ड्यूरेक्स के विज्ञापन कैम्पेन #OrgasmInequality के बहाने चुनाव परिणाम की समीक्षा
मेरे प्रियजनों, अपने अस्थिमज्जा में सुख की अनुभूति करो; अपने प्रेमी के साथ उसे बराबरी से साझा करो, थोड़ी देर के लिए सही सुंदर बातें कहो, चुहल करो। और यदि कुदरत ने तुम्हें सुख की अनुभूति से रोक रखा है तो अपने होठों को झूठ कहना सिखाओ और बोलो कि तुम्हें पूर्ण अनुभूति हो रही है। जिस औरत को बदले में कोई रोमांच महसूस नहीं होता वह दुखी रहती है। इसलिए तुम्हें यदि ढोंग करना है, तो ध्यान रखना कि अतिनाटकीय होकर खुद को धोखा मत दे देना। अपनी मुद्राओं और आंखों के सम्मिश्रण से हमें छलो, और हांफते हुए, छटपटाते हुए, इस भ्रम को संपूर्ण होने दो।
‘पाठ के बाहर’ व्याख्या
कविता का अर्थ अकसर कविता के भीतर नहीं होता। ठीक वैसे ही कुछ घटनाओं का अर्थ उन घटनाओं के भीतर नहीं होता। आउट ऑफ टेक्स्ट यानी पाठ के बाहर पढ़ना एक कला है। यह कला आदत बन जाए तो कॉन्सपिरेसी थियरी कहलाती है। जब सारे औज़ार नाकाम हो जाते हैं तब यह कला काम आती है। इसे बरतना हालांकि जोखिम भरा काम है। इतिहास ऐसे जोखिमों से भरा पड़ा है। मनुष्य हालांकि जोखिम उठाने का आदी है। कुछ ऐसा ही जोखिम उठाते हुए कहना चाहता हूं कि दस दिन पहले बीते महान भारतवर्ष के ऐतिहासिक चुनाव परिणामों को समझने का सूत्र दूसरी सदी की एक किताब में छुपा है, जिसका अंश ऊपर उद्धृत है।
ठीक इसी बीच एक विज्ञापन कैम्पेन #OrgasmInequality के नाम से शुरू हुआ। ड्यूरेक्स नाम की कॉन्डोम बनाने वाली कंपनी ने कई चर्चित सितारों को इस कैम्पेन में खींचा। उनसे वीडियो करवाए। बताया गया कि एक सर्वे के मुताबिक भारत की 70 फीसद महिलाएं फेक ऑर्गैज़्म का शिकार हैं। ड्यूरेक्स ऐसे शिक्षाप्रद प्रचार अभियान पहले भी चलाता रहा है, लेकिन मिथ्या यौन-सुख पर शुरू किया गया यह कैम्पेन जाने-अनजाने बड़ा सामयिक बन पड़ा। फेक ऑर्गैज़्म यौनक्रिया में वह स्थिति है जब दो पार्टनर में से एक बिना वास्तविक अनुभूति के ऑर्गैज़्म यानी संभोग-निष्पत्ति या कामोन्माद का ढोंग करता है। इस ढोंग में आम तौर से ऐसी मुद्राएं बनाई जाती हैं, ऐसी आवाज़ें निकाली जाती हैं और पूरे शरीर में ऐसी हरकत की जाती है जो यौन सुख की चरम अवस्था से जुड़ी होती है। इसके अंत में एक व्यक्ति तो अतिसंतुष्ट हो जाता है लेकिन दूसरा असंतुष्ट रहता है। संतोष या असंतोष से इतर, यह यौनक्रिया बेशक उत्पादक हो सकती है, भले ढोंग करने वाले पार्टनर के लिए सतह पर अनुत्पादक जान पड़ती हो।
क्या बीते पांच वर्ष यह लोकतंत्र किसी ऐसी ही क्रिया में लिप्त रहा? क्या पांच वर्ष बीतने के बाद इस क्रिया के चरम क्षण पर होने वाले संसदीय चुनाव में किसी एक पार्टनर को फेक ऑर्गैज़्म हो गया? तमाम विश्लेषणों के ध्वस्त हो जाने, तमाम आकलनों के धूल फांक लेने की स्थिति में क्या ड्यूरेक्स का विज्ञापन दुनिया के सबसे बड़े संसदीय चुनाव को समझने में किसी तरह सहायक हो सकता है? क्या 23 मई को शानदार बहुमत से आई सरकार किसी फेक ऑर्गैज़्म का उत्पाद है- जहां सत्ता तो संतुष्ट है लेकिन उसे लाने के लिए जिम्मेदार जनता अब भी असंतुष्ट? क्या संसदीय लोकतंत्र के चुनावों को #OrgasmInequality के हैशटैग में समाहित किया जा सकता है?
आइए, थोड़ा गहरे उतरते हैं।
संसदीय लोकतंत्र में फेक ऑर्गैज़्म क्यों?
आखिर लोग मिथ्या ऑर्गैज़्म क्यों करते हैं? संतुष्ट हुए बगैर संतुष्ट होने के भाव का प्रदर्शन क्यों करते हैं? इसके कई कारण बताए गए हैं। मसलन, अगर पार्टनर की इच्छा ऑर्गैज़्म प्राप्त करने की हो लेकिन दूसरा ऐसा कर पाने में अक्षम हो, तब वह नाटक करता है। इसे ऐसे समझें कि सत्ता खुद को दुहराना चाहती थी और चुनावों में चाहती थी कि जनता उसका पूरा समर्थन करे। जनता इसके लिए तैयार नहीं थी फिर भी उसने सत्ता के सुख यानी ऑर्गैज़्म का पूरा खयाल रखा और सुखी होने का ढोंग किया।
एक कारण और बताया गया है। पार्टनर की इच्छा संबंध बनाने की है लेकिन दूसरा ऐसा नहीं चाहता, ऐसे में क्रिया शुरू हो जाने पर वह चाहेगा कि इसका अंत जल्द से जल्द हो। हां, पार्टनर को वह ऐसा कह नहीं सकता। इसके दो कारण हो सकते हैं- एक संभावित नकारात्मक प्रतिक्रिया से उपजा डर और दूसरा उसे सुख का अहसास कराने की बाध्यता। ऐसे में वह सुख की चरमावस्था पर पहुंचने का ढोंग करेगा और पार्टनर को संतुष्ट कर देगा। इसे ऐसे समझें कि संसदीय लोकतंत्र में चुनाव एक आपद्धर्म है, ठीक वैसे ही जैसे स्त्री और पुरुष के संबंध में यौन-संसर्ग एक आपद्धर्म होता है। जनता चुनाव को आपद्धर्म समझती है। वोट देना अपना कर्तव्य समझती है। वह संसदीय लोकतंत्र के प्रति समर्पित है। इस समर्पण की दीर्घ प्रक्रिया में वह मोहभंग या असंतोष से ग्रस्त होती है लेकिन ऐसा कह नहीं सकती। डर के मारे या समर्पण के मारे। नतीजतन, वह जल्द से जल्द इस प्रक्रिया को समाप्त करने की कवायद में अपने चयन की स्वतंत्रता के अधिकार को ही फेक कर देती है, झूठा करार देती है और उसके बोझ से अंतत- मुक्त हो जाती है।
फेक ऑर्गैज़्म को सभ्यतागत विकासक्रम के परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिशें की गई हैं। ठीक वैसे ही मौजूदा चुनावों को समझने में वर्तमान सत्ता का विकासक्रम काम आता है। याद करिए 8 नवंबर 2016 की वह रात जब भारत के प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का एलान किया। उस वक्त एक भोंडे से तुलनात्मक वाक्य ने समूचे विमर्श की ऐसी-तैसी कर दी थी- ‘’उधर सरहद पर सिपाही जान दे रहा है और और तुम लाइन में भी खड़े नहीं रह सकते’’! यह उस राष्ट्रवाद का बीज-वक्तव्य था जो चुनाव से ठीक पहले पुलवामा और बालाकोट पहुंच कर फला-फूला। नोटबंदी के बाद एक साल तक लोगों को बहुत कष्ट हुआ, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। कुछ मर गए, कुछ खप गए, छोटे-मोटे धंधे चौपट हो गए और घरों में बची-खुची पूंजी बाहर निकल गई। कुछ आवाज़ें बेशक बाहर आईं लेकिन मोटे तौर पर लोगों ने चूं तक नहीं की। इसके उलट नोटबंदी की सराहना की क्योंकि यह ‘राष्ट्र’ के हित में था। ‘राष्ट्र’ का मतलब? सब समझते थे कि राष्ट्र का पर्याय चुनी हुई सरकार है, चुनी हुई सरकार का मतलब सत्ताधारी दल और सत्ताधारी दल का मतलब छप्पन इंच की छाती वाला एक महानायक। इसलिए बेहतर है चुप रहो। यह जनता की सत्ता के प्रति वफादारी थी। जनता को अगर एक इकाई मानें तो यह अपने पार्टनर यानी नरेंद्र मोदी नाम के व्यक्ति के प्रति उसकी वफादारी थी।
फिर आया जीएसटी। मुखर आवाज़ें और कम हो गईं। आधी रात में ‘’ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी’’ की तर्ज पर ‘’वन नेशन वन टैक्स’’ का जुमला पैदा हुआ और छोटे-मोटे धंधों को लील गया, लेकिन उसके ठीक बाद उत्तर प्रदेश और बाद में व्यापारिक सूबे गुजरात में एक बार फिर सत्ता को चरम सुख की प्राप्ति हुई। जनता असंतुष्ट रही लेकिन चुप रही। उसने अपने पार्टनर को ‘’राष्ट्र’’ के नाम पर संतुष्ट होने का पूरा मौका दिया। यह भी जनता की सत्ता के प्रति वफादारी ही थी। पिछले पांच साल में हमें ऐसी वफादारी के नमूने एक के बाद एक कर देखने को मिले हैं। जनता ने लगातार खुद चोट खाते हुए, असंतुष्ट रहते हुए भी सत्ता के साथ वफादारी निभायी। वोट दिया तो अपने प्रत्याशी का नाम तक जानने की कोशिश नहीं की। पूछने पर जवाब मिला- मोदी को वोट दिए हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में संसदीय चुनावों की समूची प्रक्रिया एक व्यक्ति और एक जनता के बीच संसर्ग तुल्य होकर सिमट गई। आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्या जनता को एक या दो बार में धोखा खाकर समझ नहीं आया कि सामने वाला संबंध बनाने के काबिल नहीं?
विकासक्रमिक परिप्रेक्ष्य में फेक ऑर्गैज़्म की इकलौती वजह पार्टनर के साथ वफादारी होती है। इसमें हालांकि एक पेंच है। वीक्स-शैकलफर्ड ने 2012 में एक अध्ययन किया था जिसमें यह बात सामने आई थी कि एक के बाद एक लगातार अगर फेक ऑर्गैज़्म की घटना सामने आ रही है यानी एक व्यक्ति अपने पार्टनर के साथ निरंतर खुद को असंतुष्ट रखे हुए भी वफादारी निभा रहा है, तो यह इस तथ्य का संकेत है कि उसके भीतर अपने पार्टनर द्वारा बेवफाई के जोखिम का अहसास बहुत गहरा है। यह बेवफाई किसी हिंसा के रूप में सामने आवे या अलगाव के, यह बिलकुल अलग बात है। लोगों ने अंत तक निरंतर सत्ता का जो साथ दिया और वफादार बने रहे, उसके पीछे एक भय काम कर रहा था। उसे डर था कि उसका पार्टनर कहीं उसे छोड़ न दे। यहां मौलिक प्रस्थापना यह है कि दरअसल व्यापक अविश्वास से एक विश्वास प्रस्ताव निकल रहा था। समाज और राजनीति विज्ञान में फेक ऑर्गैज़्म का यह क्लासिकल उदाहरण हो सकता है।
सच कहने और दबाने से जुड़ा डर
बहरहाल, इसे पढ़ते हुए कुछ सवाल उठने जायज़ हैं। मसलन, कोई पूछ सकता है कि आखिर कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की व्याख्या इस मॉडल के सहारे कैसे होगी। वहां तो सत्ताधारी दल को हार का मुंह देखना पड़ा था? वहां तो जनता ने फेक ऑर्गैज़्म का सिलसिला ही तोड़ दिया था? मुखर हो गई थी? असंतोष को जाहिर कर दिया था? इसका जवाब इन सवालों के भीतर ही छुपा है। एक अध्ययन कहता है कि जो औरतें फर्जी ऑर्गैज़्म में लिप्त होती हैं, अपने पार्टनर को छोड़ने की संभावना उन्हीं में सबसे ज्यादा होती है। वे अपने भीतर पल रहे असंतोष के चलते किसी सामूहिक आयोजन या जुटान में दूसरे पुरुषों के साथ फ्लर्ट करती हैं। यह अध्ययन 1995 में थॉर्नहिल, गैंगस्टाड और कॉर्नर ने किया था जिसे एनिमल बिहेवियर नामक जर्नल के पचासवें अंक में प्रकाशित करवाया। अपने सर्वेक्षण और नमूनों के आधार पर उनका निष्कर्ष था कि चरम यौन सुख की अवस्था में पहुंचने का ढोंग करने वाली महिलाएं अपने पार्टनर के मुकाबले दूसरे पुरुषों के साथ यौन-संबंध कायम करने के प्रति ज्यादा आकर्षित होती हैं, हालांकि लेखकों ने इसे सामान्यीकरण मानने से इनकार किया था और साथ में कई शर्तें जोड़ दी थीं।
ड्यूरेक्स वाले भले कह रहे हों कि देश की 70 फीसद महिलाएं फेक ऑर्गैज़्म का शिकार हैं, लेकिन यहां समझने वाली एक अहम बात यह है कि राजनीति के स्पेस में फेक ऑर्गैज़्म दोनों ओर से संभव हो सकता है और दोनों ही पक्षों के लिए इसके कारण समान होते हैं- स्वार्थ या दूसरे का हित। इस लिहाज से देखें तो स्वार्थ और परहित एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक जोड़ी के भीतर कोई एक पक्ष दूसरे के हित/सुख/सम्मान/प्रतिष्ठा के लिए फेक ऑर्गैज़्म कर सकता है तो वही शख्स अपने स्वार्थ के लिए भी ढोंग कर सकता है।
. @ReallySwara, we hear you, pleasure shouldn't be solo game especially in bed. Let's get your views rolling on #OrgasmInequality, guys. pic.twitter.com/GLqvydnXCI
— Durex India (@DurexIndia) May 29, 2019
दोनों ही पक्षों के लिए हालांकि यौन-पाखंड करने की ज्यादा व्यावहारिक और तात्कालिक वजह रोजमर्रा के जीवन में सच को नियमित रूप से न बोल पाने में छुपी है। हम दूसरे संदर्भों में भी सच को सच की तरह नहीं कहते। ऐसा रोज होता है। हम सच कहने से बचते हैं। हमारे यहां शास्त्रों में कहा गया है- सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात्। मने ऐसा सच बोलो जो प्रिय हो, अप्रिय न हो। ऐन संसर्ग के क्षण में सच कह देना, अपना असंतोष जाहिर कर देना, शास्त्रसम्मत भी नहीं है, व्यावहारिक तो नहीं ही है। इस कृत्य में अपनी और सामने वाले की ‘’आत्मप्रतिष्ठा’’ को भी बचा ले जाने का एक अंश होता है। फिर दूसरी ओर से कुछ पुरस्कार/रियायत मिलने का लोभ हो तो कोई बात ही नहीं।
लोभ-लाभ का मसला न भी हो तो सच को सच की तरह न कहना या झूठ कहना, उसे विकृत कर देना, ऑर्गैज़्म की मिथ्या अनुभूति करना दरअसल ‘’बचने-बचाने’’ का ही एक रूप है। मनोवैज्ञानिक शोध बताते हैं कि यह एक दुधारी तलवार है। मसलन, यह शराब जैसा है। छोटी अवधि में शराब कुछ दिक्कतों को हल कर सकती है लेकिन समय के साथ दिक्कतें भी पैदा कर सकती है। आप शराब जितनी पीयेंगे, आपको उतनी ही उसकी लत लगती जाएगी। आप उस पर निर्भर होते जाएंगे। उससे फायदा होने की संभावना तो दूर रही, उसे छोड़ना भी कठिन हो जाएगा। इसीलिए कुछ समय बाद बचने-बचाने की पद्धति काम नहीं आती। ठीक ऐसे ही यौन-सुख की मिथ्या अनुभूति की आदत लग जाए (हालांकि यह काफी श्रमसाध्य है) तो यह खुद से निरंतर और स्थायी विश्वासघात को जन्म देता है। इससे आत्मा मर जाती है।
मरी हुई आत्माओं के देश में ही एक शानदार चुनावी जीत के अगले दिन सड़कें खाली रह सकती हैं और लोगों के चेहरे पर मुर्दनी देखी जा सकती है। भारत की वर्तमान सत्ता ने लोगों को नैतिक रूप से तो खोखला किया ही है, जैसे शराब करती है लेकिन मनोवैज्ञानिक रूप से भी विकृत किया है। एक नेता ने इस चुनावी जीत को हिंदू मस्तिष्क की रिगिंग का नाम दिया है। यह राजनीतिक बयान है। वास्तव में इस देश की जनता के मानस और मनोविज्ञान को एक धीमी प्रक्रिया में न केवल ‘रिग’ किया गया है, बल्कि हाइजैक किया गया है। यह प्रक्रिया पिछले पांच बरस की नहीं, और लंबी है। शायद दो दशक से ज्यादा वक्त इसे हो रहा है।
हां, रिगिंग की तकनीक और प्रौद्योगिकी इधर बीच विकसित हुई है, जैसा रूस में पुतिन के चुनाव और अमेरिका में ट्रम्प के चुनाव में हमने देखा। फेसबुक, वॉट्सएप, ट्रोलिंग, टेलीविजिन चैनल, अखबार से लेकर तमाम वर्चुअल माध्यमों का इसमें हाथ है। इसमें बहुत सारा पैसा निवेशित किया गया है। आदमी के दिमाग को नियंत्रित करने की प्रौद्योगिकी विकसित हो चुकी है। अब स्वेच्छा से ऑर्गैज़्म को फेक करने के भी दिन लद रहे हैं। सामने वाला चाहेगा तो सुख ले लेगा और आप खुद असंतुष्ट रहते हुए उसके सुख को पूरा करने का काम करेंगे। यह भारत की आम वैज्ञानिक चेतना से बहुत आगे की चीज़ है, इसलिए फिलहाल हम मनोविज्ञान तक ही खुद को सीमित रखते हैं।
यह चुनाव काउंटर-प्रोडक्टिव क्यों है?
ओहायो युनिवर्सिटी में प्रोफेसर और मनोविज्ञानी नोम स्पैंशर साइकोलॉजी टुडे में लिखे अपने एक लेख (दि पॉलिटिक्स ऑफ फेकिंग ऑगै्रज़्म: सेविंग टाइम, सेविंग फेस) में कहते हैं:
‘’पहली नज़र में फेक ऑर्गैज़्म काउंटर-प्रोडक्टिव (प्रतिउत्पादक) जान पड़ता है। आप केवल खोखले प्रदर्शन के लिए एक सुख से खुद को वंचित कर देते हैं। मोटे तौर पर विश्वास पर टिके एक रिश्ते में आप झूठ को घुसा देते हैं, निकटता के अवसर में दूरी पैदा कर देते हैं, खुद को प्रकट करने के अनुभव के बीच खुद को छुपा लेते हैं। ज्यादा व्यावहारिक होकर कहें तो अपनी यौन संतुष्टि के बारे में अपने पार्टनर को गलत फीडबैक देकर आप दरअसल उसके भीतर के उन्हीं गुणों को पुरस्कृत कर रहे होते हैं जो आपमें वास्तविक यौन-संतुष्टि पैदा कर पाने में नाकाम रहे।‘’
उपर्युक्त अंश क्या भारतीय मतदाताओं के बारे में बिलकुल सही नहीं जान पड़ता? आखिर पांच साल तक क्या राष्ट्रवाद और राष्ट्र-गौरव का ‘’खोखला प्रदर्शन’’ नहीं किया गया? उसकी आड़ में खुद को मतदाता ने क्या लोकतंत्र में मिले अधिकारों के सुख से वंचित नहीं किया? जिस विश्वास से 2014 में केंद्र में ‘’मजबूत’’ सरकार लाई गई थी, उस विश्वास पर टिके सत्ता-मतदाता के रिश्ते में क्या झूठ का प्रवेश नहीं करवाया गया? असहमति के ऐन मौके पर क्या खुद को एक खोल में मतदाता ने नहीं छुपा लिया? क्या चुनाव दर चुनाव सरकार को गलत फीडबैक नहीं दिया गया? क्या इस देश के मतदाता ने अभी बीते चुनाव में सत्ताधारी दल को एक बार फिर वोट देकर उसके उन्हीं गुणों (अवगुणों) को पुरस्कृत नहीं किया जिनके चलते मतदाता पांच साल असंतुष्ट रहा? सबसे अहम सवाल- 23 मई को परिणाम आ जाने के बाद क्या पहली नज़र में संसदीय चुनाव की समूची प्रक्रिया फेक ऑर्गैज़्म की ही तरह काउंटर-प्रोडक्टिव नहीं जान पड़ रही?
मैकियावेली प्रवृत्तियां और पाखंड
एक चौंकाने वाली बात है जिसे हम सब को जानना समझना चाहिए। साइंसडायरेक्ट नाम की पत्रिका में जुलाई 2016 के अंक में एक लेख प्रकाशित है: मैकियावेलियनिज़्म, प्रिटेंडिंग ऑर्गैज्म, एंड सेक्सुअल इन्टिमेसी। यह अध्ययन पैसे चुकाकर पढ़ा जा सकता है लेकिन इसका एब्सट्रैक्ट निशुल्क उपलब्ध है। गेल ब्रूअर, लॉरेन एबेल और मिना लियोन्स के लिखे इस परचे में कहा गया है:
‘’मैकियावेलीवाद के लक्षण हैं अविश्वास, हेरफेर और दूसरों का दोहन करने की मंशा। पहले के शोध बताते हैं कि छोटी अवधि के यौन संबंध और संबंध में प्रतिबद्धता के निम्न स्तर को प्राथमिकता दिए जाने के साथ मैकियावेलीवाद का संबंध है। मौजूदा अध्ययन मैकियावेलीवाद, ऑर्गैज़्म के पाखंड और यौन-साहचर्य की आवश्यकता के संबंधों पर केंद्रित है। संबंध जितना लंबा चलेगा, छल और पाखंड के मैकियावेलियन प्रभाव उतने ही कमजोर पड़ते जाएंगे। जिनके भीतर मैकियावेली प्रवृत्तियां उच्च होती हैं, वे संबंधों में वर्चस्व के गुण ज्यादा प्रदर्शित करते हैं, उनके भीतर यौनेच्छा प्रबल होती है लेकिन यौन साहचर्य में वे प्रतिबद्ध होने से परहेज करते हैं।‘’
इसका अर्थ यह हुआ कि दो व्यक्तियों के बीच यौन संबंधों में उनकी शख्सियत या व्यक्तित्व बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। अगर कोई एक पार्टनर मैकियावेली प्रवृत्तियों वाला है, तो वह संबंध में अनिवार्यत पाखंड करेगा। अपने पार्टनर को धोखा देने, उसके साथ छल करने के उद्देश्य से सचेत फेक ऑर्गैज़्म करेगा। यहां देखिए, कितनी सहजता से मनोविज्ञान, जीवविज्ञान, राजनीतिक दर्शन और समाजशास्त्र आपस में घुल मिल जाते हैं और हमें पता तक नहीं चलता? क्या 23 मई को आया परिणाम वाकई विश्लेषण से परे है या बहुत जटिल है या फिर ईवीएम पर दोष मढ़ देने जितना आसान है?
जब एक निजी फैसला व्यक्ति की सामाजिक परिस्थितियों से लेकर उसके मनोविज्ञान, उसकी आर्थिकी और उसकी राजनीति का सम्मिश्रण होता है, फिर यह तो सवा सौ करोड़ संख्या वाली एक जनता का दिया फैसला है। वो भी एक ऐसी जनता, जो औपनिवेशिक चेतना में फंसी पड़ी है, जिसकी स्मृति पांच हज़ार साल के सांस्कृतिक पोषण से बनी है, जिसकी महत्वाकांक्षाएं नवउदारवादी मूल्यों से संचालित होती हैं लेकिन जिसके सामाजिक संबंध अब भी पारंपरिक जाति, नस्ल, वर्ण और कर्म के मूल्यों से तय हो रहे हों? एक ऐसी जनता जो हमेशा से राजापूजक रही है? जिसके लिए आज भी आधुनिक राष्ट्र-राज्य, आधुनिकता और उसके मूल्यों पर सर्वोपरि उसका संगठित धर्म है?
वास्तविकता यह है कि मामला राजा का हो या प्रजा का, सच दोनों ही ओर भ्रष्ट हो चुका है। कोई सच नहीं बोल रहा। दोनों ही इस अवस्था को बने रहने देना चाह रहे हैं। हां, ऑर्गैज़्म वास्तव में सत्ता का ही हो पा रहा है, केवल जनता असंतुष्ट है। इसका अर्थ यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि जनता मैकियावेलियन हो चुकी है। यह लंबी अवधि में मैकियावेली सत्ता के साथ जनता के अनुकूलन का प्रभाव है। नरेंद्र मोदी के भीतर यह मैकियावेली सत्ता अपने शुद्धतम रूपों में संगठित होकर 2014 में साकार हुई थी। 2019 में उसने साम, दाम, दंड, भेद की नीति को अपनाया है। जनता को संसर्ग की चरमावस्था में मिलने वाले मिथ्या सुख का अहसास कराया है। चूंकि यह सुख मिथ्या है और पूरी तरह जनता का चुना हुआ नहीं है, इसलिए सत्ता मदमस्त है लेकिन जनता निढाल है।
सच्चे पार्टनर की तलाश
इस शासक-शासित के संबंध में अगर अगले पांच साल सब कुछ यथावत रहा, तो मुमकिन है कि जनता का असंतोष अगली बार उसे दूसरा पार्टनर खोजने पर मजबूर कर दे। सच कहने की ताकत बख्श दे। यह ताकत जितनी ज्यादा संगठित और सामूहिक होगी, मैकियावेली सत्ता के औज़ार उतने कमजोर पड़ जाएंगे। इस लेख के आरंभ में दिए गए ओविड के उद्धरण की तर्ज पर, एक ‘’सुखी औरत’’ की तरह अब तक चुहल करती आ रही, हंसती आ रही, भरमाती आ रही और भ्रम को साकार करती आ रही जनता को उसके दुख का मुकम्मल अहसास होना अभी बाकी है। उसे जिस दिन सच्चे रोमांच की चाह पैदा होगी, अपने दुखों को झाड़ कर सत्ता के सामने वह खड़ी हो जाएगी और उसे मरदाना कमजोरी का सर्टिफिकेट थमा देगी। पलक झपकते ही जनता कोर्इ् दूसरा पार्टनर पकड़ लेगी।