशहूर है कि चुनाव के अंतिम चरण में अपने भाषणों से वे हारती बाज़ी को भी जीत में तब्दील कर देते हैं।
तो क्या कहा जा सकता है कि २०१८ आते–आते उत्तर प्रदेश की अवाम पर मोदी का असर फीका पड़ने लगा है ? अगर हाँ, तो क्या २०१९ के लोक सभा चुनाव के सन्दर्भ में भाजपा के लिए ये खतरे की घंटी नहीं है ? क्योंकि उत्तर प्रदेश ही वो सूबा है जो केंद्र में सरकार बनाता है।
कार्टून वनइंडिया.कॉम से साभार।