धर्मनिरपेक्ष भारत गणराज्य का निषेध नागरिकता कानून और नागरिकता रजिस्टर का मूल भाव है। यह हिंदुत्व की दीर्घकालीन राजनीति का हिस्सा है, इसका भी हिंदू धर्म की मूल भावना से विरोध है।
स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि पूरी दुनिया में भारत एक ऐसा देश है जहां हर कोने से आये हर धर्म के लोगों को शरण मिलती है। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि नागरिकता कानून महज आर्थिक चुनौतियों से लोगों का ध्यान हटाने के लिए है। इसका एक दीर्घकालीन लक्ष्य है, इसको नजरंदाज करना ठीक नहीं होगा।
दरअसल राष्ट्रीय स्वयं सेवकसंघ और भारतीय जनता पार्टी का इस तरह का कदम चाहे राम मंदिर बनाने का हो या नागरिकता कानून लाने का हो वह भारत के विचार के लोकतांत्रिक उदार मूल्य के विरूद्ध है और वह अधिनायकवादी, कारपोरेट हिंदू राष्ट्र बनाने के लक्ष्य को लेकर चल रहा है। हिंदुत्व की यह सनक भरी विचारधारा भारत के नागरिकों से कोई भी कीमत वसूलने से गुरेज नहीं करती है, चाहें वह गांधी जी हत्या हो, राज्य प्रायोजित दंगे हों या कल गृह युद्ध की तरफ देश को धकेल देने को हो।
हिंदुत्व के मुख्य सिद्धांतकार विनायक दामोदर सावरकर अपने राजनीतिक विचार में अधिनायकवादी हैं। विदेश नीति पर 1 अगस्त 1938 को पूना के एक भाषण में पंडित नेहरू के ऊपर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं कि ‘जर्मनी को नात्सीवाद और इटली को फासीवाद अपनाने का पूरा अधिकार है’।‘ हिंदुत्व पर अपने 1923 के लेख में उन्होंने द्विराष्ट्र सिंद्धांत की सबसे पहले वकालत की और भेदभावकारी नागरिकता, राष्ट्रीयता के समर्थक वे आजीवन बने रहे। इस संदर्भ में मोहम्मद अली जिन्ना की हिंदू राष्ट्र व मुस्लिम राष्ट्र की अवधारणा उनसे मेल खाती है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की इसी वैचारिक पृष्ठभूमि में अफगानिस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान से आने वाले प्रताड़ित हिंदू, जैन, पारसी, सिख, ईसाई और बौद्ध शरणार्थियों के लिए बने नागरिकता कानून को देखना चाहिए। मामला महज सताये हुए लोगों के साथ दयाभाव से खड़े होने का होता तो मुसलमानों और यहूदियों को नागरिकता पाने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाता। वैचारिक और राजनीतिक उत्पीड़न झेलने वाले तमिल हिंदुओं, रोहिंग्या मुसलमानों, नास्तिकों की नागरिकता पर भी विचार किया गया होता।
बहरहाल नया नागरिकता कानून बन गया है और यह मामला उच्चतम न्यायालय में पहुंच गया है। इसकी वैधता पर उच्चतम न्यायालय क्या निर्णय लेगा, उसके बारे में निश्चित हम कुछ नहीं कह सकते, लेकिन निश्चय ही संविधान की मूल भावना के अनुरूप यह नहीं है। संविधान का अनुच्छेद 14 स्पष्ट कहता है कि भारत राज्य के क्षेत्र में रहने वाले किसी के साथ भेदभाव नहीं हो सकता है। इस मामले में कानूनी मामलों के जानकार ही अच्छी राय दे सकते हैं, लेकिन 6 मतावलंबियों की नागरिकता तार्किक वर्गीकरण के आधार पर दी जा सकती है, यह कहना सही नहीं लगता है क्योंकि सामाजिक, शैक्षिक विषमता के आधार पर तार्किक वर्गीकरण की बात तो बनती है लेकिन धर्म के आधार पर अलगाव कर के कुछ को नागरिकता देना और कुछ को न देना समझ से परे है। बहरहाल ऐसे मुद्दों पर न्यायिक निर्णय पर हम पूरी तौर पर निर्भर नहीं हो सकते हैं। धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने की राष्ट्रीय आजादी आंदोलन की जो परिकल्पना थी, उसके लिए एक बड़े आंदोलन को खड़ा करने की जरूरत है। यह अच्छा है कि नागरिकता और राष्ट्रीयता के सहज स्वभाव के अनुरूप, धर्म, नस्ल जाति से ऊपर उठकर नागरिकता कानून के खिलाफ देश में आंदोलन खड़ा हो रहा है।
असम और पूर्वोत्तर में भाषायी, सांस्कृतिक आधार पर लोग एकता कायम कर के कर्फ्यू की परवाह न करते हुए सड़कों पर हैं और कुछ लोगों की जानें भी गई हैं। भाजपा ने शायद ही ऐसा सोचा हो कि सरकार के विरूद्ध इस तरह का आंदोलन असम में चले 80 दशक के आंदोलन से प्रबल होता दिख रहा है। यहां उसकी हिंदू-मुस्लिम विभाजन की विभेदकारी राजनीति पिट रही है। भाजपा को विश्वास था कि इनरलाईन परमिट सिस्टम यानि सरकार की अनुमति से उस क्षेत्र में जाने के नियम की वजह से और राज्य के अंदर राज्य यानि आटोनामस क्षेत्र के नागरिकों के विरोध से वह बच जायेगी और देर सबेर मणिपुर और मेघालय के अन्य क्षेत्रों को भी इनरलाईन परमिट सिस्टम में लाकर वह नागरिकता कानून के पक्ष में माहौल बना लेगी। लेकिन हुआ उलटा! त्रिपुरा व असम में तो अच्छा-खासा विरोध हो ही रहा है, पूरे पूर्वोत्तर भारत ने एनडीए की केंद्र सरकार और नागरिकता कानून के विरूद्ध बोलना शुरू कर दिया है। केंद्र और राज्य सरकारों के विरूद्ध वहां के नागरिकों का अविश्वास बना रहता है क्योंकि उनके अधिकारों पर बराबर अतिक्रमण होता रहता है।
कार्बी आंग्लांग, जो असम राज्य के अंदर राज्य के संवैधानिक व्यवस्था में है, के आंदोलन में हमने करीब से देखा है कि कैसे आदिवासी समाज के अधिकारों का अतिक्रमण हुआ और उन्हें अपने प्रदत्त अधिकारों को बनाये रखने के लिए संघर्ष करना पड़ा है। पूर्वोत्तर के नागरिकों को यह डर है कि असम के नागरिकता रजिस्टर में दर्ज न हुए लगभग 14 लाख हिंदू शरणार्थियों को उनके यहां बसा कर उन्हें उनके क्षेत्र में ही अल्पसंख्यक बना दिया जायेगा और उनकी एथनिक, भाषायी, सांस्कृतिक पहचान धीरे-धीरे खत्म हो जायेगी। वैसे भी भाजपा ने पूर्वोत्तर में राजनीतिक जगह भले बना ली हो, लेकिन वह हिंदू पार्टी के रूप में ही जानी जाती है।
मुस्लिम संगठनों के अलावा वाम-उदार विचार के लोग नागरिकता कानून के खिलाफ नये सिरे से गोलबंद हो रहे हैं। महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों में भी आंदोलन हो रहा है। नागरिकता कानून के विरूद्ध 19 दिसम्बर 2019 के राष्ट्रव्यापी विरोध के हम हिस्सेदार हैं और इस संघर्ष को आगे बढ़ायेंगे। लेकिन इस संदर्भ में हमें दो बिदुओं पर जरूर विचार करना होगा।
यह निर्विवाद है कि हिंदुत्व की अवधारणा भारत विचार के केंद्र में स्थित ‘जन’ के विरूद्ध है। जन के सम्मानजनक जीवन के लिए उसका आर्थिक पक्ष जीवनयापन लायक होना चाहिए। नई आर्थिक औद्योगिक नीति के दौर में इस ‘जन‘ की हालत बेहद खराब है। नवउदार अर्थनीति के दुष्परिणाम नौजवानों की बेकारी, किसानों की आत्महत्या, महंगाई में दिखते हैं। जन के विरूद्ध उपयोग में लाये जाने वाले काले कानून हैं। सुधा भारद्धाज जैसे निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी है, राज्य का बर्बर दमन है। हमें नागरिकता कानून, नागरिकता रजिस्टर के खिलाफ लड़ते हुए जन के इस लोकतांत्रिक सरोकार को भी उठाना होगा और समग्रता में अपनी लड़ाई को आगे बढ़ाना होगा।
दूसरा सवाल पड़ोसी मुल्क खासकर बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगनिस्तान के बारे में धारणा से संबंधित है। ऐसा नहीं है कि इन देशों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहोदर केवल धार्मिक उत्पीड़क ही रहते हैं, इन देशों में भी उदार, धर्मनिरपेक्ष विचारधारा और राजनीति के लोग हैं। यह सभी लोग जानते हैं कि आज भले ही बंग्लादेश में इस्लामिक राष्ट्र उनके संविधान में लिखा हो लेकिन 1971 में जब बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग होकर बना था वहां उनकी भी घोषणा एक सेकुलर, लोकतांत्रिक राष्ट्र की थी।
इसलिए हमें इन देश के नागरिकों को खलनायक के रूप में पेश करने की भाजपा की जो कोशिश है और उसके जो राजनीतिक निहितार्थ हैं उसे भी पर्दाफाश करना होगा।
लेखक स्वराज अभियान के नेता हैं