दिल्‍ली की गर्म और ज़हरीली हवा पर चुप्‍पी ओढ़े लोग क्‍या बैलाडिला के आदिवासियों से कुछ सीखेंगे?

आम तौर पर नक्सली घटनाओं के लिए चर्चा में रहने वाला छतीसगढ़ का दंतेवाडा जिला एक बार फिर ख़बरों में है. मगर इस बार कारण नक्सली घटना नहीं है. कारण यह है कि दंतेवाडा जिले के बैलाडिला पर्वत श्रृंखला के नन्दराज पहाड़ पर स्थित NMDC की डिपोजिट 13 नंबर की निजी खनन कंपनी अडानी इंटरप्राइजेस लिमिटेड को दिए जाने का स्थानीय लोगों ने विरोध किया. स्थानीय लोगों का कहना है कि डिपोजिट 13 नंबर कि खदान में खनन के लिए जिस सैकड़ों एकड़ जंगल को काटने की योजना है उसमें उनके देवी-देवताओं का निवास है और वो किसी भी कीमत पर अपनी आस्था से खिलवाड़ नहीं होने देंगे. सिर्फ दंतेवाडा ही नहीं बल्कि आस-पास के गाँव और अन्य जिलों से भी लोग इसके खिलाफ प्रदर्शन करने जुटे. इसका परिणाम यह हुआ कि मंगलवार को राज्य सरकार को आदिवासियों के प्रदर्शन के आगे झुकना पड़ा और वहां उत्खनन कार्य पर रोक लगा दी है.

इस खबर को जानने के बाद थोड़ी देर के लिए छत्तीसगढ़ से निकल कर दिल्ली की ओर आते हैं. दिल्ली में गर्मी अपने सारे पुराने रिकॉर्ड तोड़ रही है. पंखे और कूलर तो छोडिये अब एसी भी फेल हो रहे हैं. साल भर जंगल काटे जाने पर चुप्पी साधे रखने वाले हम, अब बोल रहे हैं कि “भई गर्मी बहुत बढ़ गई है, पेड़ लगाए जाने चाहिए.” हम मौसम और पर्यावरण को लेकर कितने संजीदा हैं इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह चुप्पी भी अब जाकर टूट रही है. पारा 48 डिग्री को छू रहा है और हमारा घर में बैठना भी मुश्किल हो गया है. यानि हमें पर्यावरण की याद भी तब ही आती है जब समस्या सर पर आ जाती है. आम दिनों में जब स्थिति सामान्य सी नज़र आती है तब हमारा पर्यावरण को लेकर रवैया कुछ ऐसा होता है कि हम वेदर रिपोर्ट को तवज्जो देना भी ज़रूरी नहीं समझते हैं. साल भर हिन्दू-मुस्लिम डिबेट में उलझाए रखने वाले न्यूज़ चैनलों को भी मौसम और पर्यावरण की याद तब ही आती है जब केरल जैसा कोई राज्य बाढ़ या अन्य किसी भीषण प्राकृतिक आपदा का सामना कर रहा होता है.

दिल्ली में रहने वाले जानते हैं कि जब यूपी और हरियाणा के खेतों में स्थानीय किसानों द्वारा पुआल जलाया जाता है तो वहां का धुआं किस तरह दिल्ली को गैस चेंबर में तब्दील कर देता है. यह समस्या हर साल की है और इसके अलावा भी सामान्य दिनों में दिल्ली लगातार प्रदूषित हवा का उत्सर्जन और सेवन कर रही है. मगर अफ़सोस हमारे अपने मुद्दों को लेकर हमारी नासमझी ने प्रदूषण को कभी चुनाव का मुद्दा ही नहीं बनने दिया. स्मार्ट सिटी और बुलेट ट्रेन जैसे सपनों की चकाचौंध में पड़कर पर्यावरण का सवाल हमने ताक पर रख दिया है.

एम्स सहित देश के सभी अस्पतालों में कैंसर जैसे घातक बीमारियों के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है. विदर्भ और बुंदेलखंड सहित देश के विभिन्न इलाकों में सूखा पड़ना आम होता जा रहा है. किसानों पर मौसम की मार और उसके बाद आत्महत्या का विलाप हर साल टीवी पर दिखता है. याद करिये तमिलनाडु के उन किसानों को जो जंतर-मंतर पर मुँह में चूहा रख कर प्रदर्शन कर रहे थे. मंदसौर का गोली कांड भी याद करिये और साथ ही बीते वर्ष का किसान मुक्ति मार्च भी, दरअसल यह सारी घटनाएं एक सूत्र में ही बंधी हुई हैं.

कॉरपोरेट ने स्टेट के साथ मिलकर हमारे आस-पास की तस्वीर को बहुत हद तक बदलाहै। हर साल हमारे गांव-देहात की कच्ची-पक्की सड़क को रौंदने वाले वाहनों की संख्या बढ़ रही है। हमने अपने शहर और आस-पास फैक्टरियों और कारखानों की संख्या को लगातार बढ़ते देखा है। इन्‍हीं सारे बदलावों का असर है कि धीरे-धीरे कौवा और गौरैया जैसे पक्षियों को देख पाना दुर्लभ होता जा रहा है।

हाल ही में ‘दी ट्रिब्यून’ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक वायु प्रदूषण से होने वाली बीमारियों के कारण भारत सहित पूरे दक्षिण एशिया के लोगों की औसत आयु 2.6 वर्ष कम हो जाएगी. इसके साथ ही ‘द इकोनोमिक टाइम्स’ की एक रिपोर्ट बताती है कि यदि भारत अपनी प्रदूषण नियंत्रण की योजनाओं पर पूरी तरह से काम भी करे तब भी वह इतनी लचर और बेकार हैं कि 2030 तक 674 मिलियन से भी ज्यादा भारतीय ‘अति प्रदूषित हवा’ में साँस ले रहे होंगे. ऑस्ट्रिया स्थित ‘इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एप्लाइड सिस्टम एनालिसिस’ (IIASA) और भारत के ‘द काउंसिल ऑन एनर्जी एन्वार्मेंट एंड वाटर’ (CEEW) द्वारा संयुक्त रूप से की गई यह स्टडी बताती है कि 2030 तक सिर्फ 833 मिलियन लोग ही ऐसे होंगे जो ऐसे स्थान पर रह रहे होंगे जहाँ की हवा नेशनल एम्बियंट एयर क्वालिटी स्टेंडर्ड पर खरी उतरती है.

यह दोनों रिपोर्ट इस लिहाज से महत्वपूर्ण हैं कि यह बताती हैं कि आज पर्यावरण से जिस तरह खिलवाड़ किया जा रहा है उससे न सिर्फ़ हमारा वर्तमान बल्कि आने वाली पीढ़ी का भविष्य भी खतरे में है. यूँ नहीं है कि पर्यावरण के विषय पर कोई बोलने वाला ही नहीं है. हमारे देश में सुधा भारद्वाज और सोनी सोरी जैसे सामाजिक कार्यकर्त्ता जंगलों को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. ऊपर दंतेवाडा कि जिस घटना का ज़िक्र है उसमें तमाम आदिवासियों के साथ सोनी सोरी लगातार खड़ी रही हैं. इसके अलावा बीते साल सुधा भारद्वाज पर तथाकथित ‘अर्बन नक्सली’ होने का आरोप लगाकर उन्हें जेल में बंद कर दिया गया. इसी प्रकार बिहार में पत्रकारिता कर रहे और आदिवासियों के हक़ में लगातार सरकार के प्रति आलोचनात्मक होकर लिख रहे रुपेश कुमार सिंह को बिहार पुलिस द्वारा अचानक नक्सली कहकर गिरफ्तार कर लिया गया.

सरकार कोर्पोरेट के साथ मिलकर जो खेल खेल रही है उस समझने की ज़रूरत है. कोर्पोरेट अपने मुनाफे के लिए धरती को निचोड़ लेना चाहता है और सरकार अपने निजी फायदे के लिए उसे ऐसा करने का भरपूर अवसर प्रदान कर रही है. याद रखा जाना चाहिए कि जंगलों का कटना हमारी साँस का कम होना है. विकास और रोजगार के खोखले वादों की चकाचौंध दिखा कर सरकार कोर्पोरेट के साथ आपकी और आपके बच्चों की जान का सौदा कर रही है. ‘तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा’ यह वाक्य कोई जुमला नहीं है बल्कि भविष्य का सच है. ऐतिहासिक इमारतों, रेल और एअरपोर्ट के बाद अब जिस तरह से जंगलों को भी प्राइवेट हाथों में दिया जा रहा है वह बेहद खतरनाक है. यदि यही हाल रहा तो कोई ताज्जुब नहीं कि हमारे बच्चों को साँस लेने के लिए हवा भी अदानी और अम्बानी जैसे कोर्पोरेट्स से खरीदनी पड़े. पर्यावरण प्रदूषण और दोहन को लेकर सिविल सोसाइटी की यह चुप्पी भविष्य में मानव सभ्यता की कब्र खोदने का काम करेगी.


शिशिर अग्रवाल जामिया मिल्लिया इस्लामिया में बी.ए. मास मीडिया, द्वितीय वर्ष के छात्र हैं 

 

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