‘अर्बन नक्सल’ के नाम पर मामला कारपोरेट लूट की दलाली खाने का है !

 

अनिंद्यो चक्रवर्ती

 

बस्तर या छोटा नागपुर या झारखण्ड के जंगलों में रहने वाले आदिवासिओं ने सरकार का एक ही चेहरा देखा है – टिम्बर माफिया का साथ देने वाला फ़ॉरेस्ट ऑफिसर, खनन कंपनियों का पहरेदार सुरक्षाकर्मी और आदिवासिओं के शोषण का साथ देने वाला नेता। इनके लिए सरकार, राजनीती और उद्योग बाहरी जगत है।

ऐसी सामाजिक ज़मीन पर बिसात फ़ैलाते है तीन तरह के तत्त्व – पहले दो हैं ईसाई मिशनरी और हिंदूवादी संस्थाएं, जो समाज सेवा के साथ-साथ आदिवासियों को ईसाई बनाना चाहती है या उनका ‘शुद्धिकरण’ करना चाहती है।

सत्तर के दशक से एक तीसरा खिलाड़ी पहुंचता है इन आदिवासिओं के बीच – चरम वामपंथी दल, जो मानते हैं कि, बन्दूक की नली से राष्ट्र और सत्ता के पूरे ढांचे को तहस-नहस करके ही आदिवासियों और ग़रीबों को उनका हक़ मिल सकता है।

यह चरम वामपंथी अपने आप को चीन के पहले चेयरमैन माओ-त्से-तुंग के अनुगामी मानते हैं।  इसलिए इनको ‘माओवादी’ कहा जाता है I यह चरमपंथी धारा सबसे पहले बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव में उभरा था। इसलिए इनको ‘नक्सली’ भी कहा जाता है।

नक्सलियों ने आदिवासियों को संयोजित ज़रूर किया और उनको अपने हक़ की लड़ाई लड़ने की ताक़त ज़रूर दी, लेकिन पिछले 40 सालों से उन्होंने आदिवासियों को बन्दूक का बंदी बना दिया है।  सरकार की कोई भी विकास परियोजना में बाधा डालने में नक्सली सबसे आगे होते हैं। साथ में नक्सलियों और टिम्बर/कोयला/खनिज/तेंदू पत्ता माफिया के बीच सांठ-गांठ बन गई है। कई जगहों पर नक्सली कमांडर इन माफिया और कंपनियों से ‘हफ़्ता’ लेकर उनकी रक्षा करते हैं। कोई गांववाला इनके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है तो उसे गद्दार बोलकर मार दिया जाता है।

बड़ी बात यह है कि इन जंगलों में रहने वाले आदिवासी भारत के सबसे खनिज-समृद्ध क्षेत्रों पर बैठे हुए हैं।  2005 से दुनिया के बाजारों में खनिज पदार्थों की मांग तेज़ी से बढ़ी।  बड़ी खनन कम्पनियों के लिए यह एक सुनेहरा मौक़ा था भारत की खनिज धन को अपने कब्ज़े में करने का।

2005-6 से मनमोहन सिंह सरकार की लगातार कोशिश रही कि माइनिंग सेक्टर का निजीकरण किया जाए। 2006 में होडा कमिटी ने निजीकरण और खनिज निर्यात बढाने के सुझाव दिए I UPA में कॉरपोरेट और मार्केट के हितैषी नेता, मंत्री और अफ़सर– सबने मिलकर निजीकरण का जमकर समर्थन किया। लेकिन UPA-1 वामपंथी दलों पर निर्भर थी और मनमोहन सरकार को कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के अधीन चलना पड़ता था। वामपंथी दल निजीकरण के ख़िलाफ़ थे, इसलिए UPA-1 में खनन निजीकरण का मामला ठन्डे बस्ते में पड़ा रहा।

2009 में जब वामपंथियों दल के बिना UPA-2 की सरकार बनी, तो खनन-निजीकरण के समर्थक और भी मुखर हो गए।  लेकिन सरकार को यह भी पता था कि खनिज क्षेत्र का उदारीकरण तभी होगा जब नक्सलियों को इन इलाकों से हटाया जा सके। इसके लिए दो रास्ते अपनाये गए – पहला था नक्सलियों के ख़िलाफ़ सुरक्षा ऑपरेशन को तेज़ करना और दूसरा आदिवासिओं को मुख्य धारा में लाना।

आपको याद होगा कि 2009-10 में लगातार नक्सलियों के ख़िलाफ़ ऑपरेशन चले, बड़े नक्सली नेता मार गिराए गए, नक्सली कार्यकर्ता सरेंडर हुए और नक्सली हमलों में कई सुरक्षाकर्मी भी मारे गए। हर रोज़ ‘लाल आतंक’ और ‘रेड कॉरिडोर’ की कहानियां टीवी और अखबारों में दिखने लगी।

मई 2010 में प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि नक्सलवादी हिंसा भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा है। उससे कुछ दिन पहले गृह मंत्री चिदंबरम ने कहा था कि माओवादियों से लड़ने के लिए एयर फ़ोर्स का इस्तेमाल किया जा सकता है। हालांकि यह एक संयोग मात्र है कि 2004 में वित्त मंत्री बनने से कुछ ही दिनों पहले तक चिदंबरम माइनिंग और एलुमिनियम कम्पनी ‘वेदांत रेसौर्सज़’ के बोर्ड में डिरेक्टर थे।

कांग्रेस का एक तबका खनन-निजीकरण के साथ-साथ आदिवासी हितों की भी बात करने लगाI खनन क्षेत्र के उदारीकरण के प्लान में क़बाब में हड्डी बन गए खनन मंत्री बी के हैंडीक। जून 2010 में हैंडीक ने एक नए क़ानून का प्रस्ताव दिया जिससे खनन से होने वाले मुनाफ़े का 26% खनन प्रोजेक्ट से प्रभावित आदिवासियों को देना पड़ता।  उस वक़्त सरकार को प्रति टन खनिज से रु 300 ‘रॉयल्टी’ के तौर पर मिलता था I हैंडीक का प्रस्ताव क़ानून बन जाता तो प्रति टन खनिज पर आदिवासियों के खाते में रु 1,100-2000 जाता।

हैंडीक सोनिया गांधी के क़रीबी माने जाते थे।  इसलिए उनके प्रस्ताव से ख़लबली मच गई।  माइनिंग कम्पनी, FICCI, प्लानिंग कमीशन के डिप्टी चेयरमैन मोंटेक सिंह अहलुवालिया, अशोक चावला कमिटी – सबने इसका विरोध किया । सबसे ज़्यादा विरोध तो ‘पिंक पेपर’ यानी बिज़नेस अखबारों में पत्रकारों और पंडितों ने किया।

हाल यह हुआ कि सोनिया भी बी के हैंडीक को बचा नहीं पाईं।  6 महीने के अन्दर, कैबिनेट रिशफ्ल में उनकी नौकरी गई और उनके जगह आये बिज़नेस-फ्रेंडली चेहरा – गुजरात के कांग्रेस नेता दिनशा पटेल I पटेल के आते ही हैंडीक के प्रस्तावों को कोल्ड-स्टोरेज में डाल दिया गया।

एक ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स बना और 2011 तक निजीकरण के नए प्रस्ताव पेश किये गए। सिर्फ कोयला खनन (जो सिर्फ़ सरकारी कम्पनी कोल इंडिया करती थी) में 26% प्रॉफिट-शेयरिंग का मॉडल आया। बाक़ी के खनिज पदार्थों में रोयल्टी को दुगना करने का प्रस्ताव दिया गयाI इन सब प्रस्तावों को MMDRA बिल का रूप दिया गया।

आदिवासियों की हक़ की बातें बोलने वाले अल्पमत में पड़ गए। दिलचस्प बात यह है की इस अल्पमत में ख़ुद राहुल गांधी भी थे।  आपको याद होगा किस तरह 2010 में राहुल गांधी ओडिशा के नियमगिरि में खनन के ख़िलाफ़ आन्दोलन के हिस्सा बने थे और अपने आप को दिल्ली में आदिवासियों का सैनिक कहा था ।

लेकिन UPA-2 सरकार ने कड़ा रुख अपनाया और जैसे-जैसे नक्सल-विरोधी ऑपरेशन ने तूल पकडा सुरक्षाबलों द्वारा आदिवासिओं पर अत्याचार के कई आरोप लगे I एक तरफ़ बन्दूक धारी सुरक्षाकर्मी तो दूसरी तरफ़ बन्दूकधारी नक्सली I इन दोनों के बीच पिसते गए आदिवासी।

ऐसे में जो समाज-सेवक और मानवाधिकार के लिए लड़ने वाले जो एक्टिविस्ट आदिवासियों के साथ काम करते थे उनको भी नक्सली का नाम दे दिया गया I इनमें से कुछ आदिवासिओं के लिए दवाखाना चलाते थे, कुछ उनको क़ानूनी सलाह और मदद पहुंचाते थे, कुछ उनको अपनी ज़मीन से बेदख़ल करने की साजिशों की बात कोर्ट तक पहुंचाते थे I

अगर शक्तिशाली कॉरपोरेट और नेताओं को भी नक्सलियों के साथ समझौता करना पड़ता है तो आम समाज-सेवक या छोटे-मोटे एक्टिविस्टों को तो और भी।  इसलिए उनका नक्सली तत्त्वों के साथ कनेक्शन निकालना बहुत आसान है। 2010 से ऐसे एक्टिविस्ट्स के ख़िलाफ़ कार्यवाही तेज़ी से बढ़ी, और कई समाज-सेवकों को ‘नक्सलियों से सहानुभूति’ रखने के जुर्म में जेल भेजा गया।

28 अगस्त को जिन पांच समाजसेवकों को पुलिस ने गिरफ़्तार किया, उनमें से कुछ 2007-12 – जिसको आप खनन उदारीकरण का वक़्त भी कह सकते हैं – के बीच भी जेल भेजे गए थे । आदिवासिओं की हक़ की लडाई लड़ने वालों के ख़िलाफ़, सरकार का यह सत्तावादी (authoritarian) रुख नया नहीं है I सरकारें बदलती हैं लेकिन गरीबों को कुचलने का इंतज़ाम वहीं का वहीं रह जाता है I

 

लेखक मशहूर टी.वी.पत्रकार है। रवीश कुमार की फ़ेसबुक से साभार प्रकाशित।

 



 

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