नोटबंदी के मूर्खतापूर्ण फैसले के बाद जीएसटी को जिस अनाड़ीपन के साथ लागू किया गया, उसके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था का जो हाल होना था वह आज हमारे सामने है। याद होगा कि पूर्व प्रधानमंत्री और दुनिया के कुछ जाने-माने अर्थशास्त्रियों में से एक डॉ. मनमोहन सिंह ने सरकार के इस फैसले पर टिप्पणी करते हुए इसे पहाड़ जैसी गलती और क़ानूनी लूट की संज्ञा देते हुए कहा था कि इससे हमारी जीडीपी में 2 फीसदी सालाना की गिरावट आएगी और इससे अर्थव्यवस्था को लगे झटके का प्रभाव बीस वर्षों तक महसूस किया जाएगा। मोदी सरकार उस के मंत्रीगण, बीजेपी के बड़बोले प्रवक्ता और मीडिया चाहे जितने दावे करते रहे, झूठ और प्रपंच का चाहे जैसा जाल बुने, लेकिन अर्थव्यवस्था की सचाई सामने आ चुकी है।
हमारी जीडीपी 5 फीसदी की न्यूनतम स्तर पर पहुंच गयी है। यह दर तो जीडीपी की गणना की नयी व्यवस्था के हिसाब से है जो मोदी सरकार बनने के बाद लागू की गयी थी। पुरानी गणना के हिसाब तो यह दर 3 फीसदी के आसपास ही है। बेरोज़गारी पचास वर्षों में सब से अधिक स्तर पर है। सारे कारोबार चौपट पड़े हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। अर्थव्यवस्था के जितने भी आंकड़े और जितने भी बिंदु हो सकते हैं उन्हें देखने से एक भयावह स्थिति दिखाई दे रही है। उधर नीरो चैन की बांसुरी बजा रहा है।
ऑटो, टेक्सटाइल, निर्माण, मैन्युफैक्चरिंग आदि सभी सेक्टर मंदी की ज़बरदस्त मार झेल रहे हैं। इन सेक्टरों में काम करने वाले लाखों लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है। विगत दिनों झारखंड में बीजेपी के एक नेता के नौजवान लड़के ने छंटनी के डर से आत्महत्या कर ली थी। रेलवे भर्ती का इम्तिहान देने जा रहे चार लड़कों ने यह सोच कर ट्रेन से कट कर जान दे दी थी कि नौकरी मिलना ही नहीं तो इम्तिहान क्यों देंI भारतीय रुपये के अवमूल्यन का अंदाज़ा इसी से लगा सकते हैं कि अब बांग्लादेशी टका भी उससे महंगा हो गया है। अर्थव्यवस्था की तबाही का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि सरकार ने रिजर्व बैंक के रिज़र्व फण्ड से एक लाख 76 हज़ार करोड़ रुपया उसकी गर्दन दबा कर ले लिया है।
ध्यान रहे कि रिज़र्व बैंक के सभी पूर्व गवर्नरों ने रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता पर हमले के खिलाफ आगाह कर रखा था। रघुराम राजन ने टर्म समाप्त होते ही किनारा कर लिया था। उर्जित पटेल- जिनको मोदीजी का ख़ास आदमी समझा जाता था- उन्होंने पैसा देने से इनकार करते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। बैंक के डिप्टी गवर्नर ने भी इस्तीफ़ा दे दिया तो मोदीजी ने अर्थशास्त्र के ककहरे से भी नावाक़िफ़ शक्तिकांत दास को बैंक का गवर्नर बना दिया। दास इतिहास के छात्र रहे हैं। अर्थशास्त्र से उनका कोई विशेष संबंध कभी नहीं रहा।
कहने को तो इकनॉमिक कैपिटल फ्रेमवर्क पर बिमल जालान समिति की सिफारिश पर सरकार ने रिज़र्व बैंक से उक्त रक़म ली है लेकिन दुनिया के जितने अर्थशास्त्री हैं, उन सबका एक मत है कि सरकार को केंद्रीय बैंकों के कामकाज में दखल नहीं देना चाहिए और उसकी स्वायत्तता हर हाल में बनाये रखनी जानी चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के डायरेक्टर गेरी राइस ने कहा है कि सभी देशों की सरकारें केंद्रीय बैंकों के कामकाज में दखल न दें। यही आदर्श स्थिति होनी चाहिए। सरकारें अपने लोकलुभावने कामों के लिए रिज़र्व बैंक से मनमानी काम लें तो इसका बहुत बुरा प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़ता है।
सत्तर की दहाई में युगांडा के तानाशाह इदी अमीन ने देश के केंद्रीय बैंक पर दबाव डाला कि वह और नोट छापे लेकिन बैंक के गवर्नर जोसफ मबोरो ने उनसे कहा कि नोट छापने से आर्थिक हालात और खराब होंगे इसलिए सरकार केंद्रीय बैंक के कामकाज में दखल न दे। तानाशाह को यह इनकार कहां पसंद आता। उसने जोसफ मबोरो की ह्त्या करवा दी। नये गवर्नर ने तानाशाह के आदेशानुसार नये नोट खूब छापे लेकिन इन नोटों की डॉलर और अन्य करंसी नोटों के मुक़ाबले कोई हैसियत नहीं बची। नतीजे में युगांडा की अर्थव्यवस्था चरमरा गयी। अगर उस समय उसे सउदी अरब और अन्य अरब देशों से सहायता न मिलती तो युगांडा भुखमरी का शिकार हो जाता।
फिर भी दान के सहारे देश कब तक चलता? इदी अमीन ने एशिया के लोगों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। नतीजतन पीढ़ियों से वहां रह रहे भारतीयों और अन्य देशों के लोगों को देश छोड़ना पड़ा। इसी प्रकार अर्जेंटीना की सरकार ने वहां के केंद्रीय बैंक पर दबाव डाला कि वह 6.6 बिलियन डॉलर उसे दे। बैंक के गवर्नर ने इनकार करते हुए इस्तीफ़ा दे दिया। बाद में सरकार ने यह रक़म हासिल कर ली लेकिन कुछ महीनों बाद इसके उलटे प्रभाव सामने आने लगे और अर्जेंटीना में आर्थिक इमरजेंसी लगानी पड़ी थी।
दरअसल, किसी केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता की स्थिति और उसकी बैलेंस शीट देख कर ही विदेशी निवेशक और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं उस देश में निवेश करने और क़र्ज़ देने का फैसला करती हैं। रिज़र्व बैंक से इतनी बड़ी रक़म निकाल लेने के बाद उसकी बैलेंस शीट की क्या हालत होगी यह समझा जा सकता है। भारत ने पिछले साल देश का लगभग तीन क्विंटल सोना गिरवी रख दिया था। ऐसे में विदेशी निवेशक क्या देख कर निवेश करेंगे और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं क्या देख कर क़र्ज़ देंगी, यह सोचने का विषय है। सरकार अपने में ही मस्त है। उसके लिए पाकिस्तान, कश्मीर, मुसलमान, श्मशान, क़ब्रिस्तान, आदि वोट दिलाने की मशीनें हैं ही। अर्थव्यवस्था, बेरोज़गारी, चौपट कारोबार, आत्महत्या करते किसान जाएं चूल्हे भाड़ में। अडानी अम्बानी खुश रहें, यही बहुत है।