नरेंद्र मोदी की केन्द्र सरकार और यूपी की आदित्यनाथ सरकार आंदोलनकारियों को टेरर में लेना चाह रही है लेकिन आंदोलनकारी महिलाएं सरकार के टेरर में नहीं आ रही है, जिससे सरकारें लाचार होती दिख रही है. जबकि दोनों सरकार यह दिखाना चाह रही हैं कि वे नहीं झुकेंगे और आंदोलन करने वाले भी अड़े हैं कि हम भी किसी क़ीमत पर नहीं झुकेंगे. सीएए, एनआरसी और एनपीआर को जब तक सरकार वापिस नहीं लेगी तब तक गांधीवादी आंदोलन चलता रहेगा.
इस आंदोलन की ख़ास बात यह है कि इसको कोई राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन लीड नहीं कर रहा है. जनता ही विपक्ष की भूमिका निभा रही हैं और सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश कर रही है लेकिन सरकार जनता को यह कहकर बरगलाने की कोशिश कर रही है कि जनता को सीएए के बारे में जानकारी नहीं है, इसलिए जनता आंदोलन कर रही है. लेकिन सरकार आंदोलनकारियों से बात भी नहीं करना चाह रही है जिसकी वजह से यह आंदोलन एक महीने से भी ऊपर चला गया और सरकार सिर्फ़ बयानबाज़ी करने में व्यस्त हैं और आंदोलनकारी महिलाएँ बड़ी संख्या में सड़कों पर मज़बूती से अपनी लड़ाई लड़ रही हैं.
देश की राजधानी नई दिल्ली में शाहीन बाग सहित अन्य कई जगहों पर आंदोलन के रूप में शाहीन बाग की तर्ज़ पर आंदोलन चल रहे हैं. वहीं यूपी की राजधानी लखनऊ में भी घंटाघर पर हज़ारों की संख्या में महिलाओं के द्वारा धरना-प्रदर्शन किया जा रहा है. यूपी पुलिस ने सरकार के इसारे पर महिलाओं को परेशान करने की कोशिश की. जैसे उनके कंबल छीन लिए गए, खाने का सामान छीन लिया गया, अलाव को बुझा दिया गया, पानी भर दिया गया, आसपास के शौचालय बंद कर दिए गए और भी बहुत कुछ किया गया जैसे अंग्रेज करते थे आजादी के मतवालों को कमज़ोर करने के लिए.लेकिन महिलाओं के जज़्बे के आगे सभी हथकंडे नाकाम हो रहे बिना किसी साये के लखनऊ की महिलाओं का आंदोलन सफलतापूर्वक चल रहा है. सलाम करना चाहिए ऐसे जज़्बे को.
इंक़लाबी शायर इमरान प्रतापगढी ने घंटाघर लखनऊ पहुंचकर आंदोलनकारी महिलाओं के हौसले को सलाम किया.यहां पर हर उम्र की औरतें हैं. हाड़ कंपा देने वाली सर्दी….रोजा और उपवास रखे महिलाएं, ‘कागज नहीं दिखाएंगे-संविधान बचाएंगे’ की जिद. नन्हें-नन्हें हाथों में ‘नो टू सीएए, एनआरसी,’ लिखा हुआ है, कोई तिरंगा पकड़े हैं तो कोई तिरंगे में ही लिपटा नजर आ रहा है.कुछ ऐसा ही नजारा बीते एक सप्ताह से लखनऊ के घंटाघर का है.जहां अपने नौनिहालों के साथ हिंदू,मुस्लिम, सिख,ईसाई महिलाएं हजारों की संख्या में एकजुट होकर केंद्र सरकार के नागरिकता संशोधन कानून और नागरिकता रजिस्टर का विरोध करती नजर आ रही हैं. उनके साथ शहर भी खड़ा हो रहा है, मानवाधिकार कार्यकर्ता संदीप पांडे इसी के बीच बैठे हैं, सूत कातते,उनका चरखा चल रहा है.
घंटाघर के ठीक नीचे मंच है, दूर तक नजर आती है औरते, नारे गूंज रहे हैं,पोस्टर बनाए जा रहे हैं, फोटो ली जा रही है और तिरंगा लहरा रहा है. प्रयागराज, रायबरेली, आगरा व देवबन्द आदि शहरों में भी कुछ इसी तरह का नजारा देखने को मिल रहा है.
हर घर पर तिरंगा झंडा लहरा रहा था.
देश के हज़ारों जगहों पर शाहीन बाग बन गए हैं जहां संविधान को बचाने के लिए आंदोलन चल रहे हैं. हर वर्ग हर धर्म के लोग इसमें शामिल हो रहे हैं, जिसकी वजह से केन्द्र की मोदी सरकार हिन्दू-मुसलमान भी नहीं कर पा रही.जिसकी बुनियाद पर यह सरकार में आई है. कुछ भी होता है वह देर नहीं लगती हिन्दू मुसलमान और पाकिस्तान करने में. लेकिन इस आंदोलन को वह तोड़ नहीं पा रही है.
सभी हथकंडे अपनाए गए. यूपी के मुख्यमंत्री ने तो कुर्सी की मर्यादाओं को ही लांघ कर बयानबाज़ी की, जबकि 12 मार्च 2007 को यही मुख्यमंत्री सांसद रहते हुए संसद में पुलिस के अत्याचार को लेकर किस तरह रोए थे. हम सबने देखा था.
अब यही व्यक्ति जब यूपी का मुख्यमंत्री बने तो यह भी पुलिस को इसी तरह का अत्याचार करने के लिए सार्वजनिक रूप से कह रहे हैं. जबकि उस दौरान के मुख्यमंत्री ने पुलिस को इस तरह का कोई आदेश सार्वजनिक नहीं दिया था.लेकिन चलो माना जब इंसान रोता है तो बहुत ही विकट स्थिति होती है. माना 2007 में पुलिस ने वर्तमान मुख्यमंत्री आदित्यनाथ पर अत्याचार किए थे, लेकिन जब पुलिस ग़लत थी और आज की अत्याचारी पुलिस सही है यह बात कुछ हज़म नहीं हो पा रही है. अगर आज अत्याचार करती पुलिस सही है तो तब ग़लत कैसे थी?
इसका मतलब जब आपने मगरमच्छी आँसू निकाल कर संसद को गुमराह किया था और अगर जब पुलिस अत्याचारी थी तो आज भी पुलिस अत्याचार कर रही है, बस फ़र्क़ इतना है जब के अत्याचार का संरक्षण किसी और के पास था और आज के अत्याचार का संरक्षण आपके पास है. तब भी राजनीति हो रही थी और आज भी अपने राजनीतिक मफाद के लिए यह सब हो रहा है. न देश की फ़िक्र है और न जनता की. इनको न हिन्दू से मोहब्बत है और न मुसलमान से और न सिख व ईसाई से.
इनको सियासी कुर्सी बचाने या पाने के लिए जो करना पड़े करते हैं. इसको हमने एक बार नहीं सैकड़ों बार देखा है लेकिन जनता इनके मकड़जाल में फँस जाती हैं और ये मौज मस्ती कर सब रूम में बैठकर मज़ाक़ बनाते हैं क्या हम मज़ाक़ बनने का ज़रिया बन गए हैं.