एक संभावना भरा प्रयोग कैसे क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ गया

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी का पांच महीने पुराना गठबंधन खत्म हो गया। इसके खात्मे का एकतरफा ऐलान बसपा सुप्रीमो मायावती ने किया। उनके इस फैसले से उत्तर भारत की राजनीति में दलित-पिछड़ा और किसान जातियों की एकता के एक संभावना भरे प्रयोग का ही नहीं, बल्कि उस सपने का भी फिलहाल अंत हो गया जो कभी आंबेडकर और लोहिया ने देखा था।

मायावती ने लोकसभा चुनाव में गठबंधन की हार का पूरा ठीकरा सपा के माथे पर फोड़ते हुए कहा कि वह अपना मूल जनाधार खो चुकी है, इसी वजह से वह न तो अपनी परंपरागत सीटें जीत पाई और न ही बसपा उम्मीदवारों को अपना वोट दिला पाई। यह कहते हुए मायावती ने ऐलान किया है कि उनकी पार्टी का सपा के साथ गठबंधन फिलहाल ‘स्थगित’ रहेगा और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव जब भी अपनी पार्टी की कमियों को दूर कर लेंगे, यह गठबंधन फिर प्रभावी रूप से काम करने लगेगा।

आमतौर पर राजनीति में दो या दो अधिक दलों के बीच गठबंधन होने या टूटने की घटनाएं तो आम हैं लेकिन बसपा सुप्रीमो ने गठबंधन की राजनीति में ‘स्थगित गठबंधन’ के रूप में एक नई शब्दावली ईजाद की है। मायावती इस शब्दावली की चाहे जो व्याख्या करे, लेकिन व्यावहारिक तौर पर इसका अर्थ यही है कि सपा के साथ उनकी पार्टी का गठबंधन समाप्त हो गया है। खुद अखिलेश यादव भी ऐसा ही मान रहे हैं।

चुनाव में गठबंधन को मिली शिकस्त को लेकर जो तोहमत मायावती ने अखिलेश यादव और उनकी पार्टी पर लगाई, वही तोहमत उन्होंने गठबंधन के एक अन्य साझेदार राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के नेता चौधरी अजित सिंह पर भी जड़ी और कहा कि वे भी अपना आधार वोट बसपा को दिलाने में नाकाम रहे। यह कहकर उन्होंने सीधे तौर पर साफ कर दिया कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 10 सीटों पर बसपा को मिली जीत में सपा और रालोद का कोई योगदान नहीं रहा। प्रकारांतर से उन्होंने यह जताने की भी कोशिश की है कि उनका दलित जनाधार अब भी उनके साथ है। जबकि हकीकत यह है कि मायावती से दलितों का व्यापक तौर पर मोहभंग हो चुका है, जिसकी वजह से बसपा के प्रभाव वाली कई सीटें इस बार भाजपा की झोली में चली गईं। बसपा से गठबंधन का सपा और रालोद को भी कोई फायदा नहीं मिला।

दरअसल, पांच महीने पहले जब सपा और बसपा ने अपनी करीब ढाई दशक पुरानी दुश्मनी को भुलाकर गठबंधन किया था तो उसे उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ऐतिहासिक और निर्णायक घटना के तौर पर देखा गया था। उम्मीद जताई जा रही थी यह गठबंधन न सिर्फ उत्तर प्रदेश में चमत्कारिक जीत हासिल करेगा बल्कि समूचे उत्तर भारत की राजनीति में दलितों, पिछडे वर्गों और किसान जातियों की एकता का वाहक भी बनेगा, जिसकी कल्पना कभी आंबेडकर और लोहिया ने की थी। इस गठबंधन को मायावती की उस महत्वाकांक्षा से भी जोड़ कर देखा जा रहा था जो वर्षों से उनके मन में पल रही थी, और जिसे पूरा होने का सपना देखते-देखते ही उनके मार्गदर्शक और बसपा के संस्थापक कांसीराम इस दुनिया से विदा हो गए।

मायावती की महत्वाकांक्षा थी प्रधानमंत्री बनने की। उनका अनुमान था कि लोकसभा चुनाव में किसी भी दल या गठबंधन को बहुमत नहीं मिलेगा और त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में वह अपने गठबंधन के संख्याबल के बूते अपनी महत्वाकांक्षा को आकार देने की स्थिति में होंगी। उनकी इस महत्वाकांक्षा को गठबंधन बनने के बाद सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी सार्वजनिक तौर पर सहलाने में कोई संकोच नहीं किया।

दरअसल, राजनीति में हकीकत से ज्यादा सपने करामात दिखाते हैं। मायावती का भी देश की पहली दलित प्रधानमंत्री बनने का सपना नया नहीं है। 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाने का नारा भी दिया था। तब वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं। उन्हें उम्मीद थी कि त्रिशंकु लोकसभा आएगी और ऐसे में उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी करने का अवसर मिलेगा। लेकिन कांग्रेस फिर से सरकार बनाने में कामयाब हो गई और मायावती की हसरत अधूरी रह गई । 2013 में तो उन्होंने अपनी पार्टी द्वारा आयोजित ब्राह्मण महासम्मेलन में मंत्रोच्चार, शंख, घंटे, घडि़याल और नारों के बीच खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया था। उन्हें उम्मीद थी कि उनका बनाया दलित-ब्राह्मण गठजोड़ चुनाव में रंग लाएगा, लेकिन चुनाव के नतीजे आए तो उनकी पार्टी का खाता तक नहीं खुल पाया। ब्राह्मण पूरी तरह उनसे छिटक गए जो कि अपनी तात्कालिक राजनीतिक जरुरतों के लिए ही उनसे जुड़े थे। उनका दलित जनाधार भी बुरी तरह दरक गया। उत्तर प्रदेश की 80 में से एक भी सीट उन्हें हासिल नहीं हुई और ज्यादातर सीटों पर बसपा के उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई।

उत्तर प्रदेश में उनके दलित जनाधार में क्षरण का सिलसिला 2017 के विधानचुनाव में भी जारी रहा, लेकिन प्रधानमंत्री बनने की उनकी हसरत अंगड़ाई लेती रही। 2019 के आम चुनाव में त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति बनने के कयासों के मद्देनजर उन्होंने अपने समर्थकों के बीच दलित प्रधानमंत्री के सपने को हवा देना जारी रखा। पिछले साल मई के महीने में लखनऊ में हुई बसपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भी सबसे ज्यादा दलित प्रधानमंत्री का राग ही अलापा गया था। बैठक में विभिन्न सूबों से आए बसपा नेताओं ने मीडिया के सामने हर मौके पर एक ही बात कही थी कि अगले चुनाव के बाद बहनजी को प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए। उसके बाद खुद मायावती ने भी विपक्षी दलों में अपनी स्वीकार्यता बनाने-बढ़ाने के मकसद से कई मौकों पर लचीला रवैया अपनाया। इस सिलसिले में पिछले साल उत्तर प्रदेश में लोकसभा की तीन सीटों के लिए हुए उपचुनाव में उन्होंने दो सीटों पर समाजवादी पार्टी को और एक पर राष्ट्रीय लोकदल को बिना शर्त समर्थन दिया था। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में हालांकि उन्होंने कांग्रेस के गठबंधन के प्रस्ताव को ठुकराते अकेले ही चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी। तीनों ही राज्यों में बसपा न तो सीटों के लिहाज से और न ही प्राप्त वोटों के प्रतिशत के लिहाज से पिछले चुनावों के अपने प्रदर्शन को दोहरा सकी।

संभवत: तीन राज्यों में उम्मीद के मुताबिक नतीजे न मिलने की वजह से ही उन्होंने उत्तर प्रदेश में सब कुछ भूल कर समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाया। इस बीच उन्होंने अपनी छवि बदलने का प्रयास भी किया है। इस सिलसिले में उन्होंने पहली बार अपना जन्मदिन परंपरागत तड़क-भड़क से न मनाते हुए बहुत ही साधारण तरीके से मनाया और इस अवसर पर हमेशा की तरह अपने समर्थकों से कीमती उपहार या चंदे के बतौर नकद राशि भी नहीं ली। उनके भाषणों में ‘मनुवाद’ शब्द का भी लोप हो गया। आर्थिक आधार पर दस फीसदी आरक्षण के मोदी सरकार के प्रस्ताव का समर्थन करने में भी कोई देरी नहीं की, यह जानते हुए भी कि यह प्रस्ताव आरक्षण की संवैधानिक अवधारणा के पूरी तरह खिलाफ है।

दरअसल, मायावती पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से ही अपने राजनीतिक जीवन के बेहद चुनौती भरे दौर से गुजर रही है। पिछली लोकसभा में उनकी पार्टी प्रतिनिधित्वविहीन थी और उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भी उनकी पार्टी महज 17 सीटें ही जीत सकी, जो कि बसपा के इतिहास में अब तक की न्यूनतम स्थिति है। अन्य राज्यों की विधानसभाओं में भी बसपा का प्रतिनिधित्व लगातार कम होता गया और प्राप्त वोटों के प्रतिशत में भी गिरावट आई, जिसके चलते उसकी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी की मान्यता खत्म होने का खतरा मंडरा रहा था। इसलिए कुल मिलाकर 2019 का लोकसभा चुनाव मायावती के राजनीतिक जीवन का सबसे निर्णायक चुनाव रहने वाला था। उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को मिलने वाली सीटों पर ही उनका और उनकी पार्टी का राजनीतिक भविष्य टिका था। यही वजह है कि उन्होंने सपा से गठबंधन करते हुए उससे अपनी ढाई दशक पुरानी अदावत और अपने साथ हुए लखनऊ के कुख्यात गेस्ट हाउस कांड की कसैली यादों को भी भुला दिया था।

इस गठबंधन को लेकर सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव खुश नहीं थे, लेकिन अखिलेश गठबंधन की सफलता को लेकर इतने अधिक आशान्वित थे कि उन्होंने अपने पिता की असहमति को कोई तवज्जो नहीं दी। दरअसल, गठबंधन का फैसला करते वक्त मायावती और अखिलेश के बीच यह सहमति भी बनी थी कि चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी राष्ट्रीय राजनीति में मायावती का और बसपा उत्तर प्रदेश की राजनीति में अखिलेश का समर्थन करेगी। अखिलेश तो इस गठबंधन में कांग्रेस को भी शामिल करना चाहते थे, लेकिन मायावती के दबाव में उन्हें अपना यह आग्रह छोडना पड़ा था।

कहा जाता है कि इस गठबंधन से कांग्रेस को अलग रखने का फैसला मायावती और भाजपा नेतृत्व के बीच बनी आपसी समझदारी का नतीजा था। इसी समझदारी के चलते चुनाव अभियान के दौरान मायावती ने अपने भाषणों और बयानों में भाजपा से ज्यादा कांग्रेस को ही अपने निशाने पर रखा। यहां तक कि जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी पार्टी की ओर ‘न्यूनतम आमदनी गारंटी’ योजना प्रस्तुत की थी तो उस पर भी भाजपा से ज्यादा तीखी प्रतिक्रिया मायावती ने जताई थी। अखिलेश ने राहुल की इस योजना पर हालांकि कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी लेकिन मायावती को लग रहा था कि राहुल की इस योजना से उनका दलित जनाधार प्रभावित हो सकता है, लिहाजा उन्होंने राहुल पर निशाना साधते हुए इस योजना की खिल्ली उड़ाने में देरी नहीं की थी। उन्होंने अपने जनाधार वर्ग को सचेत किया था कि वह किसी तरह की झांसेबाजी या लालच में न फंसे। सक्रिय राजनीति में प्रियंका गांधी की एंट्री पर भी जहां अखिलेश ने बेहद सधी हुई प्रतिक्रिया देते हुए राजनीति में उनके उतरने का स्वागत किया था, वहीं मायावती ने तीखी प्रतिक्रिया जताई थी। दरअसल, ऐसा करके एक तरह से उन्होंने भाजपा को संदेश दिया था कि उनका सपा के साथ गठबंधन जरूर है लेकिन कांग्रेस से संबंधों को लेकर वह सपा से अलग लाइन भी ले सकती हैं। उनकी यह लाइन मौका आने पर भाजपा से सहयोग का रास्ता खुला रखने का संकेत थी।

लोकसभा चुनाव के पहले से लेकर अभी तक की मायावती की राजनीतिक पैंतरेबाजी पर जाने-माने दलित चिंतक और साहित्यकार कंवल भारती कहते हैं, ‘मायावती की ही नहीं, बल्कि कांसीराम की भी समूची राजनीति भाजपा को ताकत देने वाली रही है। उनके आंदोलन की रूपरेखा भी आरएसएस ने ही तैयार की थी और उन्हें आर्थिक मदद भी संघ ने उपलब्ध कराई थी। मकसद था कांग्रेस और वामपंथी दलों से बहुजन वर्ग को अलग करना। मायावती जो कुछ कर रही हैं, उसमें नया कुछ नहीं है बल्कि वे कांसीराम के रास्ते पर ही चल रही हैं।’

कंवल भारती की राय अपनी जगह है, लेकिन यह तो हकीकत है कि बसपा और भाजपा को कभी भी एक दूसरे से परहेज नहीं रहा। उत्तर प्रदेश में तीन मर्तबा भाजपा के समर्थन से मायावती का मुख्यमंत्री बनना इस बात का प्रमाण है। यह और बात है कि तीनों मर्तबा समर्थन वापस लेकर उनकी सरकार गिराने का श्रेय भी भाजपा के ही खाते में दर्ज है। मायावती ने भी मौके-मौके पर भाजपा का समर्थन करने से परहेज नहीं बरता। उन्होंने 2002 में तो गुजरात विधानसभा के चुनाव में भाजपा के समर्थन में वहां जाकर रैलियां भी की थीं और केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को भी कई मौकों पर परोक्ष समर्थन दिया।

बहरहाल, अब लोकसभा चुनाव हो चुके हैं। मायावती सपा के साथ गठबंधन के जरिए जो हासिल करना चाहती थीं, वह तो नहीं कर पाईं लेकिन लोकसभा की दस सीटें जीत कर उत्तर प्रदेश की राजनीति में खुद की प्रासंगिकता बनाए रखने में वे कामयाब रही हैं। उनकी निगाहें फिर से सूबे की राजनीति पर ही केंद्रित हैं। इसीलिए उन्होंने उपचुनाव में सभी 11 सीटों पर अपनी पार्टी के अकेले ही लड़ने का फैसला किया है। लेकिन एक छोटे लक्ष्य को हासिल करने के चक्कर में सपा से गठबंधन खत्म कर उन्होंने उत्तर प्रदेश में ढाई दशक बाद दलित-पिछड़ा और किसान एकता की जो संभावनाएं बनी थीं, उस पर पानी फेरने का ही काम किया है।


लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं

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