GUJARAT FILES : सच, साहस और थोड़ी-सी विनम्रता का सत्‍ता-विमर्श

(यह आलेख जनपथ से साभार है। मीडियाविजिल राणा अयूब की पुस्‍तक और उनके इस साहस को सलाम करता है। चूंकि पुस्‍तक आम तौर से दुकानों पर उपलब्‍ध नहीं है और ऑनलाइन वेबसाइटों से भी तेज़ी से खत्‍म हो रही है, इसलिए हमारी कोशिश होगी कि आगामी दिनों में ‘गुजरात फाइल्‍स’ के चुनिंदा अंश हिंदी के आम पाठकों के लिए किस्‍तवार हम यहां प्रकाशित करें। सोमवार 30 मई को इस कड़ी का पहला अंश मीडियाविजिल डॉट कॉम पर आप हिंदी में पढ़ सकते हैं।)   


अभिषेक श्रीवास्‍तव 

 

अपने मीडिया अंक के लिए अर्नब गोस्‍वामी से एक बार कारवां पत्रिका ने साक्षात्‍कार लेने की कोशिश की थी। उस वक्‍त अर्नब ने जो जवाब दिया था, वह अब तक याद रह गया- जर्नलिस्‍ट्स आर नॉट स्‍टोरीज़ यानी पत्रकार खुद ख़बर नहीं होते। अर्नब गोस्‍वामी की पत्रकारिता पर सवाल बेशक हो सकते हैं, लेकिन ऐसी निस्‍पृहता एक बुनियादी किस्‍म की ईमानदारी की मांग करती है जहां पत्रकार के लिए ख़बर से ज्‍यादा अहम कुछ नहीं है, अपनी जिंदगी भी नहीं। यह बात अलग है कि शनिवार की शाम इंडिया हेबिटैट सेंटर में पत्रकार राणा अयूब की किताब ”गुजरात फाइल्‍स” का लोकार्पण अर्नब समेत किसी भी मीडिया संस्‍थान के लिए ख़बर नहीं बना।

जिनके लिए यह आयोजन मायने रखता था, जो वहां मौजूद थे, उनकी दिलचस्‍पी भी इस किताब या इसकी सामग्री में उतनी नहीं थी जितनी राणा अयूब के ‘रचनाकार’ या रचना प्रक्रिया में थी। यह दौर ही ऐसा है जहां कोई भी साहसिक अथवा असामान्‍य कार्रवाई व्‍यक्ति केंद्रित हो उठती है। नरेंद्र मोदी धारणा के स्‍तर पर अगर देश को दो पालों में बांटते हैं, तो बेशक यही काम अर्नब भी करते हैं और एक दूसरे छोर पर खड़ी राणा अयूब भी यही करती हैं। इस तरह राजनीति के दोनों सिरे बुनियादी रूप से समाज को बांटने का काम करते हैं जहां क्‍या सच है और क्‍या झूठ, उसका ज्‍यादा मतलब नहीं रह जाता। राणा अयूब की किताब के लोकार्पण समारोह ने और कुछ किया हो या नहीं, पहली नज़र में पत्रकारों के शहरी इलीट उदारवादी तबके को बांटने का काम किया है।

 

राणा की कहानी में उन्हें लगातार छापने वाले तरुण तेजपाल और शोमा चौधरी, उन्‍हें छापने से मना करने वाले 12 प्रकाशक, उनका स्टिंग दिखाने से इनकार करने वाला हर मीडिया संस्‍थान, कार्यक्रम में आने का वादा कर के आखिरी वक्‍त पर छुट्टी मनाने का बहाना करने वाली शख्सियतें (और सबा नक़वी के सवाल पर टालमटोल करने वाले राजदीप सरदेसाई भी) ‘एंटेगोनिस्‍ट’ यानी प्रतिनायक बनकर उभरती हैं। वास्‍तव में, जब राणा रोते हुए कहती हैं कि पूरी पत्रकार बिरादरी ने इन वर्षों में उनका साथ नहीं दिया, तो ऐसा कह कर वे न केवल पत्रकारिता को बल्कि उस व्‍यापक लिबरल समाज को पोलराइज़ कर देती हैं जिसकी गुजरात-2002 के बारे में धारणा उनसे अलग नहीं है। जब-जब कोई पत्रकार ख़बर बनता है, तो ऐसा ही होता है।

 

राजदीप सरदेसाई इसके खतरे समझते हैं, इसीलिए वे नाम लेने में यकीन नहीं रखते। जल्‍दी में मिस्‍टर ना… बोलकर वे ठहर जाते हैं, लेकिन जनता समझ लेती है कि बात 1984 और 2002 के दंगों की जांच के लिए बने आयोगों के इकलौते अध्‍यक्ष जस्टिस नानावती की हो रही है जिन्‍होंने राजदीप से 2002 के बारे में एक बार कहा था कि ”गुजरात के मुसलमान ऐसे ही हैं… ये तो होना ही था” और राजदीप को अफ़सोस रह गया था कि ‘काश, मेरे पास उस वक्‍त एक स्टिंग कैमरा होता’। बिलकुल इसी तर्ज पर वे सबा नक़वी के इस सवाल पर अपना बचाव करते भी नज़र आते हैं कि क्‍या वे अपने संस्‍थान इंडिया टुडे में राणा के किए स्टिंग को चलाएंगे। राजदीप बुद्ध की मुद्रा में आकर कहते हैं, ”सबा, यह सवाल इंडिविजुअल का नहीं है, सिस्‍टम का है।”

‘गुजरात फाइल्‍स’ की भूमिका में राणा अयूब अपने एक पूर्व संपादक का जि़क्र करती हैं जिनकी बात उन्‍हें आज तक याद रह गई है, ”एक अच्‍छे पत्रकार को स्‍टोरी से खुद को निर्लिप्‍त रखने की कला सीखनी चाहिए और व्‍यावहारिक होना चाहिए।” वे कहती हैं कि ‘मुझे अफ़सोस है कि आज तक मैं इस कला को नहीं सीख पाई’ और अगली ही पंक्ति में वे इसका एक राजनीतिक आयाम खोज निकालती हैं कि ‘अकसर इसी बहाने को लेकर कॉरपोरेट और सियासी ताकतों की शह पर किसी खबर को मारने का काम किया जाता है।’ ज़ाहिर है, मामला सीख नहीं पाने का नहीं है बल्कि अपने पूर्व संपादक के कथन से उनका सैद्धांतिक मतभेद है। दरअसल, यह एक ऐसा आत्‍मसंघर्ष है जो बहुत पुराना है। सच कहने के लिए मार दिए गए सुकरात से लेकर शुक्रवार को रिलीज़ हुई फिल्‍म ‘वेटिंग’ तक फैले हज़ारों सोल के मानवीय इतिहास में परिवर्तन के किसी भी ‘एजेंट’ का यह आत्‍मसंघर्ष आप साफ़ देख सकते हैं। यह संकट अकेले पत्रकारिता का नहीं है, यह संकट सच को कहे जाने में अंतर्निहित है। मसलन, अनु मेनन की फिल्‍म ‘वेटिंग’ में एक सीनियर डॉक्‍टर (रजत कपूर) अपने जूनियर को समझाता है कि ”हमारा काम मरीज़ के दुख में सहभागी बनना नहीं है।” फिर वह उसे बताता है कि मरीज़ के परिजनों को सच कैसे बताया जाए- उसमें कितना अभिनय हो और कितना सच।

सच कहने के मामले में हरतोश कहीं ज्‍यादा खरे हैं, जो कहते हैं कि ‘हमें नाम लेने से नहीं कतराना चाहिए’। तरुण तेजपाल और शोमा चौधरी का नाम वे अंत तक आते-आते ले ही लेते हैं, जिससे राणा बच रही थीं। हरतोश सच को संतुलित करने की कोशिश भी करते हैं जब हर बार वे गुजरात के जि़क्र के बीच में दिल्‍ली-1984 को लाने का प्रयास करते हैं। एक मौके पर तो हरतोश के 1984 बोलते ही राजदीप उनकी बात काट देते हैं। सच को कहने के इस संघर्ष में इंदिरा जयसिंह कहीं ज्‍यादा निर्द्वंद्व दिखती हैं क्‍योंकि उनके पास एक (कानूनी) खांचा है जिसकी सीमाओं से वे परिचित हैं। यह कहना इंदिरा जयसिंह के बस की ही बात थी कि ‘यह सरकार न्‍यायपालिका में आरएसएस के जजों को बैठाकर अगले 20 साल के लिए निश्चिंत हो जाना चाहती है ताकि वह आगे सत्‍ता में रहे या न रहे, उसका काम चलता रहे।’

राणा अयूब की ‘गुजरात फाइल्‍स’ दरअसल सच को कहने और बरतने के संघर्ष का एक उदाहरण है। बुनियादी सवाल अब भी बचा रह जाता है कि सच क्‍या है? क्‍या राणा के लिखे को सच मान लिया जाए? इसका जवाब हमें पुस्‍तक का आमुख लिखने वाले जस्टिस श्रीकृष्‍ण के इस वाक्‍य में मिल सकता है, ”हो सकता है कि इस पुस्‍तक में जो कहा गया है उस सारे को आप वैलिडेट करने की स्थिति में न हों, लेकिन आप उस साहस और शिद्दत की सराहना किए बगैर नहीं रह सकते जिसका मुज़ाहिरा इस लेखिका ने उस चीज़ को अनावृत्‍त करने के प्रयास मे किया है जिसे वह खुद सच मानती है। लगातार बढ़ती हुई बेईमानी, छल-कपट और सियासी हथकंडों के दौर में खोजी पत्रकारिता के उनके इस प्रयास को और उनको सलाम, जिसकी ज़रूरत आज पहले से कहीं ज्‍यादा हो चुकी है।”

बीते चौदह साल के दौरान गुजरात में जो कुछ भी घटा है, उसका सच एकतरफा नहीं है। जो कुछ भी सामने आ सका है, वह सच का एक छोटा सा अंश है। इस सिलसिले में राणा अयूब के स्टिंग और उस पर आधारित उनकी स्‍वप्रकाशित यह किताब किसी अंतिम सच के लिए नहीं, बल्कि सच को सामने लाने के अदम्‍य इंसानी साहस और शिद्दत के लिए पढ़ी जानी चाहिए। आज के दौर में ऐसा साहस दुर्लभ है। जीवित प्राणी हमेशा से साहस के कायल रहे हैं। जो सत्‍ता के खिलाफ़ साहस करता है, वही ताकतवर होता है और सत्‍ता के बरक्‍स एक पावर सेंटर रचता है। उसके बाद सारा मामला दो सत्‍ता-केंद्रों के बीच महदूद होता जाता है और सच एक पावर-डिसकोर्स यानी सत्‍ता-विमर्श में तब्‍दील हो जाता है। आज से चौदह साल पहले गुजरात का जो सच सड़कों पर बिखरा पड़ा था, वह न्‍याय की छन्‍नी से होता हुआ दो साल पहले अचानक सत्‍ता-विमर्श में तब्‍दील हो चुका है। ऐसा विमर्श मोदी बनाम कन्‍हैया या अमित शाह बनाम राणा जैसी कोटियां ही पैदा कर सकता है। कह पाना मुश्किल है कि इन दो ध्रुवों के बीच सामान्‍य लोग कहीं आते भी हैं या नहीं। शनिवार की शाम अमलतास हॉल में मौजूद कांग्रेस के संदीप दीक्षित, पृथ्‍वीराज चव्‍हाण, अहमद पटेल, मणिशंकर अय्यर जैसे चेहरे इस सत्‍ता-विमर्श की पुष्टि करते दिखते हैं।

राणा ने कहा था कि कांग्रेस अब उनके कंधे से बंदूक चलाने की फि़राक में है। कौन किसके कंधे से बंदूक चला रहा है, इसका गुजरात में मारे गए और उजाड़े गए लोगों से क्‍या तनिक भी लेना-देना है? जिनके हाथ में बंदूक नहीं है और जिनके आगे कोई कंधा भी नहीं, चाहे वे आम लोग हों या राणा की प्रतिनायक समूची पत्रकार बिरादरी, उनकी क्‍या इस आख्‍यान में कोई प्रासंगिकता है? इन सवालों के बीच अच्‍छी बात बस यह है कि राणा को अपनी ‘प्रिविलेज्‍ड पोज़ीशन’ का ज़रूरी अहसास है। यह उनकी विनम्रता है कि वे देश के कोने-अंतरे में मारे जा रहे और महानगरों में ईएमआइ के बोझ तले घुट रहे पत्रकारों के बारे में कम से कम एक सहृदय वाक्‍य ज़रूर कहती हैं। झूठ के खिलाफ़ जंग में साहस के साथ यह विनम्रता बची रहे, तो बेहतर।

 

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