CAA-NRC से भारत के मूल निवासियों को होने वाला खतरा अकल्पनीय है!

फरवरी 2019 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक आदेश जारी किया जिसके अनुसार भारत के वन क्षेत्र में रह रहे 21 लाख आदिवासी जो यह साबित नहीं कर पाए कि वे 2005 से पहले से इन वनों में रह रहे हैं, उन्हें जंगलों से खदेड़ दिया जाएगा। आदिवासियों के इस संकट को मोदी सरकार द्वारा लाए एनआरसी और सीएए ने और अधिक गहरा कर दिया है। जो आदिवासी 2005 से पहले जंगलों में अपनी रिहाइश साबित नहीं कर पाए, अब उन्हें 1971 से पहले भारत में अपनी रिहाइश के कागज़ात जुटाने होंगे।

आज पूरे देश में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) का विरोध चल रहा है। यह विरोध बड़े शहरों से होते हुए गांवों और कस्बों में भी पहुंच चुका है। इन विरोध प्रदर्शनों में अब तक लगभग दो दर्जन से ज्यादा लोग पुलिस की गोली से मारे जा चुके हैं। मोदी सरकार द्वारा लाया गया यह कानून न केवल इस देश की धर्मनिरपेक्षता को खत्म करता है बल्कि आदिवासी-दलित-महिलाओं समेत तमाम वंचित समुदायों के वजूद को ही खतरे में डाल देता है।

कहा जा रहा है कि जो लोग एनआरसी में अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाएंगे उन्हें सीएए के तहत नागरिकता दे दी जाएगी। नागरिकता संशोधन कानून में पांच धर्मों- हिंदू, सिख, ईसाई, जैन, पारसी और बौद्ध का तो जिक्र है लेकिन मुसलमानों का जिक्र नहीं है। यानि कि एनआरसी में बाहर हुए मुसलमान पुनः नागरिकता के लिए आवेदन नहीं कर सकते।

एनआरसी सूची से बाहर होने वाले लोग (चाहे किसी भी धर्म के क्यों न हों) अपनी नागरिकता खो देंगे। देश के नागरिक नहीं होने से उनको मतदान से वंचित कर दिया जाएगा, सभी सरकारी सुविधाएं छीन ली जाएंगी, उनकी संपत्ति जब्त कर ली जाएगी और उन्हें डिटेंशन सेंटर में भेज दिया जाएगा। एनआरसी लिस्ट से बाहर हुए सभी मुसलमानों को घुसपैठिया मानते हुए नागरिकता नहीं दी जाएगी, फिर उनका क्या होगा अभी पता नहीं। हिंदुओं और गैर-मुसलमानों को कैसे नागरिकता दी जाएगी, इसको भी समझ लीजिए- पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश या फिर अफगानिस्तान से आए हुए शरणार्थी का दावा करना होगा और भारतीय नागरिकता का आवेदन करना होगा। इसके छह साल बाद ही नागरिकता दी जा सकती है। सवाल है कि जो लोग अपने को भारत का नागरिक साबित नहीं कर पाए वह पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान के सताए हुए शरणार्थी कैसे साबित कर पाएंगे?

देशव्यापी विरोध प्रदर्शन से घबरा कर गृहमंत्री और प्रधानमंत्री का बयान आ रहा है कि नागरिकता संशोधन कानून यानि कि सीएए नागरिकता देने के लिए है न कि नागरिकता छीनने के लिए। तो सवाल उठता है कि क्या देश में पहले नागरिकता देने का कानून नहीं था? देश में नागरिकता देने का कानून 1955 में बनाया गया जिसके तहत लाखों शरणार्थियों को बिना किसी विरोध के नागरिकता दी गई और उन्हें बसाया गया। फिर 1955 के कानून में भाजपा सरकार को संशोधन करने की जरूरत क्यों पड़ी?

असम में क्या हुआ था?

दरअसल, जब असम की एनआरसी सूची में लगभग 15 लाख हिंदू और गैर-मुसलमान बाहर हो गए तो बीजेपी को यह डर सताने लगा कि यदि पूरे देश में एनआरसी लागू होगा तो कितने करोड़ हिंदू सूची से बाहर होंगे, क्योंकि एनआरसी में प्रत्येक व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि हमारे पूर्वज भारत के नागरिक थे और यहीं जन्मे थे। इतना ही नहीं, सबूतों के भी सबूत मांगे जाएंगे। जिस एनआरसी के लिए भाजपा ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया और हिंदुओं के ध्रुवीकरण का सपना देखा था वह मटियामेट हो गया।

इसलिए अमित शाह पूरे देश में एनआरसी लाने से पहले सीएए ले आए जिससे हिंदुओं को बचा लेने का भ्रम फैला सकें कि एनआरसी से बाहर हुए हिंदुओं को बचा लिया जाएगा। लेकिन क्या यह संभव है? असम एनआरसी का अनुभव तो यही बताता है कि डिटेंशन सेंटरों में नारकीय जीवन जीने वाले लोगों में हिंदू और अन्य गैर-मुसलमान भी हैं।

असम में लगभग 15 लाख हिंदुओं और गैर-मुसलमानों को कैसे नागरिकता दी जाएगी और उन्हें कहां पर बसाया जाएगा? फिर एनआरसी से बाहर रह गए लगभग 5 लाख मुसलमानों को किस देश में भेजा जाएगा? यह सवाल आज 3.4 करोड़ की आबादी वाले असम के सामने है।

पूरे भारत में यह एनआरसी लागू हुआ तो क्या होगा? मध्य प्रदेश के दैनिक अखबार ‘दबंग दुनिया’ के 3 जनवरी 2020 में निकली खबर के अनुसार अगर एनआरसी लागू होता है तो मध्य प्रदेश में 60 लाख लोग अपनी नागरिकता खो देंगे। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरे भारत में नागरिकता खोने वाले कितने लोग होंगे?

असम एनआरसी के अनुसार केवल उन्हें ही नागरिक माना जाएगा जो निम्नलिखित दस्तावेज दिखा सकेंगे-

दस्तावेज नहीं दिखा पाने के कारण लगभग 19 लाख लोग असम एनआरसी लिस्ट से बाहर हो गए। यह कौन लोग हैं? यह हैं गरीब, महिलाएं, ट्रांसजेंडर, दलित, आदिवासी, प्रवासी मजदूर, घुमंतू जातियां और समाज के वंचित लोग। और यह सभी भारतीय हैं, घुसपैठिये नहीं। इनके पास पूर्वजों से रिश्ता साबित करने वाले दस्तावेज नहीं हैं।

1.30 अरब की आबादी वाले देश में से कितने लोगों के पास सरकार द्वारा एनआरसी के लिए मांगे जाने वाले दस्तावेज होगे? इसको अगर जानना है तो इसे देश के दलित और आदिवासियों के संदर्भ में देखा जा सकता है।

दलित और आदिवासी का क्या होगा?

दलित मीडिया वाच के अरुण खोटे बताते है कि देश में दलितों की संख्या तकरीबन 18 करोड़ है जो कुल जनसंख्याँ का 21 प्रतिशत है। इनकी स्थिति को देखा जाए तो हम पाएंगे कि-

अरुण खोटे आगे कहते है कि यदि उक्त आंकड़ों की कसौटी पर केंद्र सरकार द्वारा पारित नागरिक संशोधन कानून (सीएए) और एनआरसी का अध्ययन किया जाए तो दलित वर्ग का सबसे बड़ा हिस्सा इस कानून के तहत अपनी नागरिकता को साबित करने में पूर्ण रूप से असफल रह सकता हैl

दलित मीडिया वाच की रिपोर्ट के अनुसार 21 जनवरी 2020 को बंगलुरु (कर्नाटक) में 300 परिवारों की एक दलित-मुस्लिम बस्ती को “बांग्लादेशी कॉलोनी” बताकर बिना किसी क़ानूनी प्रक्रिया या सूचना के उजाड़ दिया गया। देश भर के सभी शहरों के प्रमुख इलाकों में स्लम या मलिन बस्तियों में सबसे ज्यादा दलित और मुस्लिम समुदाय के लोग रहते हैं। इनकी नागरिकता पर संशय पैदा करके दलित बस्ती की ज़मीन पर कब्ज़ा करने की भूमाफियाओं की साजिशें शुरू हो चुकी हैं। इस एक उदाहरण से हम आने वाले खतरे का आकलन कर सकते हैं।

कमोबेश यही स्थिति देश के आदिवासियों की है। आदिवासी अपनी नागरिकता साबित कर पाएंगे या नहीं इसे हम वनाधिकार कानून 2006 के माध्यम से समझने का प्रयास करते है।

वनाधिकार कानून की नाकामी 

भारत सरकार ने आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को संसद में स्वीकारते हुए वनाधिकार कानून 2006 बनाया था। यह कानून लोगों के जंगल में बसने के अधिकार को मान्यता देता है और साथ ही उन्हें उनके पारंपरिक निवास स्थल पर मालिकाना हक के कानूनी दस्तावेज भी मुहैया कराता है। खेती के लिए प्रति परिवार 4 हेक्टेयर तक की वन भूमि का पट्टा और जंगल पर लोगों के पारंपरिक अधिकारों को मान्यता देने का वादा करता है।

जब कोई आदिवासी वन भूमि पर पट्टे के लिए दावा करता है, तो उसे 13 दिसंबर 2005 से पहले के वन भूमि पर कब्जे को साबित करने के लिए कोई दो सबूत देने होते है। एफआरए संशोधित नियम 2012 में 14 सबूतों की एक सूची दी गई है। इन सबूतों में सार्वजनिक दस्तावेज जैसे जनगणना, नक्शे, उपग्रह चित्र और सरकार द्वारा अधिकृत दस्तावेज जैसे- मतदाता पहचान कार्ड और राशन कार्ड शामिल हैं। यहां तक कि दावेदार से अधिक उम्र के गांव के दो बुजुर्ग का शपथपत्र भी प्रमाण के रूप में काम करता है।

वनाधिकार कानून पारित होने के 15 वर्ष पूर्ण होने आ रहे हैं, किन्तु जमीनी स्तर पर यह कानून अभी तक लागू नहीं हो पाया है। केन्द्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 31 मार्च 2019 तक देश में वनाधिकार के (व्यक्तिगत दावे 40,89,035 और सामुदायिक दावे 1,48,818) कुल 42,37,853 दावे प्रस्तुत हुए, जिनमें से मात्र 19,64,048 दावेदारों को पट्टे दिये गए और 17,53,504 दावेदारों के पट्टे रद्द कर दिए गए।

2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 10.45 करोड़ आदिवासी हैं। इनमें से अभी तक केवल 42.3 लाख आदिवासी ही वनाधिकार के लिए दावे दायर कर पाए, और उसमें भी महज 19 लाख दावेदारों को पट्टे दिये गए बाकी सभी के रद्द कर दिए गए।

फिर इन्ही सरकारी साक्ष्यों के आधार पर भारत का सर्वोच्च न्यायालय 13 फरवरी 2019 को 21 राज्य सरकारों को आदेश देता है कि जंगल में रह रहे “अतिक्रमणकारियों” को जंगल से बाहर निकाला जाए। करीब 21 लाख आदिवासियों को बेदखली के खतरे का सामना इसलिए करना पड़ रहा है कि वे 2005 से पहले वन भूमि पर अपने काबिज होने के सबूत नहीं दिखा पाए।

हमारे देश के आदिवासी सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी जंगलों में ही रह रहे हैं। देश का प्रत्येक व्यक्ति इस बात को जानता है। सरकार, प्रशासन, वन विभाग और न्यायपालिका भी इसे जानती है लेकिन वह सबूत मांगती है कि वह पीढ़ी दर पीढ़ी से जंगलों में ही रहते आ रहे हैं। जो लोग सबूत नहीं दे पाए उन्हें अपने ही जंगलों में “अतिक्रमणकारी” घोषित कर दिया गया।

उच्चतम न्यायालय के फरवरी 2019 में आये आदेश के खिलाफ देश के 21 राज्यों के आदिवासी और जंगल में रहने वाले अन्य लोगों को संघर्ष इसीलिए करना पड़ रहा है कि वे लोग वनाधिकार, 2006 के तहत वनवासी के रूप में अपने दावे को साबित नहीं कर पाए हैं। आदिवासी इस आदेश के खिलाफ 21 राज्यों में अभी लड़ाई लड़ ही रहे थे कि उनके सिर पर एनआरसी और सीएए की तलवार लटक गई।

विकास की अंधी दौड़ में आदिवासियों और कॉर्पोरेट के बीच प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे की लड़ाई एक लंबे समय से चल रही है जिसमें सरकारों की मदद से कॉर्पोरेट शक्तियों ने कई जगहों से आदिवासियों को उनके मूल स्थानों से विस्थापित कर दिया है। अपनी जड़ों से उखाड़े जा चुके आदिवासियों से अब सरकार मांग कर रही है कि वह अपने पुरखों के होने का सबूत दें।

ओडिशा से उठी है चिंगारी 

देश भर के आदिवासी क्षेत्रों में रहने वाले दलित और आदिवासियों में भय और आक्रोश का माहौल है। 16 जनवरी 2020 को ओडिशा के बलांगीर जिले के तुरेकेला ब्लॉक के गोधरामुंडा गाँव में सीएएए, एनआरसी के खिलाफ गाँव  सभा का आयोजन किया गया। जिंदाबाद संगठन से त्रिलोचन पूंजी का कहना है कि गाँव सभा ने एक स्वर में सीएएए और एनआरसी के खिलाफ प्रस्ताव पारित करते हुए कहा कि यह दलित और आदिवासी विरोधी कानून है।

दरअसल, यह कानून न सिर्फ आदिवासियों से उनके जल-जंगल-जमीन छीन कर उसे कॉर्पोरेट के हाथ में बेचने की साजिश है बल्कि इसकी वजह से आदिवासी अपनी मूल पहचान भी खो देंगे। अभी तक यह आदिवासी संविधान के विभिन्न प्रावधानों के जरिए अपने प्राकृतिक संसाधनों पर जम कर बैठे हुए हैं और सरकारों की तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें खाली नहीं करा पा रही है इसलिए सरकार अब उनकी नागरिकता ही रद्द करने की योजना बना रही है जिससे वे किसी भी संवैधानिक अधिकार के लिए योग्य नहीं रह जाएंगे और उन्हें बड़े आराम से डिंटेशन सेंटरों में भेजकर उनके प्राकृतिक संसाधनों का सौदा किया जा सकेगा।

तुरेकेला ब्लॉक के 15 गांव सभाओं ने अब तक एनआरसी के खिलाफ अपनी गाँव सभाओं में प्रस्ताव पारित किये है और यह प्रक्रिया लगातार जारी है। त्रिलोचन पूंजी अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि एनआरसी का दुष्प्रभाव देश के वंचितों, पिछड़े-अतिपिछड़ों, दलित-महादलितों, आदिवासियों और मुसलमानों पर पड़ेगा। इसलिए आप देखेंगे कि आने वाले दिनों में इन क्षेत्रों में विरोध का व्यापक विस्तार होगा, क्योंकि एनआरसी से सबसे ज्यादा परेशानी इन्ही लोगों को होने वाली है जिनके पास अपनी पहचान साबित करने का कोई प्रमाण नहीं है और यह हमने वनाधिकार कानून में भी देखा कि सदियों से वन में निवास करने वाले समुदाय अपने 2005 के भी सबूत नहीं दे पाए।

इन आंकड़ों के विश्लेषणों से हम समझ सकते है कि दलित और आदिवासी समुदाय अपनी नागरिकता को साबित करने के दस्तावेज देने में पूर्ण रूप से असफल साबित होंगे। इन तथ्यों के प्रति सरकार की अनदेखी दलितों और आदिवासियों के खिलाफ़ एक बड़ी साजिश का अहसास कराती है।

First Published on:
Exit mobile version