ख़ुदा का शुक्र है कि एडिटर्स गिल्ड की चुप्पी टूटी। यह अलग बात है कि उसका बोलना, उसकी चुप्पियों पर ऐसे सवाल खड़ा कर रहा है जिस पर उसे शर्मिंदा होना चाहिए।
एडिटर्स गिल्ड ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी के नाम लेकर उनकी आलोचना की है कि उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी का इंटर्व्यू लेने वाली एएनआई की संपादक (मालकिन) स्मिता प्रकाश पर लचीला होने का ठप्पा ल गाया है। राहुल गाँधी ने pliable शब्द का इस्तेमाल किया था स्मिता प्रकाश के लिए जिसका अनुवाद नरमी भी हो सकता है और इंटरव्यू देखने वाला कोई भी शख्स कहेगा कि वे सवाल पूछने में न सिर्फ़ नरम रहीं, बल्कि तमाम ऐसी जगहों पर जहाँ किसी पत्रकार से क्रॉस क्वेश्चन की उम्मीद की जाती है, वहाँ भी वे चुप रहीं।
लेकिन एडिटर्स गिल्ड को ये मंज़ूर नहीं कि किसी पत्रकार पर ठप्पा लगाया जाए। उसने इस पर आपत्ति जाहिर की है। राहुल की नाम के साथ आलोचना करने के साथ उसने कुछ पुराने पाप भी धोए। गिल्ड ने कहा है कि बीते दिनों बीजेपी और आम आदमी पार्टी की ओर से भी पत्रकारों को प्रेस्टीट्यूट, बाजारू, बिकाऊ, दलाल आदि कहा गया।
सवाल है कि जब नरेंद्र मोदी ने बाजारू और पूर्व जनरल वी.के.सिंह ने बतौर केंद्रीय मंत्री प्रेस को प्रेस्टीट्यूट कहा तो गिल्ड की आवाज़ क्यों नहीं फूटी थी ? गुस्सा क्यों नहीं आया? वह चुप क्यों रहा? क्या उसे इंतजार था कि राहुल गाँधी कुछ बोले तब वह इसकी आलोचना करे। और मोदी का नाम लेने से वह हिचक क्यों रहा है जब राहुल गाँधी का नाम लेने में उसे दिक्कत नहीं है।
इससे भी बड़ी बात यह है कि मौजूदा दौर में मीडिया जिस तरह नत्थी पत्रकारिता कर रहा है, उस पर गिल्ड चुप क्यों है? क्या यह सच नहीं कि मीडिया आजकल मोदी सरकार का न सिर्फ प्रवक्ता बना हुआ है, बल्कि सरकार के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वालों को देशद्रोही बताता भी घूम रहा है। क्या यह बात भुलाई जा सकती है कि कुछ चैनलों ने देश की सर्वेश्रेष्ठ युनिवर्सिटी जेएनयू को देश का दुश्मन बताने का अभियान छेड़ा हुआ है। गिल्ड की चिंता का विषय यह क्यों नहीं है? क्या गिल्ड कभी ऐसी संपादकीय नीति और उन्हें लागू करने वाले संपादकों की आलोचना करेगा ?
यह बात समझ के बाहर है कि बाजारू और प्रेस्टीट्यूट कहे जाने से बेअसर एडिटर्स गिल्ड ‘नरम’ कहे जाने पर गरम कैसे हो गया ?