इतिहासयुद्ध : मिथ्या गौरव के नये मिथक गढ़ने की ‘सैप्टिक’ इच्छा !

राघवेंद्र दुबे

इतिहास युद्ध – 1
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Chanchal bhu की फेसबुक भीत ( वॉल ) से उठाकर  डाली गयी , लखनऊ में रह रहे वरिष्ठ पत्रकार utkarsh sinha की एक पोस्ट पढ़ रहा हूं ।
अभी – अभी नजर आयी , यह पोस्ट ।

लिखा है कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय का इतिहास विभाग गांधी , सुभाष और भगत सिंह को पाठ्यक्रम निर्वासित कर , छात्रों को सावरकर , गोलवलकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी पढ़ायेगा ।

जाहिर है यह फैसला , अवसर है , अनुदार हिंदुत्व ( खास काट में संहिताबद्ध ) के खुश होने और मुस्कराने का है ।

इतिहास का सर्वाधिक संकीर्ण और मनमाना इस्तेमाल फासिस्टों ने ही किया है । आर्यों को सही , यहूदियों को गलत और खुद को ही शुद्ध आर्य रक्त साबित करने के लिए उन्होंने इतिहास को जैसा चाहा , तोड़ा – मरोड़ा और इटली ,जर्मनी , स्पेन , जापान की जनता को मदांध बनाकर , न केवल लाखों यहूदियों बल्कि रैशनल , जेनुइन लोगों और कम्युनिस्टों की भी भारी संख्या में हत्याएं करा दीं ।

बहुत खतरनाक दौर है यह । ई.जे. हॉब्सबाम के शब्दों में कहा जाये तो इतिहास अध्ययन ‘ बम फैक्ट्रियों ‘ में बदला जा रहा है जहां , बस एक पलीता भर लगाने की जरूरत है ।

इतिहास समय की धरातल पर अपनी लय में चलते , यथार्थ का केवल ब्योरा भर नहीं है । न कद्दावर पूंजी और विश्वबाजार से चालित , कथित महानतम परम्पराओं का दुराग्रही गान है । मेरे या मेरे मित्रों की नजर में इतिहास , आदमी और पूरी सभ्यता के नैतिक व सामाजिक बुनावट की पड़ताल का जरिया भी है । इतिहास सेल्फ की डिस्कवरी के विमर्श को निष्कर्ष तक ले जाने का माध्यम भी है ।

इसीलिए मैं , अपने मित्रों की ओर से भी काशी विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग की इस कारस्तानी का पुरजोर विरोध करता हूं । अपील करता हूं कि न हम इतिहास भूलें , न उसे दुराग्रही गान बनने दें । उससे केवल सबक लें । वरना उन कौमों की तरह टूट जाएंगे जो न इतिहास भूलते हैं , न उससे सबक ही लेते हैं , बस इतिहास के लिए लड़ते हैं ।

 

इतिहास युद्ध -2
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जानता हूं , वे भड़क उठेंगे । वे लोकहित प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित, ना. वि. काकतकर की पुस्तक, ‘ भारतीय स्वातंत्र्य का इतिहास ‘ , सामने रखेंगे । जिसमें यह साबित करने की कोशिश है कि भारत का पहला मुक्ति संग्राम 1857 , दरअसल , हिन्दू पद पादशाही की पुनःप्रतिष्ठा है ।

वे भड़केंगे कि मैं पी.एन ओक को नहीं , रोमिला थापर को उद्धृत कर रहा हूं । कभी के ( अंक का उल्लेख नहीं ) ‘ प्रतिष्ठित पत्रिका फ्रंट लाइन ‘
में प्रकाशित , रोमिला थापर के लेख , ‘ ह्वाइ डू हिंदुत्व आइडियोलाग कीप फ्लागिंग ए डेड हार्स ‘ की कुछ पंक्तियां देखें ।

” …. इतिहास के पुनर्लेखन ( जैसा कुछ खास विचारधारा के लोग कर रहे हैं ) का उद्देश्य , उसकी व्याख्या नहीं , बल्कि वतर्मान राजनीतिक जरूरतों के लिए , इतिहास से आसान वैधानिकता हासिल करने का प्रयास है । … यह वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में , अतीत को अपने हित में इस्तेमाल करने की कोशिश है ।… इतिहासकारों तथा पुरातत्वविदों के तकनीकी कौशल तथा समाज विज्ञान के मूलभूत सिद्धांत की समझ जो ऐतिहासिक तथ्यों की विवेचना के लिए जरूरी है , को दरकिनार कर दिया गया है । …”

ह एक खास किस्म की सामुदायिक अस्मिता या कह लें एक खास खेमे द्वारा संहिताबद्ध हिंदुत्व ( हिन्दू मैं भी हूं और जाति से ब्राह्मण भी ) के इतिहास पर क्रूर आक्रमण का दौर है ।

वैसे भी इतिहास आज के दौर के निजाम का बहुत प्रिय विषय  रहा है और उन्हें इसी के जरिये वैधानिकता हासिल करनी है ।

आप बताएं इसका प्रतिकार होना चाहिए या नहीं ?
होना चाहिए या नहीं होना चाहिये ?

( पूछने के इस ढंग में किसी को , किसी का तर्ज़ नजर आए तो मुआफ़ी चाहता हूं , मेरी नीयत अन्यथा नहीं है )

 

 

इतिहास युद्ध – 3
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एडवर्ड सईद के मुताबिक इतिहास अतीत होकर भी वर्तमान होता है और भविष्यदृष्टि या वर्तमान दृष्टि से वंचित नहीं होता । लेकिन क्या करूं और कर भी क्या सकता हूं 

एक स्वयंसेवक ( राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ) कृष्णकांत ओझा का जिन्होंने मुझे म्लेच्छ और यवन कहा है । उनका कहना है , मुझमें म्लेच्छ और यवनों के संस्कार आ गए हैं । बहरहाल असल इतिहास की हर दौर में साम्राज्यवाद और फासिज्म से टकराहट होती ही रही है। इतिहास को गुलाम बनाने की इनकी कोशिश हमेशा चलती रही है । संघ परिवार की यही सोच , इतिहास में रंग युद्ध के  पीछे है ।

बहुत पहले से सुनियोजित प्रयास जारी है कि विश्वसम्मत इतिहासकारों , आर.एस शर्मा , रोमिला थापर , डी.एन झा , सतीशचंद्र , इरफान हबीब ,विपनचंद्रा , सुमित सरकार के तथ्यपरक शोधों को झूठ और उन्हें राष्ट्रद्रोही करार किया जाये ।

वे अपने झूठ , कायर और पतन गाथा ( अंग्रेजों का साथ देना या पक्षद्रोही हो जाने को ) को सभ्यता या संस्कृति के दंभ भरे आख्यानों और कथित गर्व के काल्पनिक तथ्यों से ढक देने के प्रयास में पुनः जोर – शोर से लगे हैं ।

इतिहास से संगठित छेड़छाड़ 1979 में जनता पार्टी के शासनकाल में ही शुरू हो गयी थी , जिसमें समाजवादियों के साथ जनसंघ ( आज की भाजपा ) भी शामिल था ।

जब एनसीईआरटी द्वारा प्रकाशित पुस्तकों को हटाने की बात हुई थी । लेकिन यह एजेंडा लागू नहीं हो पाया । अब एक खास खेमा सत्ता आधारित ताकत के बूते भारतीय प्रतीकों , मिथकों मुहावरों और शब्दावलियों को बड़ी चालाकी से अपने हक में ढाल रहा है ।

दिल्ली आ गया हूं । रामेश्वर पांडेय काका का यह आदेश कि भाऊ , लखनऊ होकर दिल्ली जाइयेगा , मान पाना संभव नहीं था । वह मेरी दिक्कत समझते हैं ।

मैं परेशान हूं कि स्वतः स्फूर्त तथ्य , घटनाओं और परिघटनाओं के ब्योरे में प्रदूषण का सांस्कृतिक खतरा बढ़ गया है । गंगा या पद्मा की तीसरी धारा जो मतान्तरों, ईंट और पत्थरों को समतल करती है , मैली होने लगी है । उसे और गंदा होना है क्योंकि गंगापुत्र ( कभी काशी , वाराणसी में ) , अब गुजरात में केवल गुजरात का बेटा होकर रह गये हैं ।

इतिहास में भी सैप्टिक के लक्षण आ गये हैं । सोच रहा हूं निष्कलुष जिज्ञासा के आगे स्तब्ध रह जाना ही होगा । जब कोई पूछेगा , वह कौन सा इतिहास पढ़े ?

काका को भी कितना पचेगा , यह सुनना कि शहीदे आजम भगत सिंह को क्रांति की प्रेरणा , सावरकर से मिली थी । दिल्ली में रह रहे अपने भाई अनिल उपाध्याय से जो, इतिहास के स्कॉलर हैं और राजनीतिक विश्लेषक भी , उनसे भी यही पूछना चाहता हूं ।

महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ वाराणसी में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में अध्यक्ष , प्रोफेसर अनिल कुमार उपाध्याय से भी और पत्रकार सुविज्ञ दुबे जनेवि ( जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ) से भी यह पूछ रहा हूं ।

 

इतिहास युद्ध – 4
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‘कम्यूनलिज्म एंड प्रोबलम्स ऑफ हिस्टोरीग्राफी इन इंडिया ‘  शीर्षक से लिखे , इरफान हबीब के , आलेख से उद्धृत ये अंश देखें —

” भारतीय इतिहास , खासकर मध्यकालीन इतिहास लेखन में साम्प्रदायिकता का रंग, मूलतः हिंदुओं और मुसलमानों के लिए दो घर , दो राष्ट्र , के सिद्धांत से जुड़ा हुआ है । 1947 में आजादी का मतलब , दोनों साम्प्रदायिक गुटों , हिन्दू व मुसलमान का अपना – अपना घर पा जाना हो गया । पहले घर ने , 712 ईसवी के बाद के भारतीय इतिहास को मुसलमानों द्वारा अलग देश बनाने के संघर्ष के रूप में पेश किया जबकि ठीक इसके विपरीत दूसरे घर ने इसे, विदेशी शासन मानते हुए , इसे हिंदुओं पर अत्याचार का युग बताया ।

इतिहास लेखन के इन दोनों घरों के हीरो और विलेन आपस में बदल लिए गये । इतिहास लेखन को सांप्रदायिक रंग देने के , इन दोनों ही प्रयास और दृष्टिकोण में, वास्तविक इतिहास का एक बड़ा हिस्सा , अनछुआ और अनदेखा ही रह गया । …… ”

मेरी समझ में इतिहास , तत्कालीन समाज , मानवीय व्यवस्था , राजसत्ता , शक्ति संरचना की पीठों और हाशियाकृत समूहों की स्थिति का गहराई से लेखे – जोखे का वातायन है । लेकिन आज की फासीवादी और उत्तर आधुनिक क्रूरता की नीयत कुछ और है ।

वे चमक,सनसनी, लंपटपन, मिथ्या गौरव और सजावट के नये मिथक गढ़ना चाह रहे हैं , जो वस्तुजगत या आत्मसत्ता के  विभाजन से पैदा , तथ्यों को किनारे लगा देने की कोशिश है । मनुष्य का सृजन अपार संभावनाओं , लोगों के सांस्कृतिक – सामाजिक एवं आर्थिक विकास का सृजन है । इस दृष्टि से संकट गहरा गया है । पूरी सभ्यता फिर दक्षिण दुराग्रहों के उत्खनन की नोंक पर है । ऐसी स्थिति में ऐतिहासिक विरासत की अमूल्य निधियों को मनुष्यता के हक में लौटा लेना, मुश्किल होगा क्योंकि पुनरुत्थानवादी अतीत में लौटने लगे हैं और इतिहास की शव साधना कर रहे हैं ।

 



राघवेंद्र दुबे उर्फ भाऊ वरिष्ठ पत्रकार हैं।  इतिहास पर यह शृंखला उनकी फ़ेसबुक दीवार से साभार।



 

 

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