गंगा हमारी ‘मां’ क्‍यों है: एक वैज्ञानिक की आस्‍था का स्‍वलिखित दस्‍तावेज़ और उसके तर्क

आईआईटी कानपुर के पूर्व प्रोफेसर और डीन डॉ. जी.डी. अग्रवाल ने 13 जून 2008 को पहली बार आमरण अनशन पर बैठने का फैसला लिया था। उन्‍होंने तब तक अनशन जारी रखने की घोषणा की थी जब तक यह तय नहीं हो जाता कि गंगोत्री और उत्तरकाशी के बीच गंगा की धारा को प्रभावित करने वाले सभी विकास कार्य बंद न कर दिए जाएं। दस साल पहले उस अनशन के वक्‍त उन्‍होंने गंगा पर बन रही परियोजनाओं के बारे में अंग्रेज़ी में  एक आलोचनात्‍मक पुस्तिका लिखी थी जिसके माध्‍यम से पहली बार इन परियोजनाओं की सच्‍चाई लोगों तक पहुंची। इस पुस्तिका का अनुवाद मीडियाविजिल के कार्यकारी संपादक अभिषेक श्रीवास्‍तव ने किया था। आज जब डॉ. अग्रवाल उर्फ स्‍वामी सानंद गंगा के लिए अपनी जान दे चुके हैं, तो उनके लिखे को पढ़ा जाना बहुत ज़रूरी है। आखिर एक वैज्ञानिक की एक नदी में आस्‍था के कौन से ऐसे कारण थे जिनके चलते उसने अपनी जिंदगी को दांव पर लगा दिया। प्रस्‍तुत है ‘’पावन गंगा को खतरा’’ नाम से लिखी उनकी एक पुस्तिका के कुछ अंश: 
संपादक

प्रो. जी.डी. अग्रवाल

आर्थिक विकास के अपने एजेंडे पर चलते हुए भारत सरकार ने सस्ती ऊर्जा की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए गंगा घाटी की विभिन्न नदियों समेत भागीरथी पर तमाम पनबिजली परियोजनाओं को लगाने का प्रस्ताव किया है और उन्हें बढ़ावा दे रही है जिससे कि इन नदियों में निहित अपार पनबिजली क्षमताओं का दोहन किया जा सके। तथाकथित ‘विकसित’ देशों की कतार में भारत के लिए कहीं भी एक अदद जगह सुरक्षित करने के लिए भारत सरकार प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर प्रार्थनारत रहने वाले पारंपरिक भारतीय मानस को नष्ट करने के लिए तैयार हो चुकी है और वह धीरे-धीरे उन तमाम संपर्कों को खत्म करती जा रही है जो विशाल भारतीय जनता को उसकी विरासत और संस्कृति से जोड़ती है। यहां तक कि सरकार उस विशिष्ट चीज को भी नष्ट करती जा रही है जो इस पावन धरती को भारत बनाती है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 2002 में मंजूरी दिए जाने के बाद 2005 में निर्माण कार्य शुरू होने से लेकर अब तक विवादास्पद रहे टिहरी बांध के अलावा सत्तर के दशक के उत्तरार्द्ध में भागीरथी नदी पर मनेरी-भाली में एक मध्यम आकार की नदी जल से चलित पनबिजली परियोजना भी शुरू की गई थी। देवप्रयाग में पांच धाराओं के संगम से बनी गंगाजी पर पांच अन्य परियोजनाओं पर काम चल रहा है जिनमें पाला-मनेरी और मनेरी-भाली चरण 2 शामिल हैं। मध्यम दर्जे की बीस अन्य परियोजनाएं देवप्रयाग से पहले बहने वाली जलधाराओं पर योजना के विभिन्न चरणों में चल रही हैं। इनमें से दो तो भागीरथी पर ही हैं। इनमें से एक लोहारिनाग-पाला को हाल में भारत सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय की ओर से मंजूरी मिल चुकी है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि हिमालय की अद्भुत और संवेदनशील पारिस्थितिकी पर बात करते कभी न थकने वाले वे पर्यावरणवादी और गंगा के नाम की कसम खाने वाले समर्पित हिंदू दोनों ने ही मनेरी-भाली के निर्माण के वक्त गहरी नींद साधे रखी तथा टिहरी बांध के खिलाफ भी जो आंदोलन हुआ, वह बदकिस्मती से इतना अपर्याप्त, अपरिपक्व था जो कुछ मुट्ठी भर लोगों के हितों को साधता था। वैज्ञानिकों और पर्यावरणवादियों की बिरादरी तथा हिंदू सांस्कृतिक मानस दोनों के समर्थन के अभाव में ही सुंदरलाल बहुगुणाजी जैसे कद्दावर नेता भी टिहरी आंदोलन को कामयाबी के अंजाम तक नहीं पहुंचा सके। अपनी धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी सोच के कारण बहुगुणाजी ने तो 1916 में ब्रिटिश राज की तत्कालीन पिट्ठू भारत सरकार और हिंदू समुदाय के बीच हुए उस समझौते का भी हवाला देना ठीक नहीं समझा जिसका यदि कानूनी औजार के रूप में इस्तेमाल किया जाता तो टिहरी बांध को बनने से और उसकी डिजाइन और योजनाओं में भारी फेरबदल किए जाने से रोका जा सकता था। उनका वैज्ञानिक आधार और उन्हें मिले समर्थन को भी ठोस नहीं कहा जा सकता।

उपर्युक्त तथ्यों से साफ है कि अब यह कहना कि हम इन परियोजनाओं का समर्थन नहीं करते, पर्याप्त नहीं है- यह स्पष्ट करना जरूरी है कि इनमें से हम किन विशिष्ट परियोजनाओं के खिलाफ हैं और हमारे विरोध की जमीन क्या है। दो ही आधार हमारे विरोध के हो सकते हैं- 1) वैज्ञानिक और पर्यावरण से जुड़े कारण ; 2) आस्था, संस्कृति और भानाओं का आधार। यदि यह आधार वैज्ञानिक और पर्यावरणीय है, तो फिर इसे इतना ठोस होना चाहिए और योग्य विशेषज्ञों द्वारा रखा जाना चाहिए जिससे परियोजनाओं के प्रवर्तकों को मात दी जा सके। ऐसे आधार का उल्लेख करते वक्त आर्थिक पहलुओं को भी दिमाग में रखना चाहिए और परियोजना स्थल व डिजाइन में तब्दीली कर इसमें कुछ संशोधन किए जा सकते हैं। यदि हमारे विरोध की जमीन आस्था, संस्कृति, परंपराओं और भावनाओं की है, तो हमें इतना साहसिक होना चाहिए कि हम खुल कर इस बात की घोषणा कर सकें।

जाहिर तौर पर इसका विरोध करते वक्त हमें अपनी भावनाओं के प्रति पूरी तरह से संतुष्ट और सहमत होना पड़ेगा जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि इसमें किसी भी प्रकार की हिंसा हमारी तरफ से न की जाए, क्योंकि एक ऐसा इंसान जो अपनी आस्थाओं की रक्षा के लिए दृढ़ नहीं रह सकता वह इंसान नहीं है और एक ऐसा राष्ट्र जो अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए खड़ा नहीं हो सकता, उसे राष्ट्र कहलाने का हक नहीं है।

नीचे हम भागीरथी पर बन रही और प्रस्तावित पनबिजली परियोजनाओं, खासकर पर्यावरण और वन मंत्रालय से निर्माण की मंजूरी प्राप्त पाला-मनेरी और लोहारिनाग-पाला परियोजनाओं के हमारे विरोध के दो आधारों पर चर्चा करेंगे;

1) आस्था, संस्कृति, परंपरा और भावनाओं का आधार ; और दूसरा

2) पर्यावरणीय/वैज्ञानिक कारण।

हम बार-बार इस बात को दुहराना चाहेंगे कि हमारे विरोध की वहली वजह प्राथमिक है (आस्था, संस्कृति, परंपरा और भावनाओं का आधार) जबकि वैज्ञानिक और पर्यावरणीय कारण हमारे नजरिये से सिर्फ निरर्थक किस्म के अनुलग्नक ही हैं।

क. आस्था, संस्कृति, परंपरा और भावना बनाम भागीरथी पर बन रही परियोजनाएं

क-1: गंगाजी एक ऐसी विशिष्ट नदी हैं जिस पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए

भारतीय सांस्कृतिक जनमानस में (जो अनिवार्य तौर पर हिंदू जनमानस है क्योंकि इस्लामिक / पारसी / यहूदी / ईसाई मानस भारत की धरती और भौगोलिकता से किसी भी तरह नहीं जुड़ा है) गंगाजी कोई आम नदी नहीं, बल्कि सुर-सरि हैं, ऊर्जा का अक्षय दैविक प्रवाह, एक जीती-जागती सचाई ; ‘मां’ हैं, जिसे दसियों करोड़ हिंदू पूजते हैं- वे सभी भारतीय जो इस धरती के साथ अपने संपर्कों के महत्व को सिर्फ कुछ सदियों नहीं बल्कि तमाम सहस्राब्दियों पुराना होना स्वीकार करते हैं।

यदि करोड़ों हिंदू केरल, तमिलनाडु, सौराष्ट्र, कश्मीर समेत देश के तमाम कोनों से हरिद्वार, इलाहाबाद, बनारस, गंगासागर और गंगा किनारे बसे अन्य तीर्थस्थलों पर इकट्ठा होते हैं, तो इसलिए नहीं कि गंगाजी ने उनकी जमीनों को सींचा है, या उन्हें बिजली-पानी देती हैं और यहां तक कि उनके कचरे को भी अपने भीतर समाहित कर लेती हैं। नहीं! गंगाजी उन आम नदियों और जलधाराओं की तरह नहीं हैं जो ऐसे छिटपुट काम करती फिरें। गंगाजी न तो नील हैं, न यूफ्रेटस, टेम्स, डैन्यूब या फिर सिंधु। इन नदियों के उद्गम या इनके स्थलों तक जाने के लिए कोई भी आकांक्षा नहीं रखता है जितना गंगाजी के किनारे आने के लिए करोड़ों हिंदू रखते हैं। वे मरते वक्त भी गंगाजी के करीब रहना पसंद करते हैं ; कम से कम मौत से पहले गंगाजी की कुछ बूंदे ही मयस्सर हो जाएं!

गंगाजी में बहता पानी साधारण नहीं है, वह ‘गंगाजल’ है। यह सिर्फ पीने, घरेलू कामकाज, सिंचाई और मछली पालन के काम नहीं आता कि इसे डब्ल्यूएचओ या पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा किसी मानक को पूरा करने की दरकार हो। यह हिंदू आस्था, संस्कृति, परंपरा और भावनाओं के जीवन और मरण का सवाल है। एक बार सोच कर देखें कि आखिर क्यों गंगाजी के किनारे कुंभ मेले से लेकर कांवड़ की परंपरा और बिहार के छठ समेत तमाम सांस्कृतिक कर्मकांड किए जाते हैं।

भारत के तथाकथित पढ़े-लिखे वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, योजनाकारों, अर्थशास्त्रियों और हालिया सरकारों की बुनियादी दिक्कत यही है कि वे पहले गंगाजी को किसी दूसरी नदी की तरह बरतते हैं, फिर वैसा ही बना देते हैं। वे किसी आम जलधारा की ही तरह गंगाजी पर भी वही मानक, ईआईए के दिशानिर्देश, आर्थिक नियोजन आदि थोप देना चाहते हैं। वे गंगाजल को भी किसी भी आम पानी कीइ तरह मानते हैं जो परिशोधित नलके के जल या बिसलेरी/अक्वाफिना से खराब होता है। उन्होंने कभी जरूरी समझा ही नहीं कि गंगाजी के प्रति भारतीयों के सम्मान और आस्था के आधार को समझा जाए। उनका वास्तविक उद्देश्य यही है कि भारत की धरती पर जो कुछ भी विशिष्ट है, उसे अपमानित किया जाए, नष्ट कर दिया जाए और यहां की संस्कृति व लोगों को दुनिया की अन्य राष्ट्रीयताओं, यहां तक कि यूरोपीय मूल के लोगों के मुकाबले भी दोयम दर्जे का समझा जाए। मैं बिलकुल सीधा कहना चाहूंगा-  गंगाजी को किसी अन्य नदी के बराबर रखना मेरे लिए दरअसल आधुनिक वैज्ञानिक और आर्थिक संस्कृति द्वारा पारंपरिक भारतीय संस्कृति, आस्था, मानस पर हमले के समान है और उसके खिलाफ लड़ाई भी इसी स्तर पर की जानी होगी। बिलकुल स्पष्ट तौर पर हम यह कह देना चाहते हैं कि:

क-2: गंगाजल के विशिष्ट और अद्भुत गुण

हिंदू संस्कृति का एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण लक्षण गंगाजी के गुणों में आस्था है। यह लंबे समय के अनुभव और बोध का नतीजा है, न कि सिर्फ अंध आस्था जिसे हमारे ऋषियों ने बताया है। गंगाजल के उच्चतम स्तर के आध्यात्मिक और मानसिक प्रभावों के अलावा (जिसे प्रयोगशाला में नहीं नापा जा सकता है, उसके लिए अनुभव जरूरी है) यह बैक्टीरियारोधी, रोग उपचारी, स्वास्थ्यवर्द्धक और शुद्धिकारक होता है जितना कोई भी जल नहीं होता। भले ही सभी पढ़े-लिखे और विज्ञान में विश्वास रखने वाले लोग इसे बकवास और अंध-आस्था समझ कर खारिज कर दें, उनके पास किसी भी समग्र वैज्ञानिक अध्ययन से उपजे आंकड़े या सबूत मौजूद नहीं हैं जो उन्हीं की धारणाओं को साबित कर सकें। यदि आज का आधुनिक वैज्ञानिक समुदाय मानता है कि गंगाजल के विशिष्ट गुणों में सदियों पुरानी आस्था निराधार और अंधी है, तो उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वह इसे सिद्ध करे। और यह बताया जाना जरूरी है कि आज तक ऐसा कोई भी अध्ययन नहीं हुआ है। दूसरी ओर वैज्ञानिकों ने कई ऐसे अध्ययन और पर्यवेक्षण किए हैं जो हिंदू आस्था का समर्थन करते हैं कि गंगाजल में उपर्युक्त सभी चमत्कारिक लक्षण मौजूद होते हैं। इनमें से कुछ को हम नीचे दिए दे रहे हैं:

जाहिर तौर पर विज्ञान ने जो कुछ भी साबित किया हे, वह एकपक्षीय है, यहां तक कि उसे हम दूषित निष्कर्ष कह सकते हैं जिसने हमारे मस्तिष्क को भी गंदा कर दिया है और साधु-संतों की कही बातों को झुठला दिया है। इसका आसान शिकार बेचारी गंगाजी को बनाया गया है।

जैसा कि कानून में प्रस्थापना होती है कि तब तक किसी को दोषी नहीं माना जाता जब तक उसके ऊपर आरोप सिद्ध न हो जाएं, उसी तरह संस्कृति से जुड़े मसलों की भी एक पूर्वस्थापना यह है कि हमारी सदियों पुरानी परंपरा में आस्था और सम्मान को तब तक बनाया रखा जाए जब तक कि निष्कर्ष तौर पर उन्हें गलत न साबित कर दिया जाए। एक बार हम उन तमाम लोगों को गंगाजल के विशिष्ट लक्षणों को गलत साबित करने का मौका देते हैं जिन्हें लगता है कि गंगाजी या गंगाजल में कुछ भी विशेष नहीं है और सामान्य जल की तरह आर्थिक उद्देश्यों को पूरा करने हेतु इस्तेमाल किया जा सकता है। यदि वे ऐसा कर भी देते हैं, तब भी उन्हें करोड़ों आस्थावान हिंदुओं के सांस्कृतिक विश्वास पर हमला करने का कोई हक नहीं होगा;  वे इस तथ्य का इस्तेमाल सिर्फ आस्था को कम करने में ही कर सकते हैं।

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