‘साइबर मार्ग’ पर घायल पड़ें हों तो पुलिस को न बुलाएँ, साइबर पुलिस ‘विकलाँग’ है !

राजमार्ग पर जान गँवानी दर्ज होगी, साइबर मार्ग पर जेब कटवानी नहीं

 

विकास नारायण राय

 

फेस बुक के डाटा चोरी प्रकरण के मीडिया में तूल पकड़ने ने साइबर दुनिया के व्यापक आयामों के प्रति हमें बेशक सजग किया है. ब्रिटिश कंपनी कैंब्रिज एनालिटिका का अमेरिकी और भारतीय चुनावों में साइबर डाटा आधारित दखल का आरोप साइबर ठगी की असीम संभावनाओं की पुष्टि ही कहा जाएगा.

कहने की जरूरत नहीं कि सौ करोड़ आधार कार्ड से डिजिटल इंडिया को नाथने की मोदी सरकार की ताबड़तोड़ मुहिम में निजता जितना ही बड़ा मुद्दा बनता है साइबर अपराधों का भी. ऐसे में, आपको जान कर ताज्जुब होगा कि देश भर में कुल जमा पंद्रह हजार साइबर अपराध भी वार्षिक दर्ज नहीं किये जा रहे हैं. सन 2000 में जब हमारा साइबर एक्ट बना था तो न तब आधार कार्ड थे और न डिजिटल इंडिया से उन्हें जोड़ने जैसी सरकारी सनक.

सड़क और साइबर, विकास के मान्य पैमाने हैं. ये ही, सुरक्षा उपायों के अभाव में, विनाश के रास्ते सिद्ध हो रहे हैं. सड़कें आपको गंतव्य पर पहुँचाने के लिए बनाई गयी हैं न कि अस्पताल या स्वर्ग भेजने के लिए. इसी तरह साइबर दुनिया आपको सुविधा पहुँचाने के लिए निर्मित की गयी न कि ठगी का शिकार बनने के लिए. लेकिन किसी भी पल आप सड़क दुर्घटना या साइबर ठगी के शिकार हो सकते हैं. असुरक्षित सड़क पर मौत या अपंगता की स्थिति में कम से कम मुक़दमा दर्ज हो जाता है और हर्जाना पाए जाने की क़ानूनी व्यवस्था तो है. असुरक्षित साइबर मार्ग पर न लूट दर्ज होगी और न हर्जाना ही मिलेगा.

अंधाधुंध सड़क निर्माण को विकास का पर्यायवाची बनाने के क्रम में, आम आदमी की सुरक्षा का नजरिया ताक पर रख दिया जाता है. उनके रख-रखाव के बेपरवाह और भ्रष्ट तरीकों में जानलेवा दुर्घटनाओं के बीज पनपने दिए जाते हैं, बेशक आप स्वयं इन सड़कों पर कितनी ही सावधानी क्यों न अपनायें. इसी तरह, डिजिटल इंडिया के शोर शराबे के बीच साइबर ठगों की किसी को भी बिन बुलाये मेहमान की तरह घेर सकने को क्षमता और पहुँच बेहद बढ़ गयी है. घर में अकेलेपन की मारी कोई गृहिणी हो, पार्क में समय गुजारता पेंशनर, व्यवसाय तलाशता उद्यमी या रोजगार के लिए मगजमारी करता युवा – सब उनके निशाने पर होते हैं.

यूँ तो मोदी सरकार ने स्मार्ट सिटी जैसी विशिष्ट लिस्ट में सैकड़ों शहर शामिल कर रखे हैं लेकिन लगता है जैसे उनकी अपराध शालाओं में सिर्फ कानून तोड़ने वाले ही स्मार्ट हुये हैं, उन्हें पकड़ने वाली पुलिस नहीं. राजमार्ग तो, ट्रैफिक पुलिस के बढ़ते तामझाम के बावजूद, बेहद जान-लेवा सिद्ध हुये हैं ही, साइबर मार्ग के रास्ते पर भी, नए-नए किस्म के अपराधों की बेकाबू बाढ़ आ गयी दिखती है. पुलिस के दावे जरूर हैं चुस्त-दुरुस्त साइबर सेल के या चौकस ट्रैफिक नियंत्रण के, पर बस जब-तब खास मौकों पर सत्ताधारियों के मतलब से  ढोल पीटने के अंदाज वाले ही.

दरअसल, पुलिस लाख मत्था मारे तो भी अपर्याप्त संख्या, तकनीकी अभाव और कमजोर प्रशिक्षण के चलते उनके लिए यह एक असंभव काम ही रहेगा. आश्चर्य क्या कि लोग डिजिटल इंडिया में भी शनि देवता के भरोसे ही सड़क यात्रा पर निकलते हैं. और साइबर दुनिया का इस्तेमाल करने वाले तो सीनाजोर ठगों के रहमो-करम पर ही जीने को मजबूर हैं. आप साइबर माध्यम से पुलिस को अपने लुटने की शिकायत भेजिए, आपको कभी जवाब नहीं मिलेगा.  

अपराध के इन रास्तों पर पुलिस का ढर्रा, रेत में शतुरमुर्ग की गर्दन की तरह, समस्या से आँख मूंदने वाला रहा है. किसी भी सड़क पर दस मिनट खड़े हो जाइए और आपको जान जोखिम में डालने की वजह और उसका सही निदान दोनों दिख जायेंगे. त्रुटिपूर्ण सड़क इंजीनियरिंग, कारों की अनियंत्रित गति, भारी वाहनों की यांत्रिक कमियां, शराबी ड्राइवर, पैदल और दो पहिया वाहन के चलने या सड़क पार करने की सुविधाओं का अभाव! जबकि पुलिस व्यस्त दिखेगी विशिष्ट व्यक्तियों के लिए रास्ते खुलवाने या ट्रैफिक रुकावटों की रूटीन खाना-पूर्ति करने में.

इसी तरह, रोज ही कंप्यूटर, बैंक खातों, एटीएम, क्रेडिट कार्ड या फोन पर कोई न कोई साइबर गैंग अपने संभावित शिकारों का पीछा करता मिल जायेगा. छिप कर नहीं, चौड़े में और अधिकांशतः प्रचारित कर. ऐसे में क्या यह सवाल पूछना जायज नहीं बनता कि आखिर हमारी पुलिस को अपराध के ये साक्षात आयाम नजर क्यों नहीं आते? क्या पुलिस वाले इसी दुनिया में नहीं रहते? वे पीड़ितों की अपने पास आने प्रतीक्षा में हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे रहते हैं? क्या संभावित सड़क दुर्घटनाओं और पनपते साइबर अपराधों की रोकथाम उनका सरोकार नहीं? जबकि इनमें पहल कर पाना उनके लिये संभव है.

एक जमाना था बातों के जाल में फंसा कर निवेश, नौकरी, दान, मदद, लाटरी, विवाह, पुरस्कार, इत्यादि के झांसे से ठगी करने वाला हर साइबर गैंग झारखण्ड से धंधा संचालित करता था. आज राजधानी दिल्ली के उत्तम नगर में उनके हब खुले हुये हैं. ये गिरोह किसानों और मजदूरों को लालच देकर उनके आधार कार्डों के जरिये जन-धन बैंक खाते खुलवाने में सिद्धहस्त रहे हैं. इन खातों में ठगी की रकम, फंसे शिकारों से एक मुश्त या किश्तों में डलवाई जाती है. और जब तक पुलिस हरकत में आती है, रकम और गिरोह छू मंतर हो चुके होते हैं.

आगे बढ़कर इन अपराधों की रोकथाम, पुलिस की सोच या कार्य पद्धति का हिस्सा क्यों नहीं बन पा रहा? क्योंकि डिजिटल इंडिया शासक के नजरिये से लागू हो रहा है, न कि आम जन के. लिहाजा, मानो जो अपराध साक्षात सामने घट रहा है या जिसकी तैयारी विभिन्न चरणों से गुजर रही है, वह देखना पुलिस के लिए जरूरी ही नहीं. पुलिसकर्मी अपने थाने, चौकी, सेल, ऑफिस में बैठा रहता है जब तक कि ठगी का मारा उसके या रसूखदारों के चक्कर न काटना शुरू कर दे. साइबर अपराधों के भुक्तभोगियों का अनुभव है कि इन मामलों में पुलिस आपको जब तक चाहे चक्कर कटवाती रह सकती है.

पुलिस विभाग की प्रथा अनुसार उनके द्वारा दर्ज किये गए अपराधों की ही सहेज होती है. कभी-कभी, जब पानी सर से ऊपर चला जाए तो अपराध दर्ज न करने पर उनकी जवाब तलबी हो जाना भी मुमकिन है. लेकिन, पुलिस की ही नियमावली के अनुसार, संभावित अपराधों की रोकथाम में भी पुलिस की जवाबदेही होनी चाहिए. हालाँकि, इस कलेवर में पुलिस प्रायः या तो राजनीतिक आकाओं के लिए बंदोबस्त में लगी दिखेगी या सड़कों पर ट्रैफिक चेकिंग का दस्तूर पूरा करने में या फिर शासन-प्रशासन की निष्क्रियता या निरंकुशता के विरोध में इकट्ठा हुए लोगों से निपटने में.

स्वयं पुलिस के अपने आंकड़ों के मुताबिक भी रोजाना के गंभीर सड़क हादसे बढ़ रहे हैं. और तरह-तरह की गंभीर साइबर ठगी के मामले भी उनके पास दर्ज हो रहे हैं. यकीन जानिए, कई-कई गुणा ज्यादा ऐसे अपराध पुलिस दर्ज ही नहीं करती. यह भी आपकी किस्मत है कि आप इस ‘दर्ज’ या ‘प्रतीक्षा’ सूची में अभी शामिल नहीं हुए हैं. दरअसल, हर वह व्यक्ति जो सड़क या साइबर इस्तेमाल कर रहा है, इन अपराधों का संभावित शिकार भी कहा जा सकता है. कौन नहीं जानता यह तथ्य, सिवाय हमारी पुलिस के! या, आज के सड़क पुरुष नितिन गडकरी और साइबर पुरुष नरेंद्र मोदी के?  

 

(अवकाश प्राप्त आईपीएस विकास नारायण राय, हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं।)

 



 

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