सोहराबुद्दीन मुठभेड़ के मुकदमे की सुनवाई करने वाले सीबीआइ जज बृजगोपाल हरकिशन लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत पर दि कारवां में प्रकाशित निरंजन टाकले की उद्घाटनकारी कहानी को चुनौती देते हुए दि इंडियन एक्सप्रेस ने सोमवार को एक समानांतर कहानी प्रकाशित की है। जो मामला पहले से ही इतना जटिल और धुंधला था, एक्सप्रेस की रिपोर्ट ने उसे और उलझा दिया है। संयोग नहीं है कि एनडीटीवी ने भी एक्सप्रेस के साथ मिलकर यह कहानी दिखायी है। दोनों के पत्रकार एक साथ एक ही जगह पर रिपोर्ट करने पहुंचे थे। एक ख़बर पर केंद्रित इस विरोधाभासी और नाटकीय पत्रकारिता पर दि कारवां के राजनीतिक संपादक हरतोश सिंह बल का ट्वीट देखें:
so IE, NDTV. 2 set of reporters 'arrive' at exactly same set of leads! NDTV – judge taken in auto as no designated driver, IE gives him car. NDTV says 3 people were in ambulance, IE gives them car which has accident. Same judge tells NDTV Loya's chest pain began at 3:30, IE 4!
— Hartosh Singh Bal (@HartoshSinghBal) November 28, 2017
सूत्र बताते हैं कि दि इंडियन एक्सप्रेस में जज लोया की मौत संबंधी उक्त रिपोर्ट का प्रकाशन रविवार के अंक में तय था लेकिन उसे एक दिन टाल दिया गया। वजह जो भी रही हो, लेकिन यह सहज नहीं है क्योंकि कांग्रेस के भीतरखाने चल रही चर्चाओं की मानें तो कांग्रेस ने जान-बूझ कर इतने संगीन मामले पर एक हफ्ता चुप्पी साधे रखी जब तक कि एक्सप्रेस में रिपोर्ट न छप जाए। नागपुर के कुछ विश्वसनीय पत्रकारों से मीडियाविजिल की बात हुई। उन्होंने निरंजन टाकले की कहानी में दिए विवरणों पर एक स्वर में सवाल खड़े किए।
इस मामले पर 2014 से ही करीबी निगाह रखे एक वरिष्ठ मराठी पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि दि कारवां में निरंजन टाकले की कहानी में बहुत से झोल हैं। उसे जल्दबाज़ी में बिना तथ्यों का परीक्षण किए हुए लिखा गया है। इसी तरह एक्सप्रेस की कहानी भी पूरी तरह सही नहीं है क्योंकि वह राजनीति से प्रेरित है। इस बीच निरंजन टाकले अपनी सुरक्षा से चिंतित होकर अपना फोन बंद किए हुए हैं। मीडियाविजिल ने उनसे कई बार संपर्क करने की कोशिश की पर फोन अनुपलब्ध पाया गया।
जज लोया की मौत अब पत्रकारिता के दो अलहदा संस्करणों के बीच फंस कर रह गई है। इन दो की तुलनात्मक समीक्षा हो रही है। स्वतंत्र पत्रकार दीपांकर पटेल और मोहित पाल ने दो अहम टिप्पणियां अपने फेसबुक दीवार पर शाया की हैं जिनसे मामले के अंतर्विरोधों और पत्रकारीय त्रुटियों को समझने में मदद मिलती है। मीडियाविजिल इन दो टिप्पणियों को अपने पाठकों के लिए अविकल प्रकाशित कर रहा है – (संपादक)
मशीन झूठ बोल रही है या अस्पताल?
दीपांकर पटेल
कारवां की रिपोर्ट की कई बातें गलत साबित करते हुए इंडियन एक्सप्रेस ने एक भारी गलती कर दी है। जस्टिस लोया मौत केस में जिस ECG रिपोर्ट को आधार बनाकर इंडियन एक्सप्रेस ने स्टोरी का एंगल चेंज किया है, उस ECG रिपोर्ट को इंडियन एक्सप्रेस ने ठीक से एक बार देखा भी नहीं।
ECG रिपोर्ट को ध्यान से देखिए
उस पर तारीख लिखी है 30 नवम्बर। जबकि इसी रिपोर्ट में लिखा है कि उन्होंने 1 दिसम्बर सुबह 4 बजे सीने में दर्द की शिकायत की।
दांडे अस्पताल के डायरेक्टर पिनाक दांडे ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया है, “उन्हें हमारे अस्पताल में सुबह 4.45 या 5 बजे के करीब लाया गया, हमारे अस्पताल में 24 घंटे चलने वाला ट्रामा सेंटर है।” इस वक्त तारीख थी 1 दिसम्बर, क्योंकि 30 नवम्बर को तो शादी ही थी। रात के 12 बजते ही तारीख बदल जाती है, तो ECG मशीन में 30 नवम्बर की तारीख कैसे है? क्या मशीन झूठ बोल रही है या अस्पताल झूठ बोल रहा है?
क्या ECG मशीन की इस रिपोर्ट को बाद में बैक डेट में प्रिंट करके फाइल में लगा दिया गया? और बैक डेट करने के चक्कर में हड़बड़ी में तारीख 30 नवम्बर लिख उठी? जैसे हम सुबह 4 बजे तक जागते हुए पिछली तारीख को उस दिन की तारीख माने रहते हैं?
मगर मशीन तो ये गलती नहीं करती? अगर ये मशीन की गलती है तो क्या इस बारे में इंडियन एक्सप्रेस ने कुछ लिखा? आखिर इस बात के पीछे भी तो कुछ बात होगी कि ECG मशीन नहीं चल रही थी? क्या कारवां की रिपोर्ट के बाद जस्टिस भूषण गवई और जस्टिस सुनील शुक्रे पर शक की सुई नहीं गई थी?
अगर कारवां की रिपोर्ट सही है तो क्या दोनो जज और अस्पताल अपने आप को पाक-साफ साबित करने की कोशिश नहीं करेंगे? मोहित शाह भी तो एक जज ही थे, जिसपर लोया को 100 करोड़ ऑफर करके केस मैनेज करने की बात लोया की बहन कह रही थी। क्या ऐसा नहीं लगता कि कारवां की रिपोर्ट के बाद मचे हंगामे को ठंडा करने के लिए इंडियन एक्सप्रेस की विश्वसनीयता का यूज कर लिया गया है?
इंडियन एक्सप्रेस ने ही तो NDTV के 40 प्रतिशत शेयर अजय सिंह द्वारा खरीदने की खबर चलाई थी। पनामा पेपर और पैराडाइज पेपर के लाखों पन्ने पढ़ने वाले इंडियन एक्सप्रेस ने एक पेज की ECG रिपोर्ट को ध्यान से क्यों नहीं देखा?
जस्टिस लोया की मौत अब और रहस्मय होती जा रही है। कल एक और रिपोर्ट आयेगी, परसों कोई और लेकिन कोई इस पर सवाल क्यों नही करता कि जस्टिस लोया की मौत के महज एक महीने बाद नये जज ने आरोपी को कैसे बरी कर दिया?
क्या ये जल्दबाजी नहीं थी?
जस्टिस लोया की मौत के बाद दिल्ली मीडिया में जमी बर्फ को पिघलाने का जिम्मा इंडियन एक्सप्रेस ने ही ले लिया, लेकिन ऐसा लगता है ये बर्फ पिघलाने चले और पिघला पानी गन्दा करके लौट आये हैं।
नोट: इंडियन एक्प्रेस ने बाद में इस स्टोरी को अपडेट करके दांडे अस्पताल का पक्ष डाल दिया है जिसमें अस्पताल ने ”टेक्निकल रीजन” नामक महान भारतीय शब्द को ECG की बदली डेट के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया है।
प्लांटेड लगती है एक्सप्रेस की ख़बर
मोहित पाल
जज लोया मामले में आज इंडियन एक्सप्रेस ने एक खबर छापी है जो सवालों को और गहरा बना रही है। स्टोरी दो हिस्सों में छपी है। मैंने दोनों खबरों की तहकीकात की तो इसमें कुछ और सवाल जुड़ गए हैं।
प्रथम दृष्ट्या एक्सप्रेस की खबर प्लांटेड लगती है जिसमें क्लीन चिट देने की हड़बड़ी साफ दिखाई देती है। निम्नलिखित बिंदु इस ओर इंगित करते हैं:
- एक्सप्रेस ने दो खबरें छापी हैं- पहली 7.24 am पर जिसमें परिवार के ही दूसरे सदस्यों से बातचीत की गयी है जिनमें जज लोया की सबसे छोटी बहन पद्मा से बात की गयी है, जिसमें उनके हवाले से कहा गया है कि वो इस मामले से खुद को दूर रखना चाहती हैं। इसमें कहीं से भी पक्ष या विपक्ष में कुछ नहीं कहा गया है। उनकी छोटी बहन द्वारा ये कहना कि उनकी बाकी बहनें “स्वयं के विवेक से इस मामले को उठा रही हैं” ये एक्सप्रेस ने शब्दों के जाल का इस्तेमाल किया है बाकी कुछ नहीं है। यहां परिवार के भीतर मतभेद दिखाने का शातिर इशारा किया गया है।
- लोया के चाचा का कहना है कि उनकी भतीजी ने वाजिब सवाल उठाए हैं। इसके साथ ही वो ये भी कहते हैं कि “जब कुछ भी संदिग्ध नहीं था तो परिवार को क्यों नहीं सूचित किया गया। कम से कम उनकी पत्नी को तो सूचित कर सकते थे”. ये एक सवाल है जो इस कड़ी में जुड़ गया है जो संदेह को और गहरा ही बना रहा है।
- आरएसएस कार्यकर्ता ईश्वर बहेती की भूमिका इस कहानी में बहुत ज्यादा स्पष्ट होने के बजाय और संदिग्ध हो गई है। न तो बहेती न ही उसके डॉक्टर भाई ने मीडिया से बात की। अगर बहेती के बारे में एक्सप्रेस की पड़ताल सही भी है तब भी ये बात कानूनसम्मत नहीं है कि जज का फ़ोन उनके परिवार वालों को पुलिस के बजाय कोई बहेती सौंपे।
- पहली स्टोरी का अंतिम बिंदु ये है कि तत्कालीन हाईकोर्ट के जज आर सी चवण भी जज लोया के अंतिम संस्कार में शामिल हुए थे। ये बात रिपोर्ट में जगह भरने के लिए ही लिखी गयी है। खबर मिलने के बाद किसी के अंतिम संस्कार में शामिल होना एक सामान्य बात है।
दूसरी स्टोरी की पड़ताल
- अपनी दूसरी खबर में इंडियन एक्सप्रेस जस्टिस शुकरे के हवाले से लिखता है कि “जस्टिस गोसावी और वो स्वयं मेड़ेट्रीना गए। उस समय के चीफ जस्टिस मोहित शाह चूँकि शहर में थे इसलिए उन्होंने उनके प्रिंसिपल प्राइवेट सेक्रेटरी को फ़ोन किया।”
सवाल: लेकिन इस दौरान भी उन्होंने परिवार को फ़ोन करके बताना जरूरी नहीं समझा?
- डंडे अस्पताल की जिस ईसीजी रिपोर्ट को एक्सप्रेस जज लोया की ईसीजी रिपोर्ट बता रहा है उसे अगर ज़ूम करके देखिये तो उस पर 30 नवंबर की तारीख दर्ज है (बायीं ओर नीचे कोने में) जबकि खुद एक्सप्रेस के मुताबिक ये घटना 1 दिसंबर के सुबह 5 बजे की है (दीपांकर पटेल ने भी यह सवाल किया है)।
- एक्सप्रेस ने प्रशांत राठी नाम के एक शख्स को खोज निकाला है जिसको जज लोया का पार्थिव शरीर सौंपा गया था। बकौल राठी उसे उसके मौसा रुक्मेश पन्नालाल जकोटिया ने फ़ोन करके बताया कि “उनका चचेरा भाई (जज लोया) मेडिट्रीना और उन्होंने मुझे उसकी मदद करने को कहा।” जब तक राठी अस्पताल पहुंचा लोया की मौत हो चुकी थी और उसने ये सूचना जकोटिया को दी।
so days of 'investigations' by IE, NDTV give us ECG that has date, name wrong & 2 judges. These 2 judges weren't there in family testimony, weren't there as eyewitnesses to anything that transpired. Why would we ever have contacted them? Why did the IE?https://t.co/4u5HC5xXXg
— Hartosh Singh Bal (@HartoshSinghBal) November 28, 2017
सवाल: जकोटिया को ये सूचना किसने दी? जो जज लोया के परिवार को फोन नहीं कर पाए उन्होंने उनके रिश्तेदारों को कैसे ढूंढ लिया?
- प्रशांत राठी बताते हैं कि पंचनामा उनके सामने राजेश डंडे और रामेश्वर वानखेड़े द्वारा किया गया था।
सवाल: पंचनामे के वक़्त उनका मोबाइल कहां था? अगर मोबाइल उनके पास था तो उसे पंचनामे में क्यों नहीं शामिल किया गया था? अगर मोबाइल उनके पास नहीं था तो वो बहेती के पास कैसे पहुंचा?
- “जजों ने तय किया कि पोस्टमार्टम किया जाना चाहिए।”
सवाल: क्या ये फैसला लेने का अधिकार उनके पास था? क्या इसके पहले परिवार की अनुमति ली गई थी? जब मौत में कुछ संदिग्ध नहीं था तो पोस्टमॉर्टम की जरूरत क्यों महसूस हुई?
- बकौल जज गोसावी, “उन्होंने खुद डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के दो जजों को लाश के साथ जाने को कहा।”
सवाल: वो स्वयं क्यों नहीं गये जबकि उन्होंने ही दबाव बनाकर उनको घर से चलने के लिए कहा था? राठी स्वयं लाश के साथ क्यों नहीं गया जबकि लाश अब उसके सुपुर्द कर दी गयी थी?
- लाश को उनके गांव भेजने का निर्णय किसका था?
regarding date & name error on ECG. Vivek Deshpande is a fine reporter, he also bravely copes with a visual handicap. he's always accompanied by someone, needs his own notes read out to him. error then happened at top level of the IE. Not the IE I knew or worked for.
— Hartosh Singh Bal (@HartoshSinghBal) November 28, 2017