इस समय देश के दो केंद्रीय विश्वविद्यालयों में छात्रों का विरोध प्रदर्शन चल रहा है। दोनों ही विरोध प्रदर्शन अपने चरित्र, वैचारिकी और कार्य-कारण संबंधों में एक दूसरे के परस्पर उलट और विरोधी हैं। जेएनयू में जहाँ छात्र सर्व सुलभ सस्ती शिक्षा के अधिकार के लिए लोकतांत्रिक संघर्ष कर रहे हैं, वहीं बीएचयू के छात्रों का एक समूह सांप्रदायिक दुराग्रह के चलते अलोकतांत्रिक और संविधान विरोधी मांग को लेकर धरना कर रहे हैं। बीएचयू के छात्रों का विरोध इस बात से है कि एक मुसलमान प्रोफेसर संस्कृत कैसे पढ़ा सकता है जबकि संस्कृत ब्राह्मणों की बपौती है।
BHU Assistant Professor Firoze Khan: ‘Studied Sanskrit all my life, never made to feel I am Muslim, but now…’ | India News, The Indian Express https://t.co/UQAqYvSWch
— Nidhi Razdan (@Nidhi) November 19, 2019
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के साहित्य विभाग में एक मुस्लिम अध्यापक फिरोज़ ख़ान की नियुक्ति के बाद से ही बीएचयू में उनकी नियुक्ति का विरोध कर रहे है। विरोध करने वाले छात्रों में मुख्यतः ब्राह्मण और ठाकुर जाति से आने वाले सवर्ण छात्र हैं। धरने के 12वें दिन सोमवार को इन छात्रों ने कैंपस में रुद्राभिषेक व हनुमान चालीसा का पाठ कर विरोध दर्ज कराया।
Banaras Hindu University (BHU) on appointment of Professor Feroz Khan in Sanskrit Department: Vice Chancellor met the protesters & assured them that the appointment was made in accordance with BHU Act, & central UGC guidelines. He also appealed to protesters to end their protest. pic.twitter.com/yBBDy7XVs3
— ANI UP/Uttarakhand (@ANINewsUP) November 19, 2019
#BHU ACT is being followed in letter & spirit in ongoing selection process and all the selections are being made as per the guidelines of the Government of India and the UGC. – BHU's official statement regarding an appointment in Faculty of SVDV. @VCofficeBHU pic.twitter.com/E6Qtg950Q4
— BHU Official (@bhupro) November 14, 2019
संस्कृत भाषा का दीवाना रहा है फिरोज़ ख़ान का परिवार
एक ऐसे समय में जब ख़ुद संस्कृत भाषा अपने अस्तित्व को लेकर संकट में है उसे बोलने समझने और पढ़ने वाले लोगों की संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकती है। एक ऐसा मुस्लिम परिवार सामने आता है जिसकी संस्कृत के प्रति दीवनगी इस हद तक है कि उनकी तीन पीढ़ियां संस्कृत में उच्च शिक्षा हासिल करके इसे अपने जीने खाने का अभिन्न अंग बना लेती हैं। लेकिन उनका संस्कृत प्रेम कट्टरपंथियों को फूटी आँख नहीं सुहा रही।
जयपुर राजस्थान के बगरु कस्बे में रहने वाले फ़िरोज़ ख़ान का परिवार इलाके में संस्कृत सेवक के रूप में जाना-पहचाना जाता है। इस पूरे इलाके में फिरोज़ खान का परिवार गोभक्त और भगवान का भजन गाने वाला माना जाता है। उसकी वजह यह है कि है परिवार सुबह अपनी शुरुआत गोशाला में गायों की सेवा के साथ करता है और शाम को दिन भर का अंत भगवान का भजन गाकर करता है।
“Consider Arabic as a beautiful language rather than connecting it with a particular religion.” Thus a Hindu woman teacher of that language in Kerala.
Can't the lads at BHU learn to see Sanskrit as a beautiful language too?https://t.co/Td76EBM77b— Ramachandra Guha (@Ram_Guha) November 20, 2019
मुन्ना मास्टर के नाम से जाने जाने वाले उनके पिता रमज़ान ख़ान ने संस्कृत भाषा में शास्त्री की उपाधि ली है, यही कारण है कि इलाके के हिंदू और मुसलमान दोनों ही समुदाय के लोग उनकी बहुत इज़्ज़त करते हैं।
मंदिरों में कीर्तन भजन करने वाले रमज़ान ख़ान की रुचि शुरुआत से ही संस्कृत के प्रति रही क्योंकि इनके पिता (फिरोज़ ख़ान के बाबा) भी संस्कृत के जानकार थे और मंदिरों में भजन गाया करते थे। इसलिए उन्होंने अपने तीनों बेटों को भी संस्कृत की शिक्षा दी। यहां तक की बेटी दिवाली के दिन पैदा हुई तो उसका नाम लक्ष्मी रख लिया।
संस्कृत नहीं मिली इसलिए हिंदी ले ली-प्रोफेसर अब्दुल बिस्मिल्लाह
‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ के लेखकऔर जामिया मिलिया में हिंदी के प्रोफेसर व विभागाध्यक्ष रहे अब्दुल बिस्मिल्लाह ने एक मुलाकात में बताया कि जब वो नौकरी के इंटरव्यू के लिए किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी में जाते तो उनसे एक सवाल हर जगह पूछा जाता कि “आपने मुस्लिम होकर भी हिंदी विषय क्यों चुना।” अब्दुल बिस्मिल्लाह बताते हैं कि ये एक सवाल हर जगह से सुन सुनकर उन्हें बहुत कोफ्त होती मानो मुसलमान होकर हिंदी पढ़ना कोई गुनाह हो जैसे।
प्रोफेसर अब्दुल बिस्मिल्लाह बताते हैं कि फिर उन्होंने इस सर्वव्यापी सवाल का उत्तर निकाला और फिर जब भी उनसे किसी इंटरव्यू पैनल में ये पूछा गया कि ‘आपने मुसमान होकर भी हिंदी से एम.ए. क्यों किया’? तो वो दो टूक जवाब देते-“ क्योंकि मुझे संस्कृत नहीं मिली।”
प्रोफेसर बिस्मिल्लाह कहते हैं दरअसल भाषा को लेकर समाज में एक सामान्य सी बायनरी बना दी गई है कि हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की।
इससे पहले वर्ष 2015 में असमाजिक हिंदू संगठन ‘हनुमान सेना’ के विरोध के बाद मुस्लिम समुदाय के विद्वान एम. एम. बशीर को मलयालम अख़बार ‘मातृभूमि’ में रामायण पर आधारित कॉलम लिखने पर धमकी दी गई। अख़बार के दफ़्तर के बाहर विरोधपूर्ण पोस्टर लगाए गए और उन्हें फोन कर करके इतनी गालियाँ दी गई कि उन्होंने अख़बार के लिए लिखने से इन्कार कर दिया। सवाल ये है कि कोई विद्वान किस भाषा में लिखेगा, पढ़ेगा या किस विषय पर लिखेगा नहीं लिखेगा इसे क्या अब इस देश के जाहिल लोग निर्धारित करेंगे?
ज्ञान की सत्ता पर वर्चस्व की राजनीति
ज्ञान की सत्ता पर किसका आधिपत्य हो? ये प्रश्न जितना सांस्कृतिक है उतना ही राजनीतिक भी।इसे यूँ समझिए कि वर्ष 2015 में प्रोफ़ेसर नारायणचार्य ने अपनी किताब‘वाल्मीकि कौन है’ में यह साबित करने की कोशिश की कि वाल्मीकि ब्राह्मण थे। किताब छपी तो वाल्मीकि, बेडा समुदाय के लोगों ने धारवाड़ के प्रोफ़ेसर नारायणचार्य की लिखी इस क़िताब के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया। इसके बाद कर्नाटक की राज्य सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया।
लेकिन किताब के प्रकाशक ने इस मामले में हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया तो अदालत ने राज्य सरकार से कहा कि बग़ैर किसी जांच के प्रतिबंध नहीं थोपा जा सकता और फिर हाईकोर्ट के निर्देश पर वाल्मीकि की जाति का पता लगाने के लिए राज्य सरकार को 14 सदस्यों की एक कमेटी गठित करनी पड़ी थी।
दरअसल दलित पिछड़े महापुरुषों को ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने का दावा करना, “साम्प्रदायिक समूहों का छिपा एजेंडा” है। इसी तरह रैदास, कबीर और कनकदास को भी ब्राह्मण साबित करने की कोशिश की गई। दरअसल ज्ञान की सत्ता को ब्राह्मणवाद हर कीमत पर अपने पाले में रखना चाहता है उसे ये कतई बर्दाश्त नहीं कि कोई दूसरा वर्ग उसे इस क्षेत्र में चुनौती दे। इसीलिए वो घोर विरोधी विचारधारा वाले बुद्ध तक को विष्णु का नवाँ अवतार तक घोषित करके अपने पाले में खींचने का भरसकषडयंत्रकिया।इन सबकोसांस्कृतिक इतिहास में एक चलन के रूप में देखना चाहिए।
पिछड़े समुदायों से ताल्लुक़ रखने और ब्राह्मणवादी ज्ञान की सत्ता को चुनौती देने वाले महापुरुषों को अपने में मिला लेने का कोशिश का एक साफ एजेंडा दिखाई देता है, यह मुद्दा दक्षिणपंथी दलों के राजनीतिक एजेंडे का एक हिस्सा है।
निशाने पर दलित अध्यापक
‘आरक्षण वाले इंजीनियर के बनाए पुल गिर जाते हैं और आरक्षण वाले डॉक्टर के हाथों इलाज़ पाकर मरीज मर ही जाते हैं’ कुछ ऐसी ही कहावतें सवर्ण समाज में दशकों से चलती आई हैं। वो दरअसल इस तरह की कहावतें गढ़कर दलित पिछड़ेवर्ग के ज्ञान सामर्थ्य के प्रति संदेह की गुंजाइश पैदा कर उन्हें हतोत्साहित करते हैं।
हिंदुत्ववादी एजेंडा सेट करने वाले फिल्म निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने एक फिल्म ‘बुद्धा इन ट्रैफिक जाम’ बनाकर उन्हें ‘अर्बन नक्सली’ घोषित करके दलित आदिवासी अध्यापकों को सांस्कृतिक राजनीतिक चुनौती देने वाली स्थिति से बेदख़ल करने की पूरा षडयंत्र ही कर डाला। अभी हाल ही में रामदेव ने पेरियार को बौद्धिक आंतकवादी बताकर हिंदुत्ववादी षडयंत्र को आगे बढ़ाया है।
पिछले 6 वर्षों में लगातार कई दलित अध्यापक लगातार निशाने पर लिए गए हैं। जिस भी दलित प्रोफेसर या विद्वान ने अपने लेखन से ब्राह्मणवादी संस्कृति और सांस्कृतिक राजनीति को चुनौती देने की कोशिश की है उस पर हमला किया गया है।
वर्ष 2016 में जेएनयू के एक दक्षिणपंथी प्रोफेसर अमिता सिंह ने एक वेबसाइट को दिए इंटरव्यू में कैंपस के दलित और मुस्लिम अध्यापकों को देशद्रोही कहा था। इसका स्वतः संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने जेएनयू के वाइस चांसलर और दिल्ली पुलिस कमिश्नर को नोटिस जारी करके रिपोर्ट मांगा था। आयोग के चेयरमैन पीएल पुनिया ने इस मामले को गंभीर बताते हुए एफआईआर दर्ज करने की बात कही थी।
2019 में लखनऊ यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग के असिस्टेंट फ्रोफेसर रविकांत को भाजपा के खिलाफ़ फेसबुक पोस्ट लिखने के चलते यूपी राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान का रमन लाल अग्रवाल पुरस्कार मिलने से पहले ही वापस ले लिया गया था।
इस वर्ष 200 प्वाइंट रोस्टर समेत कई मुद्दे पर अपनी बात रखने के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रतन लाल पर जी न्यूज ने 16 जुलाई 2019 को एक कार्यक्रम किया और इस कार्यक्रम में उन्हें टुकड़े टुकड़े गैंग का टोल फ्री एजेंड़ा चलाने वाला बताकर उन्हें देश की बदनामी का सूत्रधार बताया गया। इस कार्यक्रम के बाद रतलाल को कई धमकी भरे कॉल आए और उन्हें घर से उठा लेने की धमकी तक दी गई।
इसी तरह 90 प्रतिशत विकलांग डीयू प्रोफेसर जी.एन.साईबाबा को माओवादियों से संबंध का आरोप लगाकर 14 महीने तक नागपुर के उस अंडा सेल में रखा गया जहाँ कसाब को क़ैद करके रखा गया था। ये जेल देश की सबसे ख़तरनाक जेल है। बता दें कि साईंबाबा हमेशा से दलितों और आदिवासियों के हित में आवाज़ उठाते रहे हैं। 1990 में उन्होंने आरक्षण के समर्थन में मुहिम भी चलाई थी। साईंबाबा 2003 में दिल्ली आए थे। बाद में उन्हें गढ़चिरौली की एक अदालत ने उम्रक़ैद दे दिया।
इसी तरह प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े को भी भीमा कोरेगांव मामले में हिरासत में लेकर जेल में डाल दिया गया था। इसी तरह इसी मामले में डीयू के प्रो हनी बाबू के नोएडा स्थित आवास पर छापेमारी करके उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया था। इसी तरह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक दलित प्रोफेसर गौतम हरिजन को निशाना बनाया गया।
दरअसल 20 अगस्त 2019 को गौतम हरिजन का एक पुराना वीडियो इंटरनेट पर वायरल हो गया। आंबेडकर जयंती के अवसर पर अप्रैल 2017 में गौतम हरिजन ने इलाहाबाद के एक छात्रावास में भाषण दिया था। जोकि तर्कसंगत होने और आलोचनात्मक दृष्टिकोण के महत्व पर था। अंधविश्वास के खिलाफ़ इस बहस में हरिजन ने कहा कि छठी कक्षा में उन्होंने शिव लिंग पर पेशाब किया था और “इससे किसी भगवान ने मुझे नहीं रोका।” इसके बाद 26 अगस्त को आरएसएस के छात्र विंगएबीवीपी ने विश्वविद्यालय में उनके खिलाफ़ शिकायत दर्ज़ कराई ये आरोप लगाकर कि वीडियो में हरिजन ने जो कहा वह “हिंदू विरोधी” बात थी जिससे उनकी “भावनाएं” आहत हुई हैं।”
अगले दिन, एबीवीपी की शिकायत को आधार बनाकर विश्वविद्यालय प्रशासन ने हरिजन को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया।एबीवीपी की शिकायत के बाद हरिजन को गुमनाम फोन कॉल आने लगे कि उनकी लिंचिंग हो जाएगी।प्रो गौतम हरिजन के अनुसार, उनकी जाति ने छात्रों के बीच भी उनकी अकादमिक साख को कमजोर बनाया है। उच्च जाति के छात्र उनके साथ अपमानजनक व्यवहार करते हैं क्योंकि वह उनके पूर्वाग्रहों को चुनौती देते हैं। जैसे ही छात्र मेरा नाम देखते हैं वह मुझे एक दलित की तरह देखने लगते हैं।
इसी तरह अगस्त 2018 में अपने फेसबुक वॉल पर अटल बिहारी के खिलाफ़ एक आलोचनात्मक पोस्ट लिखने पर बिहार के एक सहायक प्रोफेसर संजय कुमार की मॉब लिंचिंग करके उन्हें जिंदा जलाने की कोशिश की गई थी।
दूसरे वर्ग समुदाय के अध्यापकों के आने से विश्वविद्यालयों की सामाजिक राजनीतिक संरचना बदली है
लखनऊ विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर रविकांत चंदन कहते हैं –“सन 1980 के पहले विश्वविद्यालय पूरी तरह से सवर्णमय थे, जहाँ सवर्ण शिक्षक और सवर्ण विद्यार्थी होते थे। ओबीसी आरक्षण लागू होने के बाद पिछले बीस साल में विश्वविद्यालयों में ओबीसी और एससी एसटी समुदाय के विद्यार्थियों और शिक्षकों के आने से विश्वविद्यालयों के भीतर की पूरी सामाजिक संरचना ही बदल गई है। इससे हुआ है कि अध्यापकों और विद्यार्थियों में एक नई राजनीतिक चेतना पैदा हुई है। इससे नए राजनीतिक संगठन खड़े हुए हैं। कहीं अंबेडकर-पेरियार सर्किल है, कहीं दलित स्टूडेंट्स फेडरेशन है, तो ये जो नई चीजें आई हैं इससे नए सामाजिक संरचना और नई राजनीतिक चेतना को पैदा किया है इससे ब्राह्मणवादी ताकतें डरी हुई हैं।
अब बहुजन-पिछडे वर्ग के जो लोग विश्वविद्यालयों में संविदा पर भर्ती किए जाएंगे वो अपने समाज और समुदाय के बच्चों को खुलकर सपोर्ट नहीं कर पाएंगे। दरअसल पिछले कुछ वर्षों में तमाम विश्वविद्यालयों में ओबीसी और बहुजन शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच जो एक राजनीतिक संबंध बना है उसे तोड़ने की एक सुनियोजित षडयंत्र है। आप देखिए पिछले कुछ सालों में तमाम यूनिवर्सिटी ने ही इन्हें चैलेंज किया है। इस नाते पहला हमला आरक्षण पर होता है। आरक्षण के तहत एससी, एसटी, ओबीसी समुदाय के जो लोग नौकरियों में आ सकते हैं उन्हें प्राइवेटाइजेशन के जरिए बाहर कर देंगे।
ठेके पर अध्यापक रखने और भाषाई बाध्यता थोपने की राजनीति
पहले 13 प्वाइंट रोस्टर के जरिए दलित आदिवासी अध्यापकों को विश्वविद्यालयों से दूर रखने की कोशिश की गई। इसके लिए इस साल की शुरुआत में शिक्षकों और छात्रों ने सड़क पर उतरकर संघर्ष किया और चुनाव से ठीक पहले सरकार ने विवश होकर अध्यादेश के जरिए 13 प्वाइंट रोस्टर की जगह 200 प्वाइंट रोस्टर को मान्यता दी।
वहीं इस साल जून-जुलाईमें तमाम विश्वविद्यालयों द्वारा रिक्त पदों को भरने के लिए निकाले गए विज्ञापनों में ठेका अध्यापकोंके लिए आवेदन मांगे गएऔर शिक्षकों को ठेके पर रखा जाने का ट्रेंड शुरु किया गया।तमाम कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में संविदा पर शिक्षकों की नियुक्ति किए जाने के नए चलन पर लखनऊ विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर रविकांत चंदन कहते हैं- “संविदा पर शिक्षक रखने का एक फायदा ये है कि कम वेतन में और बिना नई नियुक्ति के ही काम करने वाले लोग मिल जाएंगे।
संविदा पर काम करने वाले लोग हमेशा गुलामों की तरह दबे रहेंगे और अपने अधिकारों को संरक्षित नहीं कर पाएंगे। विश्वविद्यालय प्रशासन के सामने संविदा शिक्षक भिखारी की तरह उनकी मेहरबानी पर रहेंगे न कि अपनी योग्यता के बलबूते। दरअसल इस तरह से शिक्षक नहीं गुलाम नियुक्त किए जा रहे हैं।”
जबकि इस साल जून जुलाई में निकाले गए अध्यापकों की भर्ती के लिए निकाले गए अपने विज्ञापन में ‘राष्ट्र संत तुकादोजी महाराज विश्वविद्यालय नागपुर’ ने अध्यापकों के मराठी भाषी होने की शर्त रखी थी।
नागपुर यूनिवर्सिटी की भाषाई शर्तों पर रविकांत चंदन कहते हैं- “नागपुर यूनिवर्सिटी द्वारा थोपी गई शर्ते बेहद हास्यास्पद है। सभी कैंडीडेट पर मराठी भाषा थोपकर राष्ट्रवाद के भीतर उपराष्ट्रवाद को पैदा किया जा रहा है है।
ये भारतीय संविधान और भारतीयता के मूल्य के विरुद्ध है। जिसे हम यूनिवर्सिटी या विश्वविद्यालय कहते हैं ये उसके पीछे की पूरी अवधारणा के खिलाफ़ जाता है।”