दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार की मीयाद गुरुवार शाम समाप्त हो गयी। शनिवार को वोटिंग है। पिछले कुछ चुनावों की तरह इस बार भी भाजपा, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस, इन्हीं तीनों दलों का ज़िक्र अख़बारी रिपोर्टों और चौराहा चर्चाओं में शामिल रहा है। हर बार की तरह इस बार भी किसी ने न जानने की ज़हमत उठायी और न पूछने की, कि दिल्ली के अजय भवन, गोपालन भवन और चारु भवन से निकलने वाली वाम राजनीति के झंडाबरदार कहां और किधर हैं।
आंख घुमाकर देखें तो जेएनयू से लेकर शाहीन बाग और जामिया से लेकर खुरेजी तक वैसे तो सभी दिशाओं में वाम मौजूद है, लेकिन ज़हनी तौर पर “लेफ्ट इज़ लेफ्ट आउट” का अख़बारी जुमला सर्वस्वीकृत सा हो गया जान पड़ता है। इसके बावजूद सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को हर ओर हर कुछ वाम ही दिखता है, जिसके कुछ नए पर्यायवाची उसने बीते छह वर्षों में गढ़ लिए हैं। यह अजीब विडम्बना है। भाजपा की चुनावी टक्कर वैसे तो ‘आप’ के साथ है लेकिन उसका पहला और प्राथमिक दुश्मन वाम है। क्यों? वाम क्या ‘आप’ से ज्यादा ताकतवर हो चुका है पहले से? या फिर यह भाजपा का वैचारिक मोतियाबिंद है कि उसे सब कुछ वाम दिखता है?
वाम दलों की दिल्ली की चुनावी दौड़ में आखिर पोज़ीशन क्या है?
याद करें, पिछले दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी वाम दलों ने एकाध सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करने के अलावा आम आदमी पार्टी को समर्थन दिया था। उनकी स्थिति इस बार भी वही है, बदली नहीं है। बस परिस्थिति बदल गयी है। इस बार सीपीआइ (एमएल) ने 70 में से 68 सीटों पर आप को समर्थन दिया है। बाकी की दो सीटों, बदरपुर में सीपीएम और बवाना में सीपीआइ के उम्मीदवारों को सीपीआइ (एमएल) का समर्थन रहेगा। उसी तरह सीपीआइ और सीपीएम भी पिछली बार की तरह आम आदमी पार्टी के ही साथ हैं। फ़र्क बस यह आया है कि इस बार के चुनाव में नागरिकता संशोधन कानून विरोधी आंदोलन का प्रतीक बन चुका शाहीन बाग चुनाव के केंद्र में है। यही वह बिंदु है जहां वाम की मौजूदगी निर्णायक हो जाती है और आम आदमी पार्टी की “चरित्रहीनता” को मुफ्त में ज़मानत मिल जाती है।
एनआरसी पर ‘आप’ की ज़मानत बना लेफ्ट
यह बयान 50 दिन से सड़क पर ठंड में बैठे मुसलमानों के बीच इस रूप में गया कि शुक्र है, दिल्ली पुलिस केजरीवाल के पास नहीं है वरना अब तक जाने क्या हो जाता। यहीं पर जो अविश्वास की दीवार बनी, उसे तोड़ने की पूरी कोशिश लेफ्ट ने की और चाहे अनचाहे एक बार फिर लोकरंजक राजनीति के एक धड़े का चारा बन गया।
सीपीआइ (एमएल) की वरिष्ठ नेत्री और ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव विमेन एसोसिएशन (ऐप्वा) की सचिव कविता कृष्णन को सुनें, “आम आदमी पार्टी कई मामलों में, उदाहरण के लिए सीएए-एनआरसी ही ले लीजिए, उनकी राय स्पष्ट नहीं है पर वक्त की जरूरत है कि जो भी दल भाजपा-आरएसएस की सांप्रदायिक राजनीति को मात देने की स्थिति में हो, उसका साथ दिया जाए. दिल्ली के लिए हमारी यही रणनीति है. बेशक बिहार विधानसभा चुनावों में हम अलग रणनीति के साथ चुनाव में उतरेंगे।”
सीपीआइ (एमएल) दिल्ली प्रदेश के सचिव रवि राय इस मामले में ज्यादा स्पष्ट नज़र आते हैं, “पूर्ववर्ती सरकारों की तुलना में आप ने स्कूली शिक्षा, बिजली, स्वास्थ्य और पानी पर बेहतरीन काम किया है, लेकिन कामगारों को न्यूनतम आय और संविदा कर्मचारियों को पक्की नौकरियां देने में असफल रही है आप की सरकार। हाल में ही अनाज मंडी में जो आग लगने की वीभत्स घटना हुई, उसने साबित किया कि आप की सरकार कामगारों को बेहतर जीवन स्तर मुहैया कराने में विफल रही है।”
दिल्ली में आप को समर्थन देते हुए सीपीआइ (एमएल) ने एलान किया था कि पार्टी शाहीन बाग, इंद्रलोक, सीलमपुर, मुस्तफाबाद, खुरेजी, तुर्कमान गेट और मंडावली में जारी सीएए-एनआरसी के आंदोलन को मजबूत करेगी. यहां याद दिलाना जरूरी है कि जेएनयू हिंसा, जामिया हिंसा या शाहीन बाग के आंदोलन के बाद भी केजरीवाल ने बतौर मुख्यमंत्री प्रदर्शनस्थलों पर नहीं पहुंचे। केजरीवाल ने प्रदर्शनों से खुद को दूर रखा। इंडिया टीवी को दिए इंटरव्यू में दिल्ली में बिगड़ती कानून व्यवस्था और शाहीन बाग की वजह से होने वाली ट्रैफिक की समस्या पर केजरीवाल ने कहा था, “वह [अमित शाह] कैसा गृहमंत्री है, जो एक सड़क नहीं खुलवा सकता है।” एनडीटीवी के साथ इंटरव्यू में केजरीवाल ने कहा, “शाहीन बाग के प्रदर्शन की वजह से लोगों को परेशानी हो रही है। एंबुलेंस और स्कूल की बसों की आवाजाही में परेशानी आ रही है। अगर हमारे [दिल्ली सरकार] पास दिल्ली पुलिस होती तो हम दो घंटे में शाहीन बाग की सड़क खुलवा देते।”
देश के सबसे पावरफुल आदमी अमित शाह एक रास्ता नहीं खुलवा सकते?: अरविंद केजरीवाल#DelhieElection2020 #ArvindKejriwal pic.twitter.com/0u42ldU1wR
— NDTV Videos (@ndtvvideos) February 4, 2020
इस संदर्भ में ‘आप’ में केजरीवाल के डिजिटल कैंपेन के एक सदस्य बताते हैं, “अगर केजरीवाल शाहीन बाग जाते तो भाजपा के लिए पोलराइज़ करना और भी आसान हो जाता। चूंकि गृहमंत्री और प्रधानमंत्री शाहीन बाग को लेकर आक्रामक हो गए हैं इसीलिए हमें भी कैंपेन भी बदलाव करने की जरूरत पड़ी। टीम ने एक ऐसा कॉम्युनिकेशन लाइन बनाया जिससे कि हम साधारण फ्लोटिंग वोटर को ये संदेश दे सकें कि आम आदमी पार्टी शाहीन बाग का रास्ता खुलवाने के पक्ष में है लेकिन दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के अधीन है। दूसरी तरफ, पार्टी यह भी ध्यान में रख रही है कि शाहीन बाग को लेकर कुछ भी आक्रामक नहीं बोलना है। सिर्फ भाजपा के दावों को काउंटर करना है।”
यही वो परिस्थिति है जहां पर लेफ्ट की भूमिका दिल्ली चुनाव में अहम हो जाती है और पूरा संसदीय वाम मुस्लिम इलाकों में आम आदमी पार्टी का ज़मानतदार बनकर उभरता है।
दिल्ली चुनाव में लेफ्ट वाया शाहीनबाग
लेफ्ट के कार्यकर्ता सीएए-एनआरसी के आंदोलनों को देश के गरीबों, वंचितों और शोषितों की लड़ाई से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। सीपीआइ की नेत्री और ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की जनरल सेक्रेटरी अमरजीत कौर कहती हैं, “सीएए, एनआरसी और एनपीआर भारत की अखंडता को तोड़ने का एक डेडली कॉम्बो है। इसका हम सब पुरजोर विरोध करते हैं। इन आंदोलनों में, जो देश के विभिन्न शहरों में हो रहे हैं, हमारी सबसे पहली कोशिश है कि हम यह सुनिश्चित करें कि आंदोलन सिर्फ मुसलमानों का न लगे। बेशक आंदोलन की पहली पंक्ति में मुसलमान होंगे क्योंकि उनकी नागरिकता का अस्तित्व दांव पर है पर हमें बहुसंख्य गरीबों, कामगारों, वंचितों और शोषितों के बीच असंवैधानिक सीएए के खिलाफ आंदोलन को ले जाना है।”
आज से 16 वर्ष पहले लेफ्ट ने संसदीय राजनीति में अपना स्वर्णिम काल देखा था। 2004 के लोकसभा चुनावों में वोट शेयर के लिहाज से लेफ्ट फ्रंट तीसरा सबसे बड़ा गठबंधन था। 543 सीटों की लोकसभा में 59 सीटें लेफ्ट फ्रंट के हिस्से आई थीं। उसके बाद से लेफ्ट की संख्याबल में गिरावट आती गई है। मौजूदा लोकसभा में लेफ्ट फ्रंट ने बमुश्किल पांच सीटें जीती हैं।
अमरजीत बताती हैं, “हम लोग ट्रेड यूनियन कांग्रेस के विभिन्न चैप्टर्स में भारत की गिरती अर्थव्यवस्था और बढ़ती बेरोजगारी का प्रश्न उठा रहे हैं। उन्हीं कार्यक्रमों में सीएए-एनआरसी की भी चर्चा की जा रही है। हम लोग समझते हैं कि अगर संयोग से कभी एनआरसी आ गया तो उससे सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे मजदूर और कामगार।”
केंद्रीय बजट में जीवन बीमा निगम (एलआइसी) में सरकार की हिस्सेदारी को बेचने के प्रावधान को लेकर मंगलवार को एलआइसी कर्मचारियों ने दिल्ली में बड़ा प्रदर्शन किया था। ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस एलआइसी के प्रदर्शनकारी कर्मचारियों को अपना समर्थन दे रहा है। उनकी कोशिश है कि 2.85 लाख एलआइसी कर्मचारियों के अपने मुद्दे के साथ-साथ सीएए-एनआरसी के खिलाफ भी उन्हें लामबंद किया जाए।
ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल फॉर ट्रे़ड यूनियन (एआईसीसीटीयू) की दिल्ली सचिव श्वेता राज भी मुद्दों की इंटर-सेक्सशनलिटी पर जोर देती हैं, “यह पहला मौका है जब भारी संख्या में लोग मोदी सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरे हैं। सीएए-एनआरसी एक ट्रिगर है लेकिन इसमें कई सारे मुद्दों को जोड़ना हमारी जिम्मेदारी है। महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षण संस्थानों में फीस बढ़ोतरी, रेलवे निजीकरण आदि सारे मुद्दों पर काम करने की जरूरत है।”
बहरहाल, लेफ्ट के लिए एक सबसे बड़ी चुनौती संसाधनों की है। भाजपा और आरएसएस की तरह उनके पास संसाधन नहीं हैं, जिसके चलते आरएसएस के प्रौपेगैंडा और मिथ्या प्रचार को बड़े स्तर पर काउंटर कर पाना मुश्किल है।
अमरजीत कहती हैं, “टीवी और सोशल मीडिया के माध्यम से थोक के भाव में प्रौपेगैंडा का संचार किया जाता है। उसे उसी स्तर पर, उन्हीं माध्यमों पर काउंटर कर पाने की हमारी क्षमता नहीं है। हमें जमीन पर अपार जनसमर्थन मिल रहा है। खासकर नौकरियां जाने से ट्रेड यूनियन की सदस्यता भी बढ़ रही है। यह कह पाना मुश्किल है कि चुनावों में पार्टी को कितना फायदा होगा, लेकिन लेफ्ट का जो ऐतिहासिक मैनडेट है संघर्ष खड़ा करने का, उसमें हम ईमानदारी से आगे बढ़ते दिख रहे हैं।”
आरएसएस का स्थायी टारगेट वामपंथ
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के असम प्रांत प्रचारक गोरांग रॉय कांग्रेस और लेफ्ट की दोस्ती को सांप-नेवले की दोस्ती बताते हैं। वो यह नहीं बताते कि उनके अनुसार कौन सी पार्टी सांप है या नेवला।
गोरांग कहते हैं, “समय देखकर वे अपनी भूमिका बदल लेते हैं।” भाजपा और संघ के तमाम आलोचकों को एक साथ लेफ्टिस्ट कह दिए जाने के ट्रेंड पर उनकी राय रोचक है। वह कहते हैं, “देश में कोई विचारधारा अगर विघटनकारी है तो वह है वामपंथ। वह संघ के राष्ट्रवादी विचारों के ठीक उलट विचार रखते हैं। कई ऐसे मौके आते हैं जब कांग्रेस और लेफ्ट के विचार मेल खाते हैं लेकिन उनके विचार कभी भी भाजपा से मेल नहीं खाते।”
गोरांग कहते हैं, “जो भी देश विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देगा, उसका विरोध किया जाएगा।” गोरांग यह बताने में हिचकिचाते हैं कि “देशविरोधी” गतिविधियों की परिभाषा क्या होगी, कौन तय करेगा कि “देश विरोधी” क्या होता है। जहां एक तरफ लेफ्ट पार्टियां संविधान के साथ छेड़छाड़ के आरोप लगाते हुए भाजपा पर राष्ट्रहित में काम न करने का आरोप लगाती हैं, वहीं भाजपा जेएनयू में लगे नारों को राष्ट्र तोड़ने की साजिश मानती है।
वर्तमान सरकार ने अपने आलोचकों के लिए नए-नए शब्द भी गढ़े हैं। टुकड़े-टुकड़े गैंग सुनने में भले कुख्यात लगता हो, हुआ उतना ही प्रख्यात है। मीडिया ने इस शब्द को मुख्यधारा में स्वीकृति दिलवायी है। हाल ही में आरटीआइ एक्टिविस्ट साकेत गोखले की एक आरटीआइ के जवाब में गृह मंत्रालय ने कहा कि सरकार ने किसी भी टुकड़े-टुकड़े गैंग को चिन्हित नहीं किया है। इसके बावजूद सार्वजनिक विमर्श में यह जुमला धड़ल्ले से जारी है।
संघ से जुड़े लोग बताते हैं कि नागरिकता संशोधन कानून आरएसएस के पुराने एजेंडों में शामिल रहा है। सीएए-एनआरसी से समाज में व्यापक ध्रुवीकरण भी हुआ है। भाजपा ने दिल्ली के चुनाव में शाहीन बाग को इस कदर मुद्दा बना दिया कि बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद ज्ञापन करने उठे प्रधानमंत्री मोदी ने पौने दो घंटा केवल ध्रुवीकरण करने वाली बातें करने में बिताया। इसका कितना राजनीतिक लाभ भाजपा को मिलेगा यह तो दिल्ली के चुनाव परिणाम ही बताएंगे लेकिन अंदरखाने आरएसएस चिंतित है।
गृहमंत्री के बयान और प्रधानमंत्री के बयान में फर्क ने आरएसएस को भी दुविधा की स्थिति में डाल दिया है। फिलहाल उनकी बॉटमलाइन यही है कि अभी सिर्फ़ नागरिकता संशोधन कानून आया है। एनआरसी को लेकर सरकार ने कोई चर्चा नहीं की है। यही जवाब संसद में राज्य गृह मंत्री नित्यानंद राय ने दिया। तो क्या इससे यह नतीजा निकाला जाए कि भाजपा और संघ असम में एनआरसी को फ्लॉप मान चुके हैं?
इसके जवाब में संघ के असम के प्रांत प्रचारक कहते हैं, “विपक्षी दलों की तरफ से मिथ्या प्रचार किया गया था। हां, यह जरूर है कि एनआरसी में धांधली हुई थी.” अगला सवाल यह बनता है कि अगर देशभर में एनआरसी होता है तो क्या असम में भी दोबारा होगा?
“तब का तब देखेंगे”, इतना कहकर गोरांग राय बात टाल देते हैं। उन्होंने बताया कि इन दिनों आरएसएस असम के जिलों में शांति मार्च निकाल रहा है और उसे जबरदस्त जनसमर्थन मिल रहा है।
अकेले असम में एनआरसी के चलते भाजपा और संघ के भीतर असंतोष नहीं है। अलग अलग वजहों से यह कुछ और इलाकों में देखा जा रहा है। आरएसएस और भाजपा में निचले स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं को पार्टी के शीर्ष नेताओं द्वारा उपेक्षित किए जाने की चिंता सता रही है। अवध क्षेत्र के प्रांत प्रचारक नितेश राय कहते हैं, “कोई भी सरकार अपने सभी फैसले जनता के हित में ही ले, यह संभव नहीं है। कुछ सख्त फैसले भी लिए जाते हैं। सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह कार्यकर्ताओं से संवाद स्थापित करेगी। अब तो संगठन के लोग आपस में ही बात करने लगे हैं कि भाजपा सत्ता के नशे में अंहकारी पार्टी होती चली जा रही है। इसका परिणाम भुगतना पड़ सकता है।”
टारगेट बनाम अवसर
राजनीति के तमाम धड़ों और विचारधाराओं की मौजूदगी के बावजूद भाजपा और आरएसएस के लिए वामपंथ एक तय टारगेट है। इन दिनों जब कांग्रेसी, उदारवादियों या सरकार की नीतियों पर प्रश्न उठाने वाले किसी को भी एंटी-नेशनल या लेफ्टिस्ट बता दिया जा रहा है, तो लेफ्ट इसे एक अवसर की तरह देख रहा है।
एफवाइयूपी आंदोलन को याद करते हुए प्रोफेसर मृणाल बोस को जैसे आज भी कोई “सैडिस्टिक प्लेज़र” मिलता है। वे कहते हैं, “यह देश मोदी को ही डिज़र्व करता था। अब जब देश में बेइंतहा बर्बादी का दौर शुरू हो गया है, घर टूटने लगे हैं, अब लोगों को वापस लेफ्ट ही याद आएगा।” बीते पांच साल में उन्होंने यह बात मुझसे शायद तीसरी बार कही होगी। इस बार उनका यह बयान सीएए-एनआरसी के संदर्भ में है। एक ओर वे मोदी सरकार को मिले मैनडेट को कमतर आंकते हैं, तो दूसरी तरफ उन्हें लगता कि लोगबाग परेशान होकर खुद ही लेफ्ट की तरफ मुड़ आएंगे।
अतीत में भी ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले हैं जब लेफ्ट पार्टियों ने मुद्दा खड़ा किया है, हवा बनायी है, मुद्दे को लेकर जनजागरण का एक माहौल तैयार किया है लेकिन चुनावी राजनीति में उसका लाभ किसी और दल की झोली में वोटों के रूप में चला गया है। एक बार फिर वाम ताकतें वही गलती दोहरा रही हैं या कहें पुरानी गलतियों को दुहराने के बहाने चुनावी लोकतंत्र में अपनी प्रासगिकता को तलाश रही हैं।
दिल्ली चुनाव में वाम राजनीति की भूमिका पर शाहीन बाग के निवासी और सामाजिक कार्यकर्ता सुलतान भारती थाेड़ा चुटकी लेते हुए सटीक बात कहते हैं, “लेफ्ट ने शाहीन बाग के आंदोलन को खड़ा करने में जितना योगदान दिया है, उनकी तारीफ़ की जानी चाहिए। वाम दल न होते तो मुसलमान अकेले पड़ जाते। लेकिन ये खुद तो चुनाव लड़ नहीं रहे हैं दिल्ली में, इसलिए इन्हें इससे क्या हासिल होने वाला है। कुछ नहीं। इस मामले में एनजीओ वालों से इनका इतना ही फ़र्क है कि इन्हें ये सब करने के पैसे नहीं मिलते। बड़ी मेहनत करते हैं ये लोग। अच्छे दिन आएंगे इनके भी।”
रोहिण कुमार दिल्ली स्थित पत्रकार हैं और मीडियाविजिल के लिए लिखते हैं।