चुनाव चर्चा: सपा-बसपा गठबंधन से क्यों उड़ी नींद बीजेपी की !

सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस के साथ नहीं रहने से जो त्रिकोणीय चुनावी मुकाबला होगा उसके कारण भाजपा को और भी ज्यादा नुकसान होगा।

चंद्र प्रकाश झा 

आम चुनाव के पहले उत्तर प्रदेश में वही हुआ जिसकी भारतीय जनता पार्टी को आशंका थी और जिसे रोकने मोदी सरकार ने कथित तौर पर सीबीआई जांच से पूर्व मुख्यमंत्री एवं समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश सिंह यादव को डराना चाहा। शायद यह सोच कि डर के आगे जीत है, अखिलेश यादव और पूर्व मुख्यमंत्री एवं बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने 12 जनवरी को लखनऊ में संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में 17 वीं लोकसभा चुनाव के लिए दोनों पार्टियों के गठबंधन की औपचारिक घोषणा कर दी। इसमें पूर्व केंद्रीय मंत्री अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) और निषाद पार्टी को भी शामिल करने की घोषणा की गयी है। कांग्रेस को इससे ‘ लगभग बाहर ’ रखा गया है. गठबंधन की तरफ से कांग्रेस के युनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस (यूपीए) की अध्यक्ष सोनिया गांधी की ‘ परम्परागत’ लोक सभा सीट रायबरेली और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की सीट अमेठी में प्रत्याशी नहीं होगा। 

इस गठबंधन के तहत प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 37-37 पर सपा और बसपा के प्रत्याशी होंगे। तीन सीटें रालोद और एक सीट निषाद पार्टी के लिए छोड़ दी जायेंगी। रालोद को बागपत, मथुरा और कैराना की सीट मिल सकती है। रालोद अध्यक्ष अजित सिंह बागपत से और उनके पुत्र एवं पूर्व सांसद जयंत सिंह मथुरा से चुनाव लड़ते रहे है। कैराना वह सीट है जहां 2018 के उपचुनाव में रालोद की तबस्सुम हसन ने बसपा और कांग्रेस के समर्थन से भाजपा को परास्त किया था। गठबंधन के बीच सीटों का अंतिम बँटवारा बाद में किया जा सकता है, इसलिए उनकी संख्या और पह्चान बदल भी सकती है।

अखिलेश यादव ने खुला आरोप लगाया था कि मोदी सरकार, सपा -बसपा पर दबाब डालने के प्रयास में सीबीआई का दुरूपयोग कर रही है। मायावती ने भी कुछ ऐसा ही कहा था। मायावती के अनुसार भाजपा और कांग्रेस की सोच एक है। गठबंधन को कांग्रेस के साथ से फायदा नहीं होने वाला है क्योंकि अनुभव यही है कि कांग्रेस के वोट ट्रांसफर नहीं होते। उन्होंने सपा-बसपा गठबंधन के तीन बरस बाद निर्धारित विधान सभा चुनाव में भी बने रहने की घोषणा की अखिलेश यादव प्रधान मंत्री पद के लिए दावेदारी पूछे जाने पर सतर्क जवाब दिया कि प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश से हो। उनके जवाब को कुछ टीकाकारों ने प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती की दावेदारी का समर्थन माना है। 

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार सपा-बसपा गठबंधन बहाल हो जाने से प्रदेश में राजनीतिक माहौल बदलना शुरू हो गया है। अगर माहौल यही रहा तो भाजपा को प्रदेश में 2014 के लोकसभा चुनाव का अपना प्रदर्शन दोहराना लगभग असंभव हो सकता है। उस चुनाव में भाजपा ने 71 और उसके सहयोगी अपना दल ने दो सीटें जीती थीं, बसपा का सूपड़ा साफ हो गया था और समाजवादी पार्टी के पांच बड़े नेता ही जीत सके थे। कांग्रेस को भी रायबरेली और अमेठी की सीट जीतने में मुश्किल हुई थीं। राज्य की आबादी में जो करीब 50 प्रतिशत  अन्य पिछड़े वर्ग के लोग और दलित हैं उनका रूझान सपा और बसपा की तरफ बताया जाता है। उसे मुस्लिम समुदाय का भी समर्थन मिलने की संभावना है, जो कुल आबादी के करीब 18 प्रतिशत माने जाते हैं। विश्लेषकों का कहना है कि शहरी मध्य वर्ग का योगी सरकार के कामकाज और आये दिन की आपराधिक घटनाओं के कारण भाजपा से मोहभंग हुआ है। लेकिन भाजपा समर्थकों को लगता है कि मोदी जी के चुनावी तरकश में बहुत तीर है, चुनाव में समय बचा है और मोदीजी  स्थिति संभाल सकते हैं। सरकारी नौकरियों और शिक्षा में कथित ऊंची जातियों को आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए पारित हालिया संविधान संशोधन अधिनियम से भाजपा समर्थकों को बड़ी आशाएं है। लेकिन उसका कितना चुनावी असर हो सकेगा इसका निश्चित आकलन नहीं  हैं। सी-वोटर के दिसंबर 2018 के सर्वे के मुताबिक आम चुनाव में भाजपा को 36 और महागठबंधन को 42 सीटें मिलने का अनुमान है जो 2014 के लोक सभा चुनाव में गैर भाजपा दलों के वोटों का बँटवारा नहीं होने की स्थिति में परिणाम की आंकी तस्वीर जैसी है। अगर आम चुनाव में भाजपा से 3 प्रतिशत वोट भी छिटकता है तो उसे 17 सीटें ही मिल सकेगी। उसका वोट पांच प्रतिशत छिटकने पर भाजपा का सूपड़ा साफ होने का अनुमान है।

2014 के चुनाव में भाजपा को 43.3 प्रतिशत मत मिले थे , जो अलग चुनाव लड़ने वाले सपा, बसपा और रालोद के कुल वोट शेयर 43.1 प्रतिशत से कुछ ही ज्यादा थे। वोट शेयर में ज्यादा अंतर नहीं होने के बावजूद भाजपा के ज्यादा सीटें जीतने का कारण गैर-भाजपा दलों के वोटों का बँटवारा माना जाता है। यह बाद में गोरखपुर, फुलपुर और कैराना उपचुनाव   भाजपा विरोधी वोट  का बँटवारा कम होने से स्पष्ट हो गया। फूलपुर उपचुनाव में सपा को 47 प्रतिशत वोट मिले थे और भाजपा का वोट शेयर 2014 के 52.4 प्रतिशत से घटकर 38 .8 प्रतिशत रह गया। गोरखपुर उपचुनाव में भी सपा प्रत्याशी की जीत बसपा और निषाद पार्टी के समर्थन से हुई। वहाँ परास्त कांग्रेस का वोट शेयर सिर्फ 2 प्रतिशत था। कैराना में रालोद को 51.3 प्रतिशत और भाजपा को 46.5 प्रतिशत वोट मिले। गैर-भाजपा दलों के वोट  का बँटवारा होने से 2017 के विधान सभा चुनाव में अन्य दलों के कुल 45.6 प्रतिशत वोट की तुलना में भाजपा गठबंधन को 41.4 प्रतिशत वोट मिलने के बावजूद 312 सीटें मिल गईं। विधान सभा चुनाव में सपा और कांग्रेस का गठबंधन था।

समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का चुनावी गठबंधन पहली बार नहीं हुआ है। उत्तर प्रदेश विधान सभा के 1993 में हुए चुनाव के वक़्त दोनों के बीच पहला गठबंधन हुआ था। वह गठबंधन उत्तर प्रदेश में भाजपा शासन काल में अयोध्या में 06 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वस्त कर देने के बाद उत्पन्न राजनीतिक परिस्थितियों में तब हुआ था जब बसपा संस्थापक कांशीराम जीवित थे। तब बसपा में मायावती का वर्चस्व नहीं था। उस चुनाव में भाजपा की शिकस्त का कारण सपा-बसपा का गठबंधन ही माना जाता है। यह गठबंधन नया राजनीतिक प्रयोग था जिसकी जीत की कल्पना बहुतेरे दिग्गज नेताओं को भी नहीं थी। दोनों दलों की राज्य में सपा नेता मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व में साझा सरकार बनी। कांशीराम अक्सर कहा करते थे कि बसपा अपने आप में बहुजन समाज की विभिन्न ताकतों का गठबंधन है। वह चाहते थे कि सपा, प्रदेश की बागडोर संभाले और बसपा केंद्रीय सत्ता में अपनी दावेदारी बढ़ाए। वह विधान सभा चुनाव में सपा को 60 प्रतिशत और बसपा को 40 प्रतिशत हिस्सेदारी देने की बात कह यह कहते थे कि लोकसभा चुनाव में उसकी हिस्सेदारी का अनुपात बदल कर ठीक उलटा हो जाए।

भाजपा को सपा-बसपा गठबंधन की साझा सरकार रास नहीं आयी।  हम उन कारणों की चर्चा बाद में करेंगे जिनसे अगला लोक सभा चुनाव होने से पहले 1995 में बसपा के समर्थन की वापसी से मुलायम सिंह यादव सरकार गिर गई। मौके की ताक में बैठी भाजपा के समर्थन से मायावती की पहली सरकार बन गई। भाजपा के समर्थन से चार बार मायावती सरकार बनी जिनमें से एक बार भाजपा भी शामिल थी। लेकिन भाजपा से बसपा ने कभी औपचारिक चुनावी गठबंधन नहीं किया है। अलबत्ता, सपा से गठबंधन टूट जाने के बाद बसपा ने एक बार तब 1996 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस से चुनावी गठबंधन किया जब केंद्र में पी.वी.नरसिम्हा राव की सरकार थी। बसपा ने तब अविभक्त उत्तर प्रदेश की विधान सभा की 425 में से 300 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े कर कांग्रेस को 125 सीटें ही आवंटित की थी। उस चुनाव में किसी भी पक्ष को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। इस कारण बसपा ने  भाजपा से फिर हाथ मिलाकर सरकार बनाई, जिसका आधार था कि ऐसी साझा सरकार में मुख्यमंत्री दोनों के बारी-बारी से बने। वह  हिन्दुस्तान में ‘ चक्कर वार ‘ सरकार का पहला प्रयोग था, जो सफल नहीं हुआ। पहली बारी,  बसपा को मिली जिसने भाजपा की बारी ही नहीं आने दी।

लोकसभा की सर्वाधिक 80 सीटों वाले इस राज्य में भाजपा के जीते बगैर मोदी जी का फिर प्रधानमंत्री बनना आसान नहीं होगा। मोदी जी अवगत हैं कि प्रदेश में भाजपा के अपने दम पर सत्तारूढ़ होने के बाबजूद गोरखपुर,  फूलपुर और कैराना लोकसभा उपचुनाव में उनकी पार्टी की हार के क्या मायने हैं। पिछले आम चुनाव में भाजपा ने ये तीनों सीटें जीती थीं। गोरखपुर तो मुख्यमंत्री योगी जी का बरसों से गढ़ रहा। भाजपा के कट्टर समर्थकों को लगता है कि चुनाव का वक़्त आते-आते अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का रास्ता अदालती आदेश से साफ हो सकता है। उनकी यह भी उम्मीद है कि भाजपा और उसकी सरकार द्वारा कश्मीर से लेकर असम तक में मुस्लिम समुदाय के कथित तुष्टिकरण के विरोध में अपनाई  नीतियों से हिंदुत्व ध्रुवीकरण तेज होगा  जो भाजपा के चुनावी वैतरणी पार करने में तुरूप का पत्ता साबित हो सकता है।

कुछ टीकाकारों को लगता है उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस के साथ नहीं रहने से जो त्रिकोणीय चुनावी मुकाबला होगा उसके कारण भाजपा को और भी ज्यादा नुकसान होगा। कांग्रेस को फायदा ही होगा और 2019 के चुनाव के परिणाम 2009 जैसे निकल सकते है। कांग्रेस ने 2009 में 22 लोकसभा सीटें जीती थी। गठबंधन की घोषणा के दिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी दुबई में थे। वहाँ उन्होने कहा कि वह गठबंधन के दलों का सम्मान करते हैं और  कांग्रेस, भाजपा को परास्त करने अपने दम पर चुनाव लड़ेगी। बाद में कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा  कि उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश की सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगी। खबर है कि रालोद,  अपना दल का एक गुट ,पीस पार्टी और सपा से अलग होकर  शिवपाल यादव की  बनाई प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) ने कांग्रेस से गठबंधन करने के संकेत दिए हैं। यह भी खबर है कि कांग्रेस कुछ छोटे दलों को करीब 20 सीटें देकर शेष सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े कर सकती है। कांग्रेस के उन्हीं सीटों पर ध्यान केंद्रित करने की संभावना है जहां उसके चुनाव लड़ने से मुख्यतः भाजपा को नुकसान होगा।

बहरहाल, देखना यह है कि भाजपा उत्तर प्रदेश में जीत के लिए आगे क्या करती है। संभव है कि आगामी चुनाव तक और चुनाव के बाद भी मौजूदा गठबंधन के रूप बदल सकते हैं।

(मीडिया विजिल के लिए यह विशेष श्रृंखला वरिष्ठ पत्रकार चंद्र प्रकाश झा लिख रहे हैं, जिन्हें मीडिया हल्कों में सिर्फ ‘सी.पी’ कहते हैं। सीपी को 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण, फोटो आदि देने का 40 बरस का लम्बा अनुभव है।)

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