CAA, NRC और नागरिक यातनागृहों की ओर बढ़ता देश

2019 का वर्ष भारत के नागरिकों के अपमान के लिए लाये गये दो कानूनों के लिए याद किया जायेगा। ये कानून हैं नागरिकता (संशोधन) कानून (सीएए) और असम में पायलट टेस्ट के बाद पूरे देश के लिए प्रस्तावित ‘नागरिकता का राष्ट्रीय रजिस्टर’ (एनआरसी)।

बेशक कुछ लोग इन अपमानजनक कानूनों के आने से इसलिए खुश हैं क्योंकि वे ‘हिन्दू’ हैं, इन्सान नहीं। इस खुशी का आधार अमानवीय और लोकतन्त्र विरोधी है। इसी कारण इन दिनों कुछ दृश्य अपने आप दिमाग में कौंधते रहते है। ये फिल्मों में देखे गये नाजी जर्मनी के ‘कंसन्टेªशन कैम्प’ या यातनागृहों के दृश्य हैं, जहां यहूदियों को सिर्फ इस वजह से यातना दी जाती थी क्योंकि वे यहूदी थे और जर्मनी के शासक आर्य थे।

इन दिनों नाजी जर्मनी की एक यहूदी किशोरी एन फ्रैंक की डायरी दिमाग को बार-बार घेर लेती है, जिसे अपने परिवार के साथ घर के तहखाने में इसलिए छिपकर रहना पड़ा क्योंकि वे हिटलर की नस्ल के नहीं, यहूदी थे। बाद में इस परिवार को पकड़ लिया गया और लाखों यहूदियों की तरह गैस चैम्बर में ठूंसकर मार दिया गया। इन फिल्मों को देखते और डायरी को पढ़ते समय लगता था कि कैसे कोई सत्ता ऐसे समय में इतनी अमानवीय हो सकती है, जबकि ‘लोकतन्त्र’ जैसी विचारधारा न सिर्फ आ चुकी है, बल्कि विभिन्न देशों में प्रचलित भी हो चुकी है।

इस वक्त नागरिकता (संशोधन) कानून आने के बाद ऐसा लग रहा है कि ‘हां यह अब भी संभव है’ और हमारा अपना देश इसी ओर तेजी से बढ़ रहा है। असम, बंगाल में डिटेंशन कैंप यानि यातनागृह पहले ही न सिर्फ तैयार हो चुके हैं, बल्कि उसमें एनआरसी के तहत ‘अनागरिक’ करार दिये गये लोगों को रखा भी जा रहा है। पूरे देश में इसके लागू होने के बाद देश भर में ऐसे यातनागृह दिखाई देने लगेंगे। जो लोग मुसलमान विरोधी होने के नाते इस कानून का समर्थन कर रहे हैं, उन्हें शायद नहीं पता है कि इन यातनागृहों में सिर्फ मुसलमान नहीं होंगे, बल्कि ‘कानूनी कागज-पत्तर’ के माध्यम से अपनी नागरिकता साबित न कर पाने वाले आदिवासी, गरीब मजदूर, भूमिहीन किसान, ट्रांसजेण्डर समुदाय, बिना पुरूष की छत्रछाया में रहने वाली महिला होंगे। वास्तव में पूरा देश घोषित तौर पर ‘धार्मिक’ और अघोषित तौर पर ‘सम्पत्ति’ के आधार पर दो भाग में बंटने वाला है।

बेशक सीएए यह कह रहा है कि इनमें से जो ‘गैर मुस्लिम’ होंगे, उन्हें नागरिकता प्रमाणित करने में उतनी दिक्कत नहीं आयेगी, लेकिन इसमें जो कई पेंच है उससे यह उतना आसान भी नहीं है। इस परीक्षा में ‘अनागरिक’ करार दिये गये लोगों की जगह ‘राष्ट्र’ के अन्दर बने ‘डिटेंशन कैम्पो’ में होगी और ‘नागरिकों’ की जगह ‘राष्ट्र’ में। एक ओर तो ‘लोकतन्त्र’ की विचारधारा उस जगह पर पहुंच गयी है, जहां जेलों के खात्मे की बात होने लगी है, वहीं दूसरी ओर इन्हीं लोकतान्त्रिक देशों के अन्दर कुछ समुदायों को जबरन ‘अनागरिक’ करार देकर उनके लिए जेलें बनाने का प्रोजेक्ट तेजी से आगे बढ़ रहा है। ये कौन लोग हैं, जिन्हें ‘अनागरिक’ कहा जा रहा है और क्यों? वे कौन लोग हैं, जो लोगों को ‘अनागरिक’ बता रहे हैं और क्यों? इसी सवाल के जवाब में इन दमनकारी फासीवादी कानूनों से भिड़ने का सूत्र छिपा हुआ है। इसलिए इस बारे में सोचना और बात करना जरूंरी है।

‘नागरिकता’ क्या है?

‘नागरिकता’ किसी देश के अन्दर ‘अधिकार पाने का अधिकार’ है। इससे ही स्पष्ट हो जाता है कि ‘नागरिकता’ की अवधारणा ‘राज्य’ की उत्पत्ति के साथ आयी। राज्यविहीन समाज में नागरिकता जैसी कोई चीज नहीं थी। ‘राज्य’ और ‘नागरिकता’ दोनों का सम्बन्ध धरती की सम्पदा के इस्तेमाल करने के अधिकार से जुड़ा हुआ है। जब धरती की ‘सार्वजनिक सम्पदा’ ‘निजी सम्पत्ति’ के रूप में संग्रहित हुई और इस पर कबीलों से होते हुए राज्य की कब्जेदारी हुई, तब इस ‘राज्य’ को अपने ‘नागरिक’ सुनिश्चित करने की जरूरत भी महसूस हुई।

राज्य का अपनी निर्धारित सीमा के अन्दर रहने वाले व्यक्तियों के साथ हुआ करार ‘नागरिकता’ है यानि उस राज्य विशेष के अन्दर रहने वाले व्यक्ति को अधिकार पाने का अधिकार। इस तरह वास्तव में जैसे राज्यों की सीमा लोगों को बांटती है, वैसे ही ‘नागरिकता’ भी इंसान को इंसान से बांटती है, एक ही पृथ्वी के वासी होने पर भी उसके आने-जाने सहित बहुत से अधिकारों पर रोक लगाती है। पं. बंगाल-बांग्लादेश और हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी पंजाब के लोगों की बोली भाषा, खानपान संस्कृति एक होने के बावजूद वे अलग-अलग देशों के नागरिक हैं यानि एक जगह के लिए ‘नागरिक’ और दूसरी जगह के लिए ‘अनागरिक’ हैं। इन्हें इस रूप में बांटने का काम विशेष भूभाग पर कब्जा जमाने वाली राजसत्ता करती है। ये बंटवारा ‘लोक’ द्वारा नहीं ‘लोक’ पर राज करने वाले ‘तन्त्र’ यानि राजसत्ता द्वारा किया गया है। अन्य सभी तरह के बंटवारों की तरह ‘नागरिकता’ के इस बंटवारे ने भी राज्य व्यवस्था से उत्पीड़ित ‘नागरिक’ जनता का बहुत नुकसान किया है, इसने शोषित वर्गों के आपसी झगड़ों को बढ़ाकर शासक वर्गों को फायदा पहुंचाने का काम किया है। इसे हम भारत के अन्दर तो देख ही रहे हैं, अमेरिका, इंग्लैण्ड सहित दुनिया के तमाम देशों में भी इसे देखा जा सकता है। ‘नागरिकता’ ने एक दूसरी समस्या को जन्म दिया, जिसका नाम है ‘शरणार्थी समस्या’। शरणार्थी यानि ‘अपने देश’ की सीमा से बाहर ‘दूसरे देश की सीमा में शरण लेने वाले। चूंकि ये शरण लेने वाले देश के ‘नागरिक’ नहीं होते इसलिए इनके आगे जुड़ जाता है ‘समस्या।’

‘नागरिकता’ ‘मुद्दा’ और ‘शरणार्थी’ ‘समस्या’ के रूप में

देशों के अन्दर ‘नागरिकता’ एक ‘मुद्दा’ और ‘शरणार्थी’ एक ‘समस्या’ तभी बनते हैं, जब एक राज्य/देश में रहने वाले लोगों के जीवन जीने के संसाधन/अवसर देश की सरकार की नीतियों की वजह से कम होने लगते हैं। ऐसी स्थिति इसलिए आती है क्योंकि संसाधनों पर राज्य के माध्यम में बड़े बिजनेस घरानों की कब्जेदारी बढ़ने लगती है और राज्य इनकी कब्जेदारी बनाये रखने के लिए नागरिकों से किये गये अपने करार को तोड़ने लगता है। यह काम वह विभिन्न कानूनों, योजनाओं, घोषणाओं आदि के माध्यम से करने लगता है। ऐसी स्थिति में जिन नागरिकों को अपने देश में रोजी-रोजगार नहीं मिल पाता वे दूसरे देश की ओर इसकी तलाश में जाते है, वहां पहुंचकर पहले ‘नागरिक’ से ‘शरणार्थी’ और फिर ‘समस्या’ बन जाते हैं। जब सरकारें इन्हें शरण देने से इंकार कर देती है, तो इन्हें ‘घुसपैठिये’ मान लिया जाता है। दोनों ही स्थितियों में ये जिस देश में आते हैं वहां पर नागरिकता एक ‘मुद्दा’ बन जाता है। यहां के नागरिकों को लगने लगता है कि उनके सीमित होते संसाधन और अवसर को ‘अनागरिक’ लोग बांट रहे हैं।

यह पलायन हमेशा दो देशों के बीच नहीं, बल्कि राज्यों के बीच भी होता है। जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, मध्यप्रदेश के लोग महाराष्ट्र, गुजरात, कश्मीर, दिल्ली पंजाब, असम आदि जगहों पर रोजगार के लिए जाते है क्योंकि इन जगहों पर रोजगार के अवसर अपेक्षाकृत अधिक हैं। राज्यों में या देशों में पलायन करने वाले लोगों को यदि जीने-खाने के अवसर अपने ही निवास स्थान में मिले तो शायद ही इनमें से कोई अपना ‘देस’ छोड़ पराये ‘देस’ जाना पसन्द करे। अपने देस की सरकारों की सामंती/पूंजीपति समर्थक आर्थिक नीतियों के कारण इन्हें पलायन करना पड़ता है। कई बार सरकारें अपनी आर्थिक नीतियों से उत्पन्न आन्दोलन की स्थिति में देश के नागरिकों को धार्मिक, जातीय और नस्लीय आधार पर बांटने का काम करती हैं।

इस स्थिति में भी इन देशों से दमनकाारी भेदभाव झेलने वाला अल्पसंख्यक समुदाय भी दूसरे देशों की ओर पलायन करता हैं। हमारे देश की सरकार खुद यह काम कर रही है लेकिन हास्यास्पद है कि तीन देशों में ‘अल्पसंख्यक उत्पीड़न’ का हवाला देकर वह सीएए लेकर आयी है। यह उसकी उदारता को नहीं, बल्कि उसके साम्प्रदायिक फासीवादी विचार को एकदम उजागर कर देता है। रोहिंग्या, जो कि म्यांमार का उत्पीड़ित अल्पसंख्यक समुदाय है और भारत में शरण के लिए आ चुका है, भारत उसे शरण नहीं दे रहा क्योंकि उनका धर्म मुसलमान है। दरअसल, सरकारें अपनी राजनैतिक विचारधारा के आधार पर किसी शरणार्थी को ‘मेहमान’, तो किसी को ‘घुसपैठिये’ घोषित करती है, जैसे तिब्बती शरणार्थी भारत के ‘मेहमान’ हैं और रोहिंग्या शरणार्थी ‘घुसपैठिये’। सीएए भारत की इसी साम्प्रदायिक राजनीति का प्रकटीकरण है।

यह रेखांकित करने वाली बात है कि एनआरसी जैसे फासीवादी कदम के माध्यम से भाजपा जैसी साम्प्रदायिक पार्टी ने असम, त्रिपुरा और पूर्वाेत्तर के लोगों के बीच जगह बनायी और चुनावों में पहले से काफी अधिक सीटें हासिल की। लेकिन सीएए जैसे साम्प्रदायिक फासीवादी कदम से वहां उसका जनाधार खोता भी दिख रहा है। यानि जो भावना उसने खुद भड़काई थी, भाजपा को उसकी की मार पड़ी है। वजह कि आसाम, त्रिपुरा को कोई भी ‘अनागरिक’ नहीं पसन्द, जबकि भाजपा को केवल मुस्लिम नापसंद हैं।

नागरिकता-अनागरिकता के और भी कई आयाम हैं। एक यह है कि कई क्षेत्रों में यह अनागरिकों की घुसपैठ राज्य के समर्थन से कराई जाती है, या होती है, यानि सरकारें इन्हें चुप रह कर होते रहने देती हैं। जैसे आसाम, त्रिपुरा के लिए ‘घुसपैठियों’ का मतलब सिर्फ बांग्लादेश से आये मजदूर ही नहीं हैं, बल्कि पश्चिम बंगाल से गये वे लोग भी हैं, जिनका यहां के सरकारी/गैरसरकारी उच्च पदों पर कब्जेदारी है, स्थानीय लोग उनके अधीनस्थ हैं। झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड और तेलंगाना को अलग राज्य बनाने के पीछे भी स्थानीय लोगों की यही भावना थी। हाल ही में कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाकर भाजपा की सरकार इसी ‘घुसपैठ’ को कराने की कोशिश में थी, ताकि यहां कि जनसांख्यिकी को उनकी राजनीति और सत्ता के मुफीद बनाया जा सके। कश्मीर में प्लॉट खरीदने की बात चुटकुला भर नहीं थी। यह सरकार की मंशा भी है।

इसका एक आयाम यह भी है कि मुनाफे की मंदी के दौर में अपना मुनाफा बनाये रखने के लिए साम्राज्यवादी कॉरपोरेट घराने अपनी सरकारों के माध्यम से अपना काम गरीब देशों में निर्यात करते हैं, ताकि यहां की कम मजदूरी दर के कारण उनकी लागत में कमी आ सके। ये कम्पनियां बिना घुसपैठ किये अपने लिए ‘अनागरिक नागरिक’ चुन लेती हैं। जबकि भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, और श्रीलंका जैसे देश अपने ‘नागरिक’ सस्ते मजदूर के रूप में साम्राज्यवादी देशों को थाल में परोसकर उपलब्ध कराते हैं। इसे ‘आउटसोर्सिंग’ कहते हैं। यह ‘काम’ की नहीं, सस्ते मजदूर के रूप में ‘नागरिकता की ही आउटसोर्सिंग’ हैं क्योंकि ऐसा करके सरकारें अपने देश के नागरिकों से रोजगार देने की संविदा को तोड़ती है।

ध्यान देने योग्य बात ये भी है कि ये साम्राज्यवादी कम्पनियां ऐसी ‘घुसपैठिया’ भी हैं जिन्हें सरकार खुद ही बुला रही है। काम की आउटसोर्सिंग के साथ साम्राज्यवादी देशों की कम्पनियां लगातार भारत में सस्ते मजदूरों की तलाश में ‘घुसपैठ’ कर रही हैं। नागरिकों के विरोध के बावजूद सरकारें इन्हें सम्मान के साथ न सिर्फ बुला रही हैं, बल्कि यहां के संसाधन लूट कर ले जाने के लिए उनके पक्ष में कानून बना रही है। आपको पता होगा कि कोई भी निगम या कम्पनी कानून में एक ‘व्यक्ति’ होता है और इस बाहरी ‘व्यक्ति’ को सरकार अपने देश के नागरिकों से भी अधिक अधिकार दे रही है। अगर दुनिया भर की कम्पनियां सस्ते मजदूर और कच्चे माल के रूप में प्राकृतिक संसाधनों की खोज में एक देश से दूसरे देश जा सकते हैं, तो ‘सस्ते मजदूरों’ को एक देश से दूसरे देश जाकर अपने लिए कम्पनी खोजने में क्या क्या गलत है। लेकिन जब सस्ते मजदूर के रूप में गरीब लोगों का जत्था एक देश से दूसरे देश जाता है, तो उसे ‘अनागरिक’ करार देकर उसे अधिकारविहीन कर दिया जाता है। साथ ही यह जत्था सत्ता के लिए ‘बाहरी लोग’ की भावना भड़काने के काम आता है। इनकी ओर उंगली दिखाकर सरकारें इस बात से ध्यान हटा देती हैं कि खुद उनकी सरकारों ने उनके नागरिक के तौर पर मिलने वाले अधिकार का दमन किया है, किसी बाहरी या भीतरी समुदाय ने नहीं। इन ‘दूसरे’ समुदाय की ओर उंगली दिखाकर सरकारें अपने नागरिकों के बीच फासीवादी राष्ट्रवाद की भावना भड़काने का काम करती हैं। जैसा कि आज यह हमारे देश की सरकारें कर रही हैं।

इन बातों को ध्यान में रखते हुए हम भारत में असम में लागू और भारत के लिए प्रस्तावित एनआरसी को देखें, तो यह साम्राज्यवादी आर्थिक मंदी के दौर में भारत सरकार द्वारा नागरिकता के नाम पर नागरिकों पर किया गया फासीवादी हमला है। इसे अभी केवल ट्रेलर के तौर पर असम में लागू किया गया है। संभवतः अप्रैल 2020 से पूरे देश पर लागू किया जाना है।

यह रजिस्टर कहता है कि देश भर के लोगों को यह प्रमाणित करना होगा कि वे भारतीय नागरिक हैं। इसके लिए नागरिकों को जो दस्तावेज दिखाना होगा, वो अधिकांश लोगों के लिए दिखाना संभव नहीं होगा। यह रजिस्टर ‘एक भारत एक पहचान’ का नारा देकर जबरन बनवाये गये ‘आधार’ को भी नागरिकता के लिए अमान्य मानता है। नागरिकता के लिए आपको जर-जमीन की पैतृकता से साबित करना होगा कि आप नागरिक हैं, जैसा कि पहले कहा जा चुका है। यह बहुत बड़ी आबादी के पास है ही नहीं। आदिवासी जो कि वन, जंगल के प्राकृतिक वासी है, इसका कोई कागज नहीं दिखा सकेंगे। इस देश की मनुवादी व्यवस्था ने चूंकि दलितों को जर-जमीन से वंचित रखा, इसलिए उनके लिए भी इसे साबित करना मुश्किल होगा। महिलाओं को भी, क्योंकि दलितों की तरह जर-जमीन का मालिक नहीं बनने दिया गया, इसलिए उनकी नागरिकता भी किसी की बेटी या पत्नी बन कर ही प्रमाणित हो सकती है, स्वतन्त्र तौर पर नहीं। उनके पुरूष सम्बन्धी की नागरिकता खारिज हुई, तो उनकी नागरिकता स्वतः खारिज हो जायेगी।

ट्रान्सजेण्डर समुदाय, जिनमें से अधिकांश का अपने घर से रिश्ता टूट चुका है, इसे साबित कर पाना मुश्किल होगा। इसके अलावा बहुत बड़े पैमाने पर उन लोगों की नागरिकता को अमान्य करार दे दिया जायेगा, जिनके दस्तावेजों में अक्षरों या संख्या की छोटी-मोटी गड़बड़ी हो गयी है। असम में ऐसे बहुत सारे लोगों को अनागरिक घोषित कर डिटेंशन कैंम्पों में डाला जा चुका है। यहां तक कि भारत की ओर से कारगिल युद्व लड़ने वाले राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित सेनानायक मोहम्मद सनाउल्ला खां को भी विदेशी घोषित कर डिटेंशन कैंप में डाला जा चुका है। भारत के देशभक्त नागरिकों के लिए इससे अधिक शर्मनाक और क्या हो सकता है। इन कारणों से ही जितनी ‘घुसपैठ’ नहीं हुई एनआरसी में ‘घुसपैठियों’ की संख्या उससे कहीं ज्यादा आई है।

31 अगस्त 2019 तक घोषित 19 लाख 5000 लागों में अधिकांश असाम में नागरिक हैं और इनमें से 12 लाख से अधिक हिन्दू हैं। वास्तव में असाम में किये गये इस पायलट टेस्ट ने सरकार को नागरिक-अनागरिक खोजने में कोई मदद नहीं की, बल्कि एनआरसी नाम की इस फासीवादी परियोजना ने सरकार को इसे अपने पक्ष में जनता के खिलाफ इस्तेमाल करने का एक और तरीका दे दिया। एनआरसी ने पहले लोगों को नागरिक-अनागरिक में बांटा, फिर इसमें ‘अनागरिक’ करार दिये गये लोगों को भी बांटने के लिए उसने इस फासीवादी कार्यवाही को साम्प्रदायिकता भी बना दिया। इस रूप में इसे पूरे देश में लागू करने के लिए तैयार कर लिया। भाजपा और कांग्रेस (साथ ही अन्य चुनावी दल) के फासीवाद में थोड़ा सा यही अन्तर है कि एनआरसी जैसे फासीवादी कदम तक कांग्रेस भी सहमत है, सीएए लाने का काम भाजपा जैसी उग्र राष्ट्रवादी साम्प्रदायिक पार्टी ही कर सकती थी। यानि इन दोनों में इतना ही अन्तर है कि एनआरसी जनता की राष्ट्रवादी भावना का इस्तेमाल करने वाली फासीवादी कार्यवाही है, तो सीएए जनता की साम्प्रदायिक राष्ट्रवादी भावना को भड़काने की कार्यवाही। यह दोनों कार्यवाहियां ही शोषित जनता को शासक वर्गों द्वारा बांटने की कार्यवाही है। यह ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना के खिलाफ है। यह संविधान के खिलाफ है।

एनआरसी जब आसाम में लागू किया जा रहा था, उसी समय देश ने देखा था कि यह देश के नागरिकों के लिए कितनी अपमानजनक कार्यवाही है। जिस सरकार को नागरिकों ने चुनकर भेजा है, उसी सरकार के सामने उसे लाइनों में लग कर यह प्रमाणित करना होगा कि वह इस देश का नागरिक है। असाम में चल रही इस कार्यवाही के दौरान एक 100 बरस के बूढे आदमी की तस्वीर सोशल मीडिया पर खूब दिखाई गयी थी। इस अपमानजनक तस्वीर के नीचे किसी ने लिख दिया था- ‘इस आदमी की उम्र चूंकि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी ज्यादा है, इसलिए इन तीनों देशों द्वारा इस आदमी के लिए नागरिकता का प्रमाणपत्र लेकर उपस्थित होना चाहिए’।

दरअसल यह अपमान इसलिए है, ताकि लोकतन्त्र की बात करने वाले लोगों को इसका एहसास कराया जा सके कि सत्ता नागरिकों से ऊपर है। सीएए आने के बाद हिन्दू होने के नाते जो लोग खुश हैं, उनके स्वाभिमान को या तो देश की परिस्थितियों ने मार दिया है, या ‘हिन्दुत्व’ उन्हें इस अपमान का एहसास करने ही नहीं दे रहा है कि जिस देश से हम प्यार करते हैं, उस देश की सरकार को अपनी नागरिकता का प्रमाण देना क्या होता है।

दरअसल सीएए लाकर सरकार ने इस अपमान को भी दो अपमानों में बांट दिया है− छोटा अपमान, बड़ा अपमान। मुसलमानों के सामने हिन्दुओं का अपमान छोटा है और उन्हें इसी बात की खुशी है। डिटेंशन कैंपों में भी इस एहसास को बनाये रखने के लिए हो सकता है सरकार दो तरह के डिटेंशन कैंप बनवाये- मुसलमानों के लिए अलग और गैर मुसलमानों के लिए अलग। हो सकता है यह हो, हो सकता है यह न भी हो। लेकिन हम नाजी यातनागृहों की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं यह पक्का दिखाई देने लगा। यह बेहद खतरनाक है। लेकिन सरकार के इस कदम का जिस तरह से विरोध हुआ है, वही उम्मीद की किरण भी है। फासीवाद ध्वस्त हुआ था, फासीवाद ध्वस्त होगा।


सीमा आज़ाद दस्तक पत्रिका की संपादक हैं

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