गालियों का भोज करते बैंककर्मी और ‘विकास’ के खोल में लौटी ग़ुलामी!

फिसड्डी चैनल के ज़ीरो टीआरपी ऐंकर रवीश कुमार के प्राइम टाइन की बैंक सिरीज़ ने मिडिल क्लास के उस मेकअप को उतार फेंका है जिसकी आड़ में वह न जाने कितना दर्द छिपाए हुए था। कभी बैंक में नौकरी दूसरों के लिए जलन की बात होती थी। उदारीकरण के साथ अर्थव्यवस्था के आँकड़ों में आई चमक के साथ बैंककर्मी ख़ुद को किसी और दुनिया का समझने लगे। उन्होंने यूनियनों को हिक़ारत की नज़र से देखा और धरना-आंदोलनों को ‘देशद्रोहियों’ का काम। उन्होंने विकास का ढोल बजाते आए मसीहा के ख़ून सने हाथों को बेफ़िक़्र होकर चूमा कि वह चारों दिशाओं को काँख में दबा सकता है। उन्हें पता ही नहीं चला कि जब वे आँख फाड़कर टीवी देख रहे थे तो उसी मसीहा का बैज लगाए पूँजी के शैतान उनके कंधों पर गला दबाने के लिए जम गए। अब वे ग़ुलाम बन चुके थे जिनसे 12 घंटे काम लेना भी जायज़ था, जिन्हें गालियाँ दी जा सकती थीं ,जिनके लिए एक अदद टॉयलट का इंतज़ाम करना भी ज़रूरी नहीं रह गया था। वे भूल चुके थे कि इन चीजों के लिए उनके पुरखों ने न जाने कितना संघर्ष किया था और क़ुर्बानी दी थी। रवीश कुमार, प्राइम टाइम के अलावा अपनी फ़ेसबुक दीवार पर भी उनकी व्यथा-कथा लिख रहे हैं, इस शर्त के साथ कि वे अब हिंदू-मुसलमान नहीं करेंगे। पढ़िए रवीश की यह पोस्ट-संपादक

 

तुम न नागरिक रहे, न इंसान, न बैंकर, बग़ैर कीमत के ग़ुलामी नहीं जाएगी
सरकारी बैंकरों के बाद प्राइवेट बैंकरों को दिखने लगी है अपनी ग़ुलामी

 

“अब डेपोजीट की बात करते हैं । सरकारी पैसे या तो SBI में रखे जाते हैं या तो प्राइवेट बैंको में। बाकी राष्ट्रीयकृत बैंकों को कुत्तों की तरह झपट्टा मारना पड़ता है।ज़्यादातर निधि जो प्रशासन को मिलती है वो SBI से निकलकर सीधे प्राइवेट बैंको में जमा होता है। ऐसे करने पर प्राइवेट बैंको द्वारा उन्न अधिकारियों को मोटी कमीशन दी जाती है। ये वही अधिकारी हैं जो राष्ट्रीयकृत बैंकों से सरकारी योजनाओं में ऋण करने का दबाव बनाते हैं तथा फंड्स प्राइवेट बैंको में रखते हैं। और हम मैनेजमेंट से टारगेट पूरा नही करने के लिए रोज़ गालियों का भोज खाते हैं।“

अभी आपने जो पढ़ा है वह एक बैंकर के पत्र का हिस्सा है। यही खेल था जिसने भागलपुर के सृजन घोटाले को जन्म दिया और जिस पर जांच के नाम पर पर्दा डाल दिया गया। जब सरकार का पैसा किसी बैंक के लिए तय है तो वहां से निकाल कर किसी दूसरे बैंक में डालने का क्या मतलब है? कोई चाहे तो एक दिन की रिपोर्ट में इन अफसरों को सीधा कर दे, मगर इसके लिए उसे भी उस कमीशन को नहीं चाहना होगा, जो हिस्से के रूप में मिलता होगा। आप बैंकरों की व्यथा और भीतर चल रहे खेल को पढ़ते हुए बोर हो चुके होंगे, सिस्टम यही चाहता है कि आप बोर हो जाएं, कुछ नया मांगे ताकि जो चल रहा है, चलता रहे। अब देखिए मुद्रा लोन के बारे में एक बैंकर क्या लिख रहा है-

“2015 से जो मुद्रा योजना की शुरुवात हुई उसमे से 50% खाते NPA हो चुके हैं।सरकार अपनी पीठ थपथपाती है कि हमने इतने रोज़गार पैदा किये साथ मे ये नही बताती की कितने माल्या और पैदा कर दिए , क्योंकि भैया चोरी तो चोरी है फिर चाहे एक पैसे की हो या 1000 करोड़ की।शाखा में 80% NPA सरकारी योजनाओं के हैं जहां बैंक के पास कोई सिक्योरिटी नही है, क्या प्राइवेट बैंकवाले ये लोन करते हैं? नहीं। बहुत दुख होता है ये सोचकर कि वित्तीय संस्थानों का प्रयोग राजनीति के लिए होता है। ना तो समय दिया जाता है कि प्रकरण की गुणवत्ता की जांच की जाए जिससे ऋण की गुणवत्ता पर असर पड़ता है नतीजा ये हुआ कि मुद्रा ऋण NPA हो गए। इसकी गारंटी फीस हर साल जाती है पर अभी तक क्लेम करने की प्रक्रिया भी शुरू नही हुई। उम्मीद है 2019 चुनाव से पहले शरू की जाएगी और ऋण माफी के नाम पर वोट मांग लिया जाएगा।“

कई बैंकर लिख रहे हैं कि पिछले कई महीनों में सिर्फ एक या दो शनिवार या रविवार की छुट्टी मिली है। वे हर दिन काम पर जा रहे हैं। बैंक के काम के बाद शाम को अकेले ऋण वसूली के लिए जाना पड़ता है। महिला और पुरुष बैंकरों को अकेले ही जाना पड़ता है। बिना किसी सुरक्षा के। एक युवा बैंकर ने जो लिखा है उसे आप भी पढ़िए। इतनी मुश्किल अंग्रेज़ी नहीं है, कोशिश करेंगे तो बात समझ आ जाएगी। आधी रात के बाद जब यह बैंकर मुझे अपना दोस्त समझ कर मेसेज कर रहा था, मैं इसकी हताशा समझ रहा था। ईमानदार आदमी से एक ग़लती हो जाए तो वह कई रात नहीं सो पाता है। आप पढ़िए पहले।

Dear sir,
I don’t want CPC,I am ok with cross selling, I can take all the pain, But I just want to be treated like a HUMAN BEING.I am so fed up with the treatment I get after all that hard work I do and honesty I practice.Some times I feel that this life is not worth living. I am 30 and I feel I have wasted my life. Feel like ending it. Coz I am of no use to my family when they need me. Yes I am a banker and I am ashamed of it. My youth is distroyed by the bank. I am serving at remotest part with bare minimum facilities But no body cares. I am branch manager of a single officer branch, Having more than 22000 customers. I have just 2 starr. Me and my clerk.We sanction loans to people that we don’t want to.We are forced to sanction loans under mudra loan scheme. PMEGP scheme. Every body is into number game.Internet banking is issued to 0 balance account holders.Most of whom are illiterate.Kisi ka bhi mobile leke bhim aap download kar dete hain. Bina SBI life ke loan nai hota hai.Aur uske baad us customer ka loan insurance bhi karna padta hai, Jo ki sbi general insurance ka product hai. Hum mahino apne pariwar se mil nai pate. Har chutti mn bank jana padta hai. Akele tut chuka hun sir. Ab jine ki iccha khatam hoti ja rahi hai”

ऐसे न जाने कितने पत्रों को डिलिट कर दिया लेकिन अब लगता है कि इन्हें किसी न किसी रूप में पब्लिक के बीच लाना चाहिए। कल रात ग्यारह बजे एक बैंकर ब्रांच से मेसेज कर रहा था। उसकी हताशा बढ़ती जा रही थी। मार्च के कारण सबकी छुट्टी रद्द है। राउरकेला से किसी बैंकर ने लिखा है कि सितंबर के बाद से उसे छुट्टी नहीं मिली है। जो लोग रिटायरमेंट के करीब हैं वो बात करते करते रोने लगते हैं। कई बार बैंकर अपनी नहीं, दूसरे बैंकर की व्यथा बताने के लिए फोन करते हैं। एक ने बताया कि उनके एक साथी को पैरालिसिस अटैक मार गया। खड़े होने की हालत नहीं थी, तब भी कई सौ किमी दूर तबादला कर दिया गया। नई ज्वाइन करने पर वेतन रोक दिया गया। उनके पास दवा के भी पैसे नहीं हैं।

कई बैंकरों ने अपना बैंक स्टेटमेंट भेज दिया है। जिसे देखकर लगता है कि वाकई उनके पास पैसे नहीं है। कई साल की नौकरी के बाद सैलरी से पांच दस हज़ार ज़्यादा ही जमा है। बैंकर धीरे धीरे बोलने लगे हैं। एक कैशियर ने बताया कि नोटबंदी के दौरान उसे भी 41000 का जुर्माना भरना पड़ा। गिनने की मशीन नहीं थी, करोड़ों रुपये गिनते गिनते इतने पैसे के जाली नोट आ गए। ऐसे कई कैशियर मुझसे बता चुके हैं। काश इन सबको मिलकर एक सूची बना देनी चाहिए जिसे दुनिया के सामने रखा जाता।

मैंने सैंकड़ों ब्रांचों को भीतर से देखा है। वहां से आने वाली तस्वीरें बता रही हैं कि बैठने के लिए कुर्सी नहीं हैं। कहीं पंखा तक नहीं है। दीवार में सीलन है, बंद कमरे की घुटन है। बाहर से बैंक की अलग छवि दिखती है, अंदर इसके रखरखाव पर कोई निवेश नहीं किया गया है। ग्रामीण बैंकों की हालत तो और भी बदतर है। इन बैंकों से रिटायर किए हुए लोग किस हिसाब से 1800 से 2200 के पेंशन पर जीते होंगे, वही जानें। बैंक कारोस्पोंटेंड का रोज़गार ठप्प है। उनका पासवर्ड बंद है। बैंक मित्र को पेमेंट नहीं हो रहा है। लाखों लोग तक़लीफ़ का रोना रहे हैं मगर किसी को फर्क़ नहीं पड़ रहा है।

इसका एक ही कारण है। बैंकर भी तो उसी समाज का हिस्सा हैं। उन्हें भी समाज के दूसरे तबके के दर्द से फर्क़ नहीं पड़ता था। तो अब समाज इतनी जल्दी तो उनके लिए आगे नहीं आएगा। प्राइवेट बैंक के बहुत से कर्मचारी अपना धीरज खोने लगे हैं। मुझे कह रहे हैं कि आप सरकारी बैंकों की बात कर रहे हैं, हमारी नहीं, जैसे हमें वोट देकर प्रधानमंत्री बना दिया हो।

सरकारी बैंकों की बात कर रहा हूं। मगर इसका मतलब यह नहीं कि यह बात तभी सार्थक मानी जाएगी जब मैं सबकी बात कर लूंगा। यह न संभव है न इसका इरादा है। मुझे झूठ बोलने का मन नहीं करता है। कुछ लड़ाई आप भी तो लड़ें। अगर आपसे पूछ दूं कि क्या आप किसी के संघर्ष में जाते हैं तो जवाब ना में मिलेगा। जब आप किसी आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के प्रदर्शन में नहीं गए, किसान के प्रदर्शन में नहीं गए, बल्कि आप सरकारी बैंकरों के प्रदर्शन में नहीं गए तो आपको घर बैठकर आंदोलन का सुख नहीं मिलना चाहिए।

मैं जो कह रहा हूं, निदान उसी में है। सबको सबके दुख में जाना होगा। मैंने भी एक महीने से कुछ और काम नहीं किया है। आंखें पथरा गईं हैं। बिस्तर से उठा नहीं हूं, कमरे में चला तक नहीं हूं। वज़न भी तीन चार किलो बढ़ गया है। यह मैं इसलिए बता रहा हूं ताकि आपको पता चले कि रिपोर्टिंग में कितनी मेहनत होती है। इसके बाद भी हम बहुतों की समस्या नहीं उठा पाते हैं तो उनकी उलाहना सुननी पड़ती है। मेरे पास पीएमओ या मुख्यमंत्री का सचिवालय तो नहीं है न। रिपोर्टर तक नहीं हैं। खुद हज़ारों मेसेज को पढ़ा हूं। कुछ तो इसी में रूठ जाते हैं कि जवाब नहीं दिया, क्या आप कई हज़ार मेसेज का जवाब दे सकते हैं? तब भी मैं रोज़ सौ दो सौ लोगों को जवाब तो दे ही देता हूं। इस लेख को लिखते हुए सुबह के 11 बजने वाले हैं। सुबह सात बजे से सैंकड़ों मेसेज से गुज़रते हुए आपके लिए यह लेख तैयार किया है। यह मेरा परिवार का समय है।

मुझे बहुत तारीफ मिली है दुनिया से। अब जी भर गया है। यकीन कीजिए अपने काम का हिसाब आपसे तारीफ़ पाने के लिए नहीं लिखा है। इसलिए लिखा है कि दूसरे की बात समझने के लिए, उसकी बात उठाने के लिए तकलीफ उठानी पड़ती है। ख़ुद को जोखिम में डालना पड़ता है। ऐसा तो होगा नहीं न कि साल भर आप हिन्दू मुस्लिम करें और अचानक आप संविधान से अपने जीने का अधिकार मांगने लगें। आप नागरिक होने का फ़र्ज़ खुद ही अदा नहीं करते हैं। इसलिए प्राइवेट बैंक वालों अपना संघर्ष खुद करो। पहले अपना कोट फाड़ कर जला दो। शादियों में जाओ तो रिश्तेदारों के सामने रोने लगो, बताओ कि तुम्हारे साथ ये हो रहा है। किसी पुलिस के सिपाही के सामने रोने लगो। रोना तो पड़ेगा वर्ना किसी को पता नहीं चलेगा कई बार रोना भी बोलना है। नौकरी सीरीज़ में भी नौजवान धीरज खो देते हैं कि हमारा नहीं किया, वो ख़ुद से पूछें कि जब बैंकर का कर रहा था तब क्या वे बैंकरों के लिए आगे आए, उनकी व्यथाओं की कथा में दिलचस्पी ली? गुंडे, माफिया और दंगाई को आप वोट देकर आ जाते हैं और झुंझलाहट आप मुझ पर निकालते हैं। हमको आपकी एबीसीडी सब मालूम है। शुक्रिया उन नौजवानों का जिन्होंने धीरज बनाए रखा और मेरी सीमा को समझा है। प्राइवेट बैंकरों को रवीश कुमार की ज़रूरत नहीं है। वो ख़ुद भी रवीश कुमार बन सकते हैं। मुझे गालियों और धमकियों में जीने की आदत हो गई है।

तो सुनिये डियर प्राइवेट बैंकर, अपनी नौकरी नहीं बचा सकते तो दूसरे की नौकरी की लड़ाई में शामिल हो जाए। जैसे मैं अपनी नौकरी नहीं बचा सकता, अपने साथियों की नौकरी नहीं बचा सका मगर बैंकरों की नौकरी की तक़लीफ़ की बात लिखकर अपना नागरिक होने का और पत्रकार होने का फ़र्ज़ अदा कर रहा हूं। कम से कम कोशिश कर रहा हूं। इसलिए इधर लेक्चर नहीं, जिन फ्राड को आप वोटे देते हैं, पहले उनसे बात कीजिए। जब भी सरकारी बैंक वाले प्रदर्शन करें, आप उनके प्रदर्शन में जाइये, एस एस सी के छात्रों के आंदोलन में जाइये। किसानों के प्रदर्शन में जाइये। देखिए, यही लोग आपके साथ आने लगेंगे। मेरी ज़रूरत ही नहीं रहेगी। फिर भी आप अपनी कथा बताइये, भीतर का खेल बताइये, मैं फेसबुक पर लिखूंगा आपके लिए। जय हिन्द।

नोट- कल हमने बैंक आफ इंडिया के एक आदेश का ज़िक्र किया था, लंच आवर नहीं होगा, कोई मेज़ से उठकर नहीं जाएगा, शाम तक सफाई आ गई, इधर उधर का बहाना बनाकर आदेश वापस ले लिया गया। चिरकुट चैयरमैनों तक मेरी बात पहुंच रही है। लाखों बैंकरों की आह उनकी अंतरात्मा से टकराती तो होगी ही।

 



 

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