भूखे-प्यासे बुंदेलखंड में डिफेन्स कॉरिडोर यानी पंद्रह लाख लोगों को उजाड़ने का ‘विकास’ मॉडल!

अमन कुमार 

लखनऊ में हाल ही में सम्पन्न ‘इन्वेस्टर्स समिट’ में पिछड़ेपन और सूखे की मार झेल रहे बुंदेलखंड में डिफेन्स कॉरिडोर बनाने की घोषणा की गई. इसमें दावा किया गया कि इस कॉरिडोर के निर्माण से 2.5 लाख लोगों को रोजगार मिलेगा. बुंदेलखंड जैसे राज्य के लिए एकमुश्त 2.5 लाख लोगों को रोजगार मिलना सपना सच होने के समान है लेकिन इस सपने के साकार होने के पीछे जो दुस्वप्न छुपा हुआ है, वह कहीं ज्यादा भयावह है. एक गैर-सरकारी अनुमान के मुताबिक़ ढाई लाख रोजगार उपलब्ध कराने के लिए बुंदेलखंड के 300 से 350 गाँवों के 13-15 लाख लोगों को उनकी जमीन से बेदखल किया जाएगा!

इस आंकड़े के हिसाब से देखें तो डिफेंस कॉरिडोर बुंदेलखंड के लिए एक विनाशकारी जुमला है. प्रस्तावित कॉरिडोर के लिए कितनी जमीन की आवश्यकता होगी, पर्यावरण पर क्या नुकसान होगा, जैसे सवालों पर सरकार के पास कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं है. विस्थापितों को पुनर्वासित किए जाने का अभी तक कोई प्रस्ताव सामने नहीं है कि उनको कैसे और कहाँ बसाया जाएगा. पलायन की मार झेल रहे बुंदेलखंडवासियों के एक और बड़े विस्थापन की कोई रूपरेखा तो नहीं बनाई जा रही? कॉरिडोर के जरिए बुंदेलखंड जैसे प्राकृतिक संसाधनों वाले राज्य को पूंजीपतियों को सौंपने का खेल तो शुरू नहीं होने जा रहा? क्या प्राकृतिक आपदाओं की मार झेल रहे बुंदेलखंड में सरकार द्वारा नया प्रस्तावित डिफेंस कॉरिडोर विकास के बजाय विनाश का कॉरिडोर साबित होगा?

बुंदेलखंड, डिजिटल इंडिया के नक़्शे में कसमसाता एक ऐसा इलाक़ा है जो अपनी बदहाली के लिए दुनिया भर में विख्यात है. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच 13 जिलों में बँटा एक ऐसा भू-भाग जहाँ संसाधन तो ख़ूब हैं लेकिन वो वहाँ रहने वालों के काम नहीं आते. पिछले दो दशक से सूखे और किसानों की आत्महत्या के गढ़ के रूप में अपनी पहचान बना चुका बुंदेलखंड देश के सबसे पिछड़े क्षेत्रों में से एक माना जाता है. वहां रहने वालों के हिस्से में या तो मौत आती है या फिर पलायन. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुमान के मुताबिक बुंदेलखंड में अप्रैल  2003 से मार्च 2017 तक करीब पांच हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की. पिछले दिनों योगेन्द्र यादव की संस्था स्वराज अभियान द्वारा कराए गए एक सर्वे की रिपोर्ट में वहाँ के किसानो की भयावह स्थिति को फिर बीच-बहस किया था।
विभिन्न रिपोर्टों पर आधारित आंकड़ों के अनुमान के मुताबिक बुंदेलखंड से बाहर जाने वालों के आंकड़े बहुत डराने वाले हैं. इन आंकड़ों को देखकर इस क्षेत्र की बदहाली का अंदाजा लगाया जा सकता है.

बुंदेलखंड (उत्तर प्रदेश)

बांदा से 7 लाख 37 हजार 920,

चित्रकूट से 3 लाख 44 हजार 801,

महोबा से 2 लाख 97 हजार 547,

हमीरपुर से 4 लाख17 हजार 489 ,

उरई (जालौन) से 5 लाख 38 हजार 147,

झांसी से 5 लाख 58 हजार 377 व

ललितपुर से 3 लाख 81 हजार 316

बुंदेलखंड (मध्य प्रदेश)

टीकमगढ़ से 5 लाख 89 हजार 371

छतरपुर से 7 लाख 66 हजार 809

सागर से 8 लाख 49 हजार 148

दतिया से 2 लाख

पन्ना से 2 लाख 56 हजार 270

दमोह से 2 लाख 70 हजार

ये उन किसानों और कामगारों की संख्या है, जो आर्थिक तंगी की वजह से महानगरों की ओर पलायन कर चुके हैं।

बुंदेलखंडवासी सरकार के इस फैसले से खुश नजर आ रहे हैं, जबकि इस डिफेंस कॉरिडोर प्रोजेक्ट के तहत सरकार गलियारे का निर्माण करेगी जिसकी लागत 20 हजार करोड़ रूपए है. गलियारे के निर्माण के बाद रक्षा उपकरण निर्माता कम्पनियों को आमंत्रित किया जाएगा कि वे यहां आकर अपनी फेक्ट्री स्थापित करें. हाइवे जैसे बड़े प्रोजेक्ट, जिनमें भारी-भरकम मशीनों से काम लिया जाता है, संदेह पैदा करते हैं कि कितने लोगों को रोजगार उपलब्ध होगा?

महोबा जिले की पनवाड़ी तहसील के गोकुल कहते हैं कि वे 10 साल से दिल्ली में पत्थर ढुलाई का काम कर रहे हैं. उनका कहना है कि “हम मजूर लोग तो मजूरी से ही जिन्दा हैं. घर मा कोनो काम न है, नहीं ता उते रहके काम करते, हियाँ दिल्ली मा भी तो ओही करत हन जो घरे रहके करत. जब सरकार कछु करबे तो हम भी अपने घरे चल जेबे. एक रोटी ही तो कम मिलबे करेगी बाकि सुकून तो रहेबे करी”.

(उसका कहना था कि जब मजदूरी ही करनी है तो कहीं भी कर लें क्या फर्क पड़ता है. अगर घर में ही काम मिलेगा, तो यहां दिल्ली में क्यों काम करें, घर में एक रोटी कम ही मिलेगी, लेकिन सुकून से तो मिलेगी.)

बुंदेलखंड के लिए ऐसी घोषणाएं नई नहीं हैं. यहाँ की हालत सुधारने के लिए बुंदेलखंड पैकेज से लेकर रामदेव के पतंजलि फ़ूड पार्क तक सबकुछ हवा-हवाई ही साबित हुआ है. ऐसे प्रोजेक्ट या तो जमीन की दलाली में तब्दील हो जाते हैं या फिर किसी और काम आने लगते हैं, लेकिन जिस उद्देश्य के लिए इन्हें शुरू किया जाता है, वो पूरा नहीं होता.


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