शिवसेना के सांसद को ‘अनारकली ऑफ आरा’ का ज़ोरदार तमाचा


विष्‍णु राजगढि़या

फिल्म “अनारकली ऑफ आरा“। पहले दिन का पहला शो देखना जरूरी था। पत्रकार मित्र अविनाश दास की बनाई फिल्म है। दोस्ती में इतना हक तो बनता है। इसलिए आज ही देखी। लेकिन कभी सोचा तक नहीं था कि यह फिल्म इतना गहर असर करेगी। इंटरवल के बाद लगातार आंखें नम रहीं, घर लौटकर भी काफी देर रूआंसा रहा और अब कुछ लिखने बैठा हूं तो जी करता है जी भरकर रो लूं। जीवन में कभी किसी फिल्म ने ऐसा नहीं किया था मेरे साथ। देह-व्यापार के झूठे आरोप में फंसाकर पुलिस द्वारा अनारकली को देह पर महज चादर लपेटकर घर से बाहर खींच लाने और जीप में बिठाकर ले जाने का दृश्य लगातार तैर रहा है आंखों के आगे। अनारकली के अभिनय में स्वरा भास्कर की बेबस निगाहें काफी कुछ सोचने को मजबूर कर देंगी आपको।

अविनाश भाई को लाख सलाम। आप भी बिहार-झारखंड में पत्रकारिता करके भोपाल, दिल्ली और मुंबई की गलियां छानकर किसी सार्थक भूमिका की तलाश करने वाले इस नए निर्देशक के जन्म की बधाई बांटें।

सार्थक सिनेमा के क्षेत्र में अनोखा प्रयोग है फिल्म “अनारकली ऑफ आरा“। यह समानांतर सिनेमा के चर्चित दौर की उन फिल्मों जैसी नहीं जहां कोई सार्थक संदेश तो हो, लेकिन जिसमें पर्याप्त मनोरंजन की कमी दिखे या जो दर्शकों को अंत तक बांधे रखने में समर्थ न हो। यह फिल्म शुरू से अंत तक कौतूहल बनाए रखती है और दर्शक को अनारकली की बेबसी या संघर्ष के साथ जोड़े रखती है। स्वरा भास्कर ने काफी अच्छा अभिनय किया है। चर्चित चेहरों के बगैर भी इतनी प्रभावी बन सकती है, इसका शानदार उदाहरण है यह फिल्म। देश में नायिका-प्रधान फिल्में बेहद कम बनी हैं। बगैर नायक के भी कोई अच्छी फिल्म हो सकती है, इसका भी सबूत है यह फिल्म।

पूरी कहानी में एक भी दृश्य बंबइया फिल्मों जैसा अवास्तविक नहीं। सब कुछ वही है जो हो रहा है, जो होता है, जो हो सकता है। जिन्हें देश की वास्तविकता की समझ नहीं, जो ड्राइंगरूम में बैठकर दुनिया को देखते हैं, वे फिल्म के कुछ दृश्यों पर “हाऊ डू“ “हाऊ डू“ करके अचरज कर सकते हैं। अनारकली के मंच पर चढ़कर धर्मेंद्र चैहान द्वारा गुंडर्ठ या पुलिस अधिकारी द्वारा अनारकली को फंसाने पर हैरान हो सकते हैं।

लेकिन अगर आप शिवसेना के सांसद रवींद्र गायकवाड़ द्वारा एयर इंडिया की महिला कर्मचारी की चप्पल से पिटाई की ताजा घटना देखें, तो समझ सकेंगे कि देश आज किस हालात से गुजर रहा है। अगर आप पिछले साल शिव सेना के ही कुछ सांसदों द्वारा दिल्ली के एक सरकारी गेस्ट हाउस के रसोई कर्मचारी के मुंह में जबरन रोटी ठूंसने की घटना याद करें तो समझ सकेंगे कि देश में पावरफुल लोगों ने किस कदर गुंडई मचा रखी है। वह रसोई कर्मचारी मुसलिम था और रोज़े पर था। या फिर पिछले दिनों दिल्ली के एक सार्वजनिक मंच पर एक शिक्षिका के साथ भाजपा सांसद मनोज तिवारी द्वारा बदतमीजी की घटना में देखें। सत्ता के अहंकार में पावरफुल लोगों द्वारा आम भारतीय नागरिक के साथ व्यवहार की रोशनी में “अनारकली ऑफ आरा“ फिल्म को देखें तो एक बड़ा दृश्य उत्पन्न होगा। चुनौती भी समझ में आएगी और अपनी भूमिका भी।

फिल्म “अनारकली ऑफ आरा“ एक ऐसी बेबस युवती की कहानी है जिसकी आंख के सामने उसकी मां को गोली मार दी गई थी। उस वक्त उसकी मां अपना पेट पालने के लिए एक विवाह समारोह में नृत्य कर रही थी। अनारकली को भी अपना पेट पालने के लिए नर्तकी बनना पड़ा। लेकिन उसे अपने एक स्वतंत्र इंसान होने का मतलब पता था। एक पावरफुल आदमी धर्मेंद्र चौहान ने भरी महफिल उसके साथ बदतमीजी की, तो बदले में अनारकली ने उसे धमाकेदार तमाचा जड़ दिया। फिर वह इस सिस्टम से लड़ती चली गई। सिस्टम पावरफुल आदमी के साथ था, लेकिन अनारकली ने आजाद भारत में आजाद नागरिक होने का अहसास कराया। अपने दम पर वह लड़ी और बता दिया कि वह बेबस नहीं।

फिल्म का अंत बेहद शानदार हुआ, जहां अनारकली उस सत्‍ता के अहंकारी को सरेआम उसकी औकात बताकर अकेली वापस लौट रही है। सुनसान सड़क पर अपनी मस्ती में फुदकती, इठलाती, तैरती हुई अनारकली। आखिर क्या संदेश दे रही है अनारकली?

फिल्म जहां खत्म होती है, वहां के बाद क्या? उस पावरफुल धमेंद्र चौहान की असलियत जगजाहिर कर दी अनारकली ने। सबके सामने। हमारे सामने। इसके बाद क्या हुआ होगा? अगर आपने फिल्म देख ली हो, तो अंत के बाद की कहानी पर सोचें। अगर इससे आगे भी कहानी चलती, तो क्या हुआ होता? धर्मेंद्र चौहान और उसके मददगार पुलिस अधिकारी की गुंडई का कोई नया सिलसिला? या कि समाज ने अनारकली को सर-आंखों पर बिठाया होता? उसकी कला की इज्जत होती, उसके एक जीता-जागता इंसान होने का मतलब समझा जाता? उस पावरफुल धर्मेंद्र चैहान और उसके मददगार पुलिस अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई के लिए कोई जनदबाव बनता? या कि लोग पहले की ही तरह उस पावरफुल धर्मेंद्र चौहान की जी-हुजूरी करना जारी रखते?

फिल्म देखकर लौटते वक्त यही सवाल दिमाग में घूमता रहा कि अंत के बाद क्या? फिल्म का अंत वही विजयी-भाव से इठलाती अकेली लौटती अनारकली जैसा नहीं हो सकता आज के सिस्टम में। संभव है पीछे से तेज आती किसी लंबी काली गाड़ी से उसे कुचल दिया जाए अथवा पुलिस उठाकर किसी झूठे मुकदमे में जेल भेज दे। लेकिन फिल्म संदेश यह कि हम खुद सोचें कि फिल्म के अंत के बाद क्या?

संयोगवश, घर आकर टीवी न्यूज देखने पर पता चला कि एयर इंडिया ने शिवसेना सांसद रवींद्र गायकवाड़ के खिलाफ जबरदस्त कदम उठाया है। औकात बता दी है। उसे काली सूची में डाल दिया है। उसके लौटने की टिकट कैंसिल कर दी है। यह बिंब अचानक अनारकली आरा द्वारा पावरफुल धर्मेंद्र चैहान को औकात बताने जैसा लगा। ऐसा दिखा मानो अनारकली का धमाकेदार तमाचा महज धर्मेंद्र चौहान को नहीं, शिवसेना सांसद रवींद्र गायकवाड़ को भी लगा है। हर उस अहंकारी को लगा है जो हमारे ही वोट से वीआइपी बनकर हम पर ही भौंकने लगता है। हर उस आम भारतीय की तरफ से लगाया गया थप्पड़, जिन्हें आजाद भारत का नागरिक होने का अहसास हो।

क्या अनारकली द्वारा असलियत बताए जाने के बाद धर्मेंद्र चौहान के साथ जैसा सुलूक होना चाहिए, वैसा सलूक हम शिवसेना सांसद रवींद्र गायकवाड़ के साथ कर सकते हैं? इस अहंकारी सांसद का देशव्यापी सामाजिक बहिष्कार करके नागरिक समाज की ओर से सिस्टम को एक धमाकेदार संदेश दे सकते हैं?

फिल्म में जब अनारकली से सहानुभूति रखने वाला एक आम इंसान उसे कहता है- “देश के लिए बुनिया खा लीजिए“, तो इसके पीछे का व्यंग्य समझना भी दिलचस्प होगा। वह पात्र बाद में भी “देश के लिए“ ऐसी ही कई बातें कहकर सोचने को मजबूर करता है कि आज देश के नाम पर देशवासियों को किस बेबसी की गर्त में फेंक दिया गया है।

और हां, इस फिल्म के गीत-संगीत और भाषा का भोजपुरी लहजा निश्चय ही इसे पूर्वांचल के दर्शकों को भी आकर्षिक करेगा। लेकिन जहां मनोज तिवारी जैसे लोगों ने भोजपुरी फिल्म, गीत-संगीत को फूहड़ता का पर्याय बना दिया है, वहीं अनारकली ऑफ आरा एक सार्थक संदेश देने वाली फिल्म के तौर पर याद की जाएगी। इसके गीत या दृश्य कामुकता नहीं जगाते बल्कि बेबसी बताते हैं।

इस फिल्म को महज एक गरीब युवती की बेबसी के तौर पर न देखें। लेकिन इसे महज महिला-सशक्तिकरण की फिल्म कहना भी गलत होगा। इसे हर नागरिक की उस बेबसी के तौर पर देखें, जिसे सिस्टम की ज्यादती का हर कदम पर शिकार होना पड़ रहा है। उस सिस्टम के खिलाफ अनारकली ने अपना संदेश सुना दिया है। हम अपना संदेश कब सुनाएंगे? किस तरह? आखिर कभी तो शुरूआत करेंगे हम। आज ही क्यों नहीं?

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