पांडेय राकेश
किसान आंदोलनकारियों के प्रति सरकार और सभी प्रमुख दलों की बेरूखी दुखदायी है। जब वोट लेना होता है तो यही किसान याद आते हैं। खाते- पीते मध्यवर्ग के एक व्यक्ति/ परिवार की थाली में जो अनाज और फल- सब्जी आता है, उसपर होने वाला व्यय उसके कुल मासिक बजट का एक छोटा प्रतिशत होता है, यानि खाता पीता तबका अनाज और फल- सब्जी अपने अन्य उपभोगों की तुलना में सस्ते में पाता है। हम सब अनाज की जो कीमत देते हैं, उसका बड़ा हिस्सा बिचौलियों के पास जाता है किसानों के पास नहीं आता। इनके पीछे मूल कारण यह है कि कुल अर्थव्यवस्था में किसान की कुल-जमा हैसियत कम है और किसान एक उद्यमी के रूप में अपने उत्पाद की कीमत पाने के लिए मोल-जोल नहीं कर पा रहा है।
हम यदा-कदा किसानों का रोमांटिक महिमामंडन करते हैं, कुछ गीत और कविताएं गाते और लिखते हैं, और फिर उन्हें भूल जाते हैं। शहरों में इनका आंदोलन हमें भीड़ नज़र आता है।
किसान स्वयं के लिए बस तर्कसंगत और न्यायपूर्ण नीति की मांग करते हैं। किसान के लिए तर्कसंगत नीति का अर्थ होगा, पूरी अर्थव्यवस्था के लिए ‘लिबरेट’ होते जाने का मार्ग प्रशस्त होना। किसान के लिए जो तर्कसंगत नीति नहीं बनने देना चाहते, वह वह लोग हैं जो अर्थव्यवस्था को लिबरेट नहीं होने देना चाहते, और उसपर अपना कंट्रोल बनाए रखना चाहते हैं। किसान की समस्या की तारें हमारे वर्णाश्रमी, सामंती और महाजनी सभ्यता, समाज व अर्थव्यवस्था से जुड़ती है। ऐसे में आय दुगुनी कर देने का वादा भी खोखला नज़र आता है, क्योंकि किसानों के पास अगर पूंजी और बाजार पर नियंत्रण नहीं अाता है, तो आज की तुलना में जबतक आय दुगुनी हो जाएगी तबतक आज की तुलना में व्यय भी दुगुनी हो जाएगी, और आय की वृद्धि का जो लाभ होगा भी वह भी बहुत बड़े किसानों और ‘मालिक’ वर्ग तक सीमित हो जाएगा।
आजादी के इतने वर्षों बाद भी किसान ‘उद्यमी’ नहीं हैं। अपनी छोट, मध्यम या बड़े जोतों के साथ किसान बारगेनिंग के मामले में स्वतंत्र आर्थिक इकाई नहीं है। किसानी समाज और आर्थिकी को समझना है तो ‘मालिक’ अवधारणा को समझना होगा। ‘मालिक’ वह है जिसके पास जमीन की मिल्कियत है, पूंजी है, जो अपनी उच्चतर जातीय स्थिति के आधार पर बहुत सारा बेगार या बहुत सस्ते मजदूर भी पाता है, पर जो खेत में अपना श्रम नहीं लगाता है या नाम मात्र लगाता है। जो मध्यम और बड़े किसान हैं वह भी छोटे- मोटे मालिक हो सकते हैं, क्योंकि वह भी भूमिहीन मजदूर की मजदूरी खरीदते हैं, पर वह मूलत: किसान हैं क्योंकि अपनी खेती में लगने वाले श्रम और जोखिम का बड़ा प्रतिशत वही उठाते हैं। किसान, मालिक का किराएदार होता है, मालिक या अपने जमीन का मजदूर होता है, और छोटी मोटी जोतों का मालिक होता भी है तो भी अपनी जोत का उद्यमी होने की स्थिति में नहीं होता है, क्योंकि उसके गांव की कुल जमा आर्थिक नियति पर मालिक व महाजन वर्गों का कब्जा है। जब हम ‘किसान’ कहते हैं तो उसमें भूमिहीन मजदूर भी शामिल हो जाते हैं। इन भूमिहीन मजदूरों की आर्थिक नियति तो मालिक वर्ग पर और भी बुरी तरह निर्भर है।
इस तरह, ‘किसान’ की अवधारणा को ‘मालिक’ की अवधारणा के बरक्स रखकर देखे जाने की जरूरत है। यह ‘मालिक’ पुराना सामंत है, उस गांव की जाति-संरचना में उच्चतर जाति है, गांव के ‘महाजनों’ के साथ जिसकी पुरानी साठगांठ है, तथा इनका और महाजनों का मिलाकर पूंजी और बाजार खरीद-फरोख्त पर जो मिला जुला नियंत्रण है, उस वजह से खेती मालिक वर्ग के लिए कम जोखिमपूर्ण है, और अपनी ताकत की बदौलत खेती के जोखिम को मालिक-वर्ग किसान-वर्ग की तरफ ट्रांसफर कर देता है। खेती की तमाम अनिश्चितताएं किसान वर्ग पर बोझ है, पर उस हद तक वह मालिक वर्ग पर बोझ नहीं है। मालिक के खेत पर काम करने वाला किराएदार किसान या अपने ही खेत पर काम करने वाला अपना ही मजदूर किसान श्रम (या श्रम का बड़ा हिस्सा) तो अपना लगाता ही है, बीज और तमाम उपादान वही खरीदता है। भूमिहीन मजदूर तो और भी बेबस है।
‘मालिक’ और ‘किसान’ अवधारणाओं का भेद, इसके बावजूद कि अनेक किसान आंशिक मालिक होते हैं, समझने के बाद ही यह समझा जा सकता है कि किसानों के लिए खेती कैसे एक उद्यम नहीं है। किसानों के लिए खेती उद्यम नहीं है, क्योंकि श्रम और जोखिम का बोझ ढोने वाला होने के बावजूद पूंजी और बाजार-विपणन और मोल-जोल के मामलों में कमजोर होने के कारण वह उद्यमी नहीं हैं। वह मालिक और महाजन पर निर्भर है, सरकार भी एक महाजन बनकर ही उसके समक्ष आती हैं। सरकारी विपणन योजनाओं को गहराई से देखा जाए, तो हम देखेंगे कि वह महाजनी खरीद फरोख्त की व्यवस्थाओं का विकल्प बनने का कूबत नहीं रखती हैं, बल्कि महाजनी व्यवस्था के गैप एरियाज को भरकर उस व्यवस्था को ही पीछे से इमपावर करती हैं। ‘मालिक’ उद्यमी होने का भ्रम पैदा करता है और सरकारी सबसिडी आदि का मलाई भी ज्यादातर उसके हिस्से जाता है। अनेक छोटे ‘मालिक’ भी आजकल और भी कमजोर हुए जा रहे हैं, और महाजनों की बैंकिंग, सरकारी योजनाओं और बाजार पर जो पकड़ बढ़ती जा रही है, उसके आगे छोटे मालिक बौने होकर अपनी खेती में श्रम का अधिक बड़ा प्रतिशत लगाने लगे हैं और ‘किसान’ होने लगे हैं। उत्तर उदारवादी समय में गांवों में ‘महाजन’ अपने साथी ‘मालिकों’ की तुलना में अधिक पावरफुल होने लगे हैं और छोटे-मोटे मालिक उनके सामने नतमस्तक हो किसान बनते जा रहे हैं।
किसानों के तमाम आंदोलनों में मांगों का जो सार है, वह यही है कि पूंजी और बाजार पर शुद्ध किसानों की तुलनात्मक पहुंच बेहतर हो पर आजादी के इतने सालों बाद भी जो सरकारी नीतियां हैं, वह सब्जबाग दिखाने वाली और ‘मालिक’ और ‘किसान’ की अवधारणाओं के ओवरलैप का फायदा उठाकर ‘मालिक’ और ‘महाजन’ को ही अधिक-से-अधिक फायदा पहुंचाकर किसानों के हाथ में उद्यमिता को ट्रांसफर न होने देने की साजिशें हैं। सरकारों के साथ मिलीभगत करके कॉर्पोरेट ‘मालिक’ बनने के चोखा धंधा में कूदने को तैयार हैं।
पांडेय राकेश पब्लिक पॉलिसी के विशेषज्ञ के तौर पर स्वतंत्र लेखन और शिक्षण करते हैं। मनोविज्ञान में भी दखल हैऔर स्वतंत्र तौर पर लाइफ कोचिंग भी करते हैं।