अभिषेक श्रीवास्तव
बहुत दिन नहीं बीते जब अकादमिक जर्नल इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के संपादक रहे परंजय गुहा ठाकुरता को एक स्टोरी के चलते बोर्ड के दबाव में इस्तीफ़ा देना पड़ गया था। यह तब हुआ जब कहानी छप गई। हिंदी की दुनिया के मुकाबले इसे एक सहूलियत ही समझा जाना चाहिए क्योंकि दिल्ली के सेंटर काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट (सीएसडी) से पहला अंक प्रकाशित होने से पहले ही सामाजिक विज्ञान के अकादमिक जर्नल ”सामाजिक विमर्श” की भ्रूण हत्या कर दी गई है। इसके संपादक प्रो. अपूर्वानंद और प्रबंध संपादक ध्रुव नारायण ने 7 अक्टूबर, 2017 को संस्थान के अध्यक्ष प्रोफेसर मुचकुंद दुबे को अलग-अलग पत्र लिखकर अपना इस्तीफ़ा भेजा है और संस्थान पर बेहद गंभीर आरोप लगाए हैं।
पिछले एक साल से ज्यादा वक्त से सीएसडी की ओर से सामाजिक विज्ञान पर एक गंभीर अकादमिक जर्नल निकालने के प्रयास हो रहे थे। सीएसडी के अध्यक्ष प्रो. मुचकुंद दुबे जाने-माने बुद्धिजीवी और शिक्षाशास्त्री हैं जिनकी हाल ही में लालन फ़कीर पर एक शोध पुस्तक प्रकाशित हुई है। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद को प्रस्तावित पत्रिका के संपादन के लिए बुलाया था। प्रबंध संपादक का जिम्मा दानिश बुक्स के प्रकाशक रहे ध्रुव नारायण ने संभाला था। पत्रिका को अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक ‘सेज’ से छपकर आना था, जिसके लिए एक साल से सामग्री जुटायी जा रही थी। पहला अंक तैयार पड़ा था और आगे के दो अंकों की सामग्री भी जुट चुकी थी, कि अचानक संस्थान ने पत्रिका के प्रकाशन पर तलवार चला दी।
प्रो. अपूर्वानंद और ध्रुव नारायण के लंबे त्यागपत्र को पढ़ने से पता चलता है कि सीएसडी का प्रशासन शुरू से ही हिंदी में एक समाजशास्त्रीय जर्नल को लेकर बहुत उत्साहित नहीं था लेकिन जब पहले अंक की सामग्री आई, तो बात और ज्यादा साफ़ हुई। अपूर्वानंद अपने इस्तीफ़े में लिखते हैं, ”एक से ज्यादा मौकों पर मुझसे यह कहा गया कि संपादकीय टीम का विचाराधारात्मक रुझान पत्रिका के पंजीकरण में हो रहे विलंब के लिए जिम्मेदार है। मान लिया गया था कि जर्नल की सामग्री सरकार विरोधी है और यही वजह है कि सरकारी एजेंसियां पंजीकरण संख्या नहीं दे रही हैं या उसमें विलंब कर रही हैं। मुझसे यह भी कहा गया कि एक ऐसी धारणा बन रही है जैसे कि सामग्री में योगदान देने वाले लेखक एक खास विचारधारा से आते हैं और विचारों की विविधता गायब है।”
प्रबंध संपादक ध्रुव नारायण इस संदर्भ में अपने इस्तीफ़े में लिखते हैं, ”मैं इस बात का जि़क्र करना चाहूंगा कि ‘सेज’ ने हमसे भारत के वाम आंदोलन पर प्रफुल बिदवई की किताब की एक समीक्षा हटाने का आग्रह किया था क्योंकि उसमें पिछले साल जेएनयू के घटनाक्रम का संदर्भ था। ‘सेज’ के प्रतिनिधि ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय के एक क्लर्क से हुई बातचीत के आधार पर पहले अंक से इस पीस को हटाने का सुझाव दिया था। मैंने अपने ज़मीर के खिलाफ़ जाकर उनके आग्रह को माना, बावजूद इसके कि उक्त समीक्षा वामपंथी राजनीति के प्रति आलोचनात्मक थी जिसमें उसकी नराकामियों और गड़बडि़यों की ओर इशारा किया गया था।”
”सामाजिक विर्श” के पहले अंक के लिए इस लेखक से भी एक अकादमिक लेख मंगवाया गया था। यह बात पिछले साल अक्टूबर की है। अगस्त में गुजरात के ऊना में हुई दलित-विरोधी हिंसा के बाद इस लेखक ने क्षेत्र का दौरा किया था और वहां दलित-विरोधी राजनीति और समाजशास्त्र को समझने की कोशिश की थी। उस यात्रा के आधार पर दलित-विरोधी गो-राजनीति पर एक लंबा अकादमिक लेख पहले अंक के लिए लिखा गया था। ध्रुव नारायण लिखते हैं कि यह लेख दलित आंदोलन की नाकामियों और मोटे तौर पर वामपंथी राजनीति की असफलताओं की ओर इशारा करता था, बावजूद इसके ”निदेशक ने लेख के सार पर निगाह डाले बगैर उसके शीर्षक के आधार पर अपनी राय कायम कर ली और उसे नहीं छापने का आग्रह किया।” चूंकि उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद वह लेख वैसे भी पुराना पड़ चुका था, लिहाजा संपादकों ने निदेशक से इस पर कोई बहस करना ठीक नहीं समझा। ध्रुव नारायण से भी यही कहा गया था कि अधिकतर लेखों की दिशा सरकार-विरोधी है। वे लिखते हैं कि ऐसा कहे जाने पर वे चौंक गए थे।
अपने इस्तीफ़े में ध्रुव नारायण ने बिंदुवार गिनवाया है कि कैसे इस अजन्मी पत्रिका की शुरू ही भ्रूण हत्या करने की साजिश रची जा रही थी। पहले तो सीएसडी के निदेशक डॉ. अशोक पंकज ने पदभार ग्रहण करते ही मुद्दा उठाया कि एफसीआरए यानी विदेशी अनुदान प्राप्तकर्ता होने के नाते वे पत्रिका नहीं छाप सकते। उस वक्त निदेशक ने उपाध्यक्ष डॉ. मनोरंजन मोहंती को बाइपास करते हुए सेज प्रकाशन के प्रतिनिधियों के साथ बैठक की। बाद में यह साफ़ हुआ कि पत्रिका छापने में कोई कानूनी अड़चन नहीं है। फिर यह संदेह ज़ाहिर किया गया कि संपादकीय टीम के राजनीतिक विचारों के कारण सरकार पत्रिका के पंजीकरण में देरी कर रही है। संपादक मंडल ने मुचकुंद दुबे को समझाया कि ऐसा नहीं है, यह सामान्य प्रक्रियागत विलंब है। बाद में सेज प्रकाशन ने आरएनआइ के लिए दिल्ली पुलिस के माध्यम से आवेदन किया, तब जाकर प्रक्रिया तेज़ हुई। पांचवें बिंदु में जो बात ध्रुव नारायण कहते हैं, वह बेहद गंभीर है:
”पत्रिका को मज़बूती से खड़ा करने के लिए ज़रूरी था कि भारतीय भाषाओं में विद्वता को प्रोत्साहित करने व सहयोग देने की एक पारिस्थितिकी निर्मित की जाए। इस दिशा में हमने सिलसिलेवार गतिविधियों का प्रस्ताव रखा, जैसे मासिक बहस-मुबाहिसे के लिए एक मंच बनाना, युवा शोधार्थियों को उनके शोध परिणामों पर चर्चा करने के लिए न्योता देना, लेखकों की कार्यशाला आयोजित करना, इत्यादि। यहां तक कि खुद निदेशक ने बहुलतावाद पर व्याख्यानों की एक श्रृंखला का प्रस्ताव रखा जिसे हमने अपनी गतिविधियों में शामिल किया और पहला व्याख्यान देने के लिए अशोक वाजपेयी का नाम तय किया। निदेशक ने हमसे चर्चा किए बगैर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में सभागार बुक करने से प्रशासनिक अधिकारी को रोक दिया। उन्होंने इतनी भी विनम्रता नहीं दिखायी कि हमें बात करने को बुलाते, बल्कि अधिकारी को निर्देश दिया कि वे हमारे आग्रह की उपेक्षा करें।”
जुलाई 2017 में हुई एक बैठक में निदेशक ने प्रस्ताव दिया था कि पत्रिका की सामग्री परामर्श मंडल की नज़र से गुज़र कर जानी चाहिए। इस प्रस्ताव को संपादक मंडल ने तत्काल यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि संपादक की स्वायत्तता और अधिकार से कोई समझौता नहीं होना चाहिए। ध्यान रहे कि बिलकुल यही मामला इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में भी था। अपूर्वानंद ने अपने पत्र में ईपीडब्लू का हवाला देते हुए इस बात पर दुख जताया है कि बिना किसी हमले के ही संस्थान सरकारों के आगे आत्मसमर्पण किए दे रहे हैं।
अपूर्वानंद लिखते हैं, ”मुझे यह समझ में नहीं आता कि एक ही संस्थान में अंग्रेज़ी की पत्रिका के लिए जो सिद्धांत स्वीकार्य होता है, वह उसी संस्थान द्वारा निकाली जा रही हिंदी पत्रिका में क्यों खराब हो जाता है। क्या ऐसा इसलिए है कि हिंदी को किसी पितृसुलभ संरक्षण की दरकार होती है चूंकि आम तौश्र पर इसे उत्साहजनक रूप में लिया जाता है?”